महाभारत सारे संसार में सबसे लंबा महाकाव्य है। संस्कृत के प्रति बढ़ती हुई अरुचि के कारण वह स्वयं भारतीयों के लिए ही कुछ कम दुर्बोध नहीं है, विदेशियों की तो बात ही छोड़िए। तब भी, जर्मनी के भारतप्रेमी विद्वानों ने अब तक कम से कम 14 बार जर्मन भाषा में उसका भावानुवाद करने या उस के सारांश का वर्णन करने का प्रयास किया है। सबसे ताज़ा प्रयास है संस्कृत भाषा के जर्मन विद्वान प्रो. डॉ. गेओर्ग फॉन जिम्जन की लिखी पुस्तक 'महाभारत : भारतीयों की महाकथा' (महाभारता : दी ग्रोसे एर्त्सेलुंग फॉन देन भारतास)।
कह सकते हैं कि जर्मनी वह देश है, जिसने पश्चिमी जगत के विश्वविद्यालयों को, दो सदी पूर्व, 'भारतविद्या' (इंडोलॉजी) नाम का एक ऐसा विषय दिया, जिस का पहले अस्तित्व ही नहीं था। भारत की सभ्यता और संस्कृति से आकर्षित या उसके प्रति जिज्ञासु छात्र इस विषय के माध्यम से मूल रूप से संस्कृत भाषा सीखने और भारत के प्राचीन ग्रंथों को जानने-समझने का प्रयास करते थे। दो सदी पूर्व, 'भारतविद्या' के उस शैशवकाल में ही, तत्कालीन संस्कृत विद्वान फ्रांत्स बॉप ने, 1829 में, महाभारत की नल और दमयंती वाली कथा का जर्मन भषा में अनुवाद किया। इस के दो ही दशक बाद, 1847 में, एर्न्स्ट हाइनरिष मायर ने भी 'नल और दमयंती' नाम से महाभारत का एक आंशिक अनुवाद प्रकाशित किया।
1903 में भारतविद्या के एक ऐसे जर्मन विद्वान ने महाभारत को अपनी पुस्तक का विषय बनाया, जो पहले गणित का छात्र था। हेर्मन याकोबी गणित पढ़ते हुए भारत की ज्योतिषविद्या से ऐसे खिंचे कि उन्होंने अपनी पढ़ाई का विषय बदल दिया और मन लगाकर पहले संस्कृत सीखी। भातीय ज्योतिषशास्त्र पर शोथप्रबंध लिखकर ही उन्होंने पीएच.डी. (डॉक्टर) की उपाधि भी प्राप्त की। महाभारत की विषयवस्तु पर याकोबी की पुस्तक आने तक नल-दमयंती की कथा का यूरोप में इतना प्रचार हो चुका था कि रूस में उस पर पहली बार एक ऑपेरा की रचना की गयी और 22 जनवरी 1904 के दिन मॉस्को में उसका प्रथम प्रदर्शन हुआ।
ऋगवेद की नई कालगणना : हेर्मन याकोबी 1889 से 1922 तक जर्मनी के बॉन विश्वविद्यालय में भारतविद्या के प्रोफेसर रहे। उन का एक सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह रहा कि भारतीय ज्योतिषशास्त्र के अपने ज्ञान के आधार पर उन्होंने वैदिक काल की एक नई कालगणना की और कहा कि ऋगवेद की रचना 4500 वर्ष ईसापूर्व हुई होनी चाहिए। उस समय तक यह माना जाता था कि भारतीय वेदों की रचना कुल मिलाकर मुश्किल से एक हजार साल पहले हुई होनी चाहिए।
ऋगवेद को कम से कम साढ़े छह हजार वर्ष पुराना बताने वाली याकोबी की कालगणना का, लेकिन एक अर्थ यह भी लगाया जाने लगा कि आर्यों ने वेदों की रचना भारत में आने के बाद नहीं, भारत में आने से बहुत पहले ही करली थी। वे भारत के भूमिपुत्र नहीं थे, बल्कि बाहर से आए थे। वैसे, यह बहस आज तक समाप्त नहीं हुई है कि आर्य मूल रूप से भारत के ही निवासी थे या कहीं और से आकर भारत में बस गए थे।
