तुम्हारे सिवा
जीवन के रंगमंच से
आकर्षण की सीमा के परे जब मैं तुम्हें सोचती हूँतो तुम मुझे दिखाई देते होमेरी रात के चन्द्रमा की तरहजो मेरे अंतःसागर में हो रहे ज्वार-भाटे कोनियंत्रित किये हुए भीतटस्थ रहता है अपने आसमां में,विचारों की सीमा से परे जब मैं तुम्हें सोचती हूँतो तुम मुझे दिखाई देते होउस दरख़्त की तरहमेरे मन की गिलहरी जिस परअटखेलियाँ करने चढ़ जाती हैकभी फल तोड लेती हैतो कभी पत्तियों के झुरमुट सेनिकलकर चली जाती हैसड़क के उस पारस्वप्न की सीमा से परेजब मैं तुम्हें सोचती हूँतो तुम मुझे दिखाई देते होनभ में उमड़ आए बादलों की तरहमेरे यथार्थ की तपती भूमि परकुछ भीनी फुहारें बरसाकरमेरी माटी को सौन्धी कर देते होयथार्थ की सीमा से परेजब मैं तुम्हें सोचती हूँतो दूर नहीं रह पाती हूँआकर्षण से, विचारों से, सपनों सेबहुत कुछ करीब होता है,तुम्हारे सिवा...............