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Last Modified: मंगलवार, 19 नवंबर 2019 (15:54 IST)

उपभोक्ता खपत सर्वेक्षण के नतीजे क्यों जारी नहीं कर रही है भारत सरकार

Consumer consumption survey | उपभोक्ता खपत सर्वेक्षण के नतीजे क्यों जारी नहीं कर रही है भारत सरकार
उपभोक्ता खपत पर सरकारी रिपोर्ट को खारिज करने की वजह से सवाल उठ रहे हैं कि क्या भारत में गरीबी बढ़ी है और क्या सरकार इस बात को दबाना चाह रही है?
 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने उपभोक्ता खपत सर्वेक्षण 2017-18 के नतीजे जारी न करने की घोषणा कर तो दी है, पर इससे जो आशंकाएं जन्मी थीं, उनका अंत नहीं हो पाया है। सर्वेक्षण के नतीजे को बिजनेस स्टैंडर्ड अखबार ने जारी होने से पहली ही छाप दिया था। ये नतीजे चौंकाने वाले हैं। अर्थशास्त्री ये मान रहे हैं कि वे उसी ओर इशारा कर रहे हैं जिस तरफ भारतीय अर्थव्यवस्था के संकट में होने के अन्य संकेत इशारा कर रहे हैं।
 
अखबार में छापी गई इस रिपोर्ट के मुताबिक राष्ट्रीय स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) के कराए गए सर्वेक्षण से पता चला है कि 2017-18 में उपभोक्ता खर्च पिछले 4 दशकों में पहली बार गिरा। उपभोक्ता खर्च का मतलब है देश में रहने वाले परिवारों का सामान और सेवाओं पर किया गया कुल खर्च। इसका साफ अर्थ है कि 40 सालों में पहली बार भारतीय उपभोक्ता ने अपने कुल खर्च में कटौती की है।
 
अखबार के अनुसार सर्वेक्षण में सामने आया है कि मासिक प्रति व्यक्ति उपभोक्ता खर्च जो 2011-12 में 1,501 रुपए था, वो 2017-18 में गिरकर 1,446 रुपए पर आ गया था यानी 6 सालों में 3.7% की गिरावट। यह गिरावट मुख्य रूप से ग्रामीण इलाकों की वजह से थी, क्योंकि ग्रामीण इलाके में रहने वालों के उपभोक्ता खर्च में 8.8 प्रतिशत की गिरावट आई है। शहरी इलाकों में यह आंकड़ा 2 प्रतिशत बढ़ा था।
 
इस रिपोर्ट में और ज्यादा चिंता की बात यह थी कि खर्च में कटौती सिर्फ वस्तुओं में नहीं, बल्कि खाने-पीने की चीजों में भी हुई थी। 2017-18 में एक औसत ग्रामीण परिवार ने 1 महीने में खाने पर सिर्फ 580 रुपए खर्च किए यानी रोज 20 रुपए से भी कम। भोजन पर इतना कम खर्च दशकों में कभी नहीं हुआ। इसके मुकाबले 2011-12 में खाने पर प्रतिमाह खर्च 643 रुपए था। भोजन के अलावा दूसरी श्रेणियों में हुए खर्च में और भी बुरी गिरावट देखने को मिली।
 
अखबार ने यह भी कहा कि सरकार की एक समिति ने इस रिपोर्ट का अनुमोदन कर दिया था और इसे जून 2019 में जारी किया जाना था, पर फिर भी इसे जारी नहीं किया गया। अखबार में इस रिपोर्ट के अंश छपने के बाद सरकार ने इस रिपोर्ट को जारी करने से साफ मना ही कर दिया।


नोटबंदी की वजह से खपत में गिरावट?
 
आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ इसे मुख्यत: नवंबर 2016 में हुई नोटबंदी से जोड़कर देख रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर प्रवीण झा कहते हैं कि इस सर्वेक्षण के नतीजे इसके पहले आए एनएसओ के ही रोजगार सर्वेक्षण के अनुरूप हैं।
 
प्रवीण झा कहते हैं कि रोजगार गिरेगा तो खरीदने की क्षमता भी गिरेगी, ये अपेक्षित ही है। नोटबंदी और फिर उसके तुरंत बाद जीएसटी के आने से देश की पूरी अर्थव्यवस्था के 70-80 प्रतिशत हिस्सों पर साफतौर पर प्रतिकूल असर पड़ा था। प्रवीण झा के मुताबिक गिरती हुई मांग उपभोक्ता सामान बनाने वाली कंपनियों से लेकर महंगे सामान बनाने वाली कंपनियों के बिक्री नतीजों में और क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की समीक्षा में भी दिख ही रही है।
 
क्या गरीबी बढ़ रही है?
 
दूसरे कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि एनएसओ रिपोर्ट में जिन हालात की तरफ इशारा किया जा रहा है, उसमें कोई दोराय नहीं है। अर्थशास्त्री आमिर उल्लाह खान कहते हैं कि खपत के गिरने की तरफ तो नोबेल विजेता प्रोफेसर अभिजीत बनर्जी ने भी ध्यान दिलाया था और उन्होंने भी एनएसओ के ही आंकड़ों को देखकर यह कहा था।
 
खान कहते हैं कि असल चिंता की बात यह है कि खपत के इस तरह गिरने का संकेत यह है कि गरीबी बढ़ रही है। दुनियाभर में गरीब से गरीब देशों- बांग्लादेश से लेकर बोलीविया तक में गरीबी कम हुई है। अगर सिर्फ भारत में गरीबी बढ़ी है तो सोचिए ये कितनी भयावह स्थिति है?
 
खान एक और गंभीर समस्या की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहते हैं कि डाटा को छुपाने का खतरा यह है कि गरीबी कितनी बढ़ रही है, ये आप पता ही नहीं कर पाएंगे और लोग गरीबी के अपने ही आंकड़े बनाने लगेंगे। सरकार रिपोर्ट न जारी करने के अपने फैसले पर टिकी हुई है बल्कि उसने घोषणा की है कि सर्वेक्षण 2020-21 और 2021-22 में कराया जाएगा।
 
रिपोर्ट : चारु कार्तिकेय
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