'महाभारत' महानाटक की भूमिका : महाभारत तो क्या, स्वयं भारत (इंडिया) का नाम भी जर्मनी के जनसाधारण के बीच बहुत सुपरिचित नहीं है। दूसरी ओर, वह जर्मनी के साहित्यिक और सांस्कृतिक दायरों में अपरिचित भी नहीं है। इसलिए भी नहीं, कि न केवल हेर्मन याकोबी के बाद भी जर्मन संस्कृत विद्वानों की नई पीढ़ियों ने उस पर कुछ न कुछ काम किया है, ब्रिटिश रंगमंच निर्देशक पीटर ब्रुक के 1985 में फ्रांस के आविन्यों में मंचित 9 घंटे के महानाटक 'महाभारत' की जर्मन मीडिया में भी काफी चर्चा रही है। यह नाटक चार वर्षों तक दुनिया भर में घूमता रहा। टेलीविजन की सुविधा के लिए उसे काट-छाँट कर 6 घंटो का बनाया गया और डीवीडी पर उतारने के लिए तीन घंटे का। इस नाटक पर बनी तीन भागों वाली फिल्म जर्मनी में भी कई बार दिखाई गई।
महाभारत कथावर्णन, तत्वदर्शन और नीतिशास्त्र का एक ऐसा महासागर है, जिस में छिपे मोतियों को पाने के लिए उस में बार-बार गोता लगाना पड़ता है। संस्कृत भाषा के एक वर्तमान जर्मन विद्वान गेओर्ग फॉन जिम्जन (Georg von Simson) ने लीक से हट कर यही प्रयास किया है। उन्होंने महाभारत का पहली बार एक ऐसा आंशिक अनुवाद और विद्वत्तापूर्ण सारांश प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, जिसे विज्ञान-सम्मत बताया जा रहा है। विज्ञान-सम्मत का अर्थ है, उन्होंने एक ऐसा प्रयास किया है, जो वौज्ञानिक शोध (रिसर्च) की कसौटियों पर खरा उतरता है।
गेओर्ग फॉन जिम्जन : इस समय 78 वर्ष के गेओर्ग फॉन जिम्जन जर्मन हैं, पर1977 से 203 तक नॉर्वे की राजधानी ओस्लो के विश्वविद्यालय में भारतीय साहित्य और भारतीय भाषाओं के प्रोफेसर रहे हैं। उनके शोधकार्य का मुख्य बल प्राचीन भारत के महाकाव्य, वेद-पुराण और सनातन हिंदू धर्म पर रहा है। साथ ही उन्हों ने संस्कृत में लिखी प्राचीन मध्य एशियाई बौद्ध पांडुलिपियों के अनुवाद भी किये हैं। वे संभवतः बहुत सीधे-सादे और आत्मप्रचार से दूर रहने वाले विद्वान हैं, क्योंकि उनके बारे में इससे अधिक जानकारी फिलहाल उपलब्ध नहीं है।
महाभारत 'बाइबल' से 15 गुना बड़ा : महाभारत ईसाइयों की धर्मपुस्तक 'बाइबल' से 15 गुना बड़ा है। उसकी कुल 19 जिल्दें हैं। एक ऐसी भारी-भरकम पुस्तक के संपूर्ण प्रामाणिक अनुवाद के लिए एक अकेले व्यक्ति का संपूर्ण जीवन भी शायद पर्याप्त नहीं हो सकता। गेओर्ग फॉन जिम्जन की 54 यूरो (लगभग चार हजार रुपए) महँगी पुस्तक भी यद्यपि कुछ कम मोटी नहीं है। कुल 927 पृष्ठ हैं। आधे किलो से अधिक भारी है। तब भी, संस्कृत में लिखे मूल महाभारत के केवल पाँच प्रतिशत का जर्मन रूपांतर है। यह पाँच प्रतिशत भी गागर में सागर से कम नहीं है। पाठक हिंदू धर्म के मूलत्वों से परिचित होता है। जान सकता है कि हिंदू धर्म वैसा क्यों है, जैसा वह है- मतांधता से दूर, प्रवाहमय और परिवर्तनशील। तार्किक और सतर्क। पर, अपने मूल चरित्र में हमेशा दार्शनिक और दूरदर्शी। इहलोक से अधिक परलोक को समर्पित।
