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Written By शैफाली शर्मा

तुम्हारे सिवा

जीवन के रंगमंच से

तुम्हारे सिवा -
SubratoND

आकर्षण की सीमा के परे
जब मैं तुम्हें सोचती हूँ
तो तुम मुझे दिखाई देते हो
मेरी रात के चन्द्रमा की तरह
जो मेरे अंतःसागर में हो रहे ज्वार-भाटे को
नियंत्रित किये हुए भ
तटस्थ रहता है अपने आसमां में,

विचारों की सीमा से परे
जब मैं तुम्हें सोचती हूँ
तो तुम मुझे दिखाई देते हो
उस दरख़्त की तरह
मेरे मन की गिलहरी जिस पर
अटखेलियाँ करने चढ़ जाती है
कभी फल तोड लेती है
तो कभी पत्तियों के झुरमुट से
निकलकर चली जाती है
सड़क के उस पार

स्वप्न की सीमा से परे
जब मैं तुम्हें सोचती हूँ
तो तुम मुझे दिखाई देते हो
नभ में उमड़ आए बादलों की तरह
मेरे यथार्थ की तपती भूमि पर
कुछ भीनी फुहारें बरसाक
मेरी माटी को सौन्धी कर देते हो

यथार्थ की सीमा से पर
जब मैं तुम्हें सोचती हूँ
तो दूर नहीं रह पाती हू
आकर्षण से, विचारों से, सपनों स
बहुत कुछ करीब होता है,
तुम्हारे सिवा...............