गेओर्ग फॉन जिम्जन का अपनी इस पुस्तक में कहना है कि महाभारत एक ऐसी धार्मिकता पर आधारित है, जो कोई 400 वर्ष ईसापूर्व के भारत में पनपने लगी थी। उसकी जड़ें पुरानी वैदिक परंपरा में निहित हैं, 'तब भी विकास-धारा चलती रही और दिखाती है कि ध्यान साधना का प्रचार करने और योग-तपस्या पर बल देने वाले आन्दोलनों के पदचिह्न भी बने रहे।'
हिंदू धर्म आध्यात्म का अंतर्मुखी रास्ता : वे कहते हैं कि हिंदू धर्म की जड़ें वैदिक परंपरा में जरूर हैं, लेकिन उसे वैदिक काल का कर्मकांडी दिखावा, विशेष कर बड़े-बड़े यज्ञों के समय पशुबलियों का अनुष्ठान, पसंद नहीं था। अतः उसने ईश्वर को बाहर के बदले ध्यान साधना, तपस्या और आत्मानुभूति के द्वारा अपने अंतरमन में ढूँढने का रास्ता अपनाया।
महाभारत में कहा गया है कि दस बुराइयों से मनुष्य को दूर रहना चाहिये- तीन कर्म, चार वचन और तीन चिंतन की बुराइयों से। तीन कर्मणा बुराइयाँ हैं हत्या, चोरी और परस्त्रीगमन। जिन चार बुराइयों से बोलते समय बचना चाहिए, वे हैं निरर्थक बकवास, किसी का अपमान करना, किसी को बदनाम करना और झूठ बोलना। सोच-विचार या चिंतन के समय जिन तीन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, वे हैं लालच से बचना, सभी जीवधारियों के प्रति प्रेमभाव और याद रखना कि जैसा अपना काम होगा, वैसा ही फल मिलेगा।
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पुनर्जन्म हिंदू धर्म की आधारभूत आस्थाः गेओर्ग फॉन जिम्जन कहते हैं कि हीब्रू भाषा मे लिखी बाइबल में भी इसी तरह के दस आदेश (कमांडमेंट्स) हैं और बाइबल में भी उन्हें उसी तरह कथा-कहानियों मे पिरोया गया है, जिस तरह महाभारत में पिरोया गया है। दोनो ग्रंथ यह भी कहते हैं कि इन नियमों को जानते हुए भी मनुष्य अपने स्वार्थों के चलते उन से मुँह फेर लेता है। महाभारत में क्रूर, कुत्सित, दुखद और वीभत्स कथाओं की भी कमी नहीं है, लेकिन वह जीवन के प्रति गहरे आनंदभाव से ओतप्रोत भी है। स्वयं इस कारण भी, कि पुनर्जन्म हिंदू धर्म की आधारभूत आस्था है।
अपने अनुवाद के लिए जिम्जन ने महाभारत के उस संस्करण को चुना है, जिसे ऐतिहासिक-आलोचनात्मक दृष्टिकोण वाला माना जाता है। किसी अविकल अनुवाद के बदले उन्होंने धार्मिक-आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हिस्सों पर ध्यान केंद्रित किया है। सबसे महत्वपूर्ण श्लोक, स्त्रोत या कथानक उद्धरण के रूप में लिए हैं। उद्धरणों का अनुवाद किया है। टिप्पणी के माध्यम से उन्हें समझाया है। कुल 927 पृष्ठों में से 300 से अधिक ऐसे हैं, जिन में उन्हों ने उद्धरित व अनुद्धरित हिस्सों का टिप्णियों के रूप में सारांश दिया है।
भिन्न अनुवाद शैली : उनकी अनुवाद शैली अब तक के अनुवादों से भिन्न है। महाभारत तो एक ऐसी महाकथा है, जिस में, किसी पेड़ के तने से फूटती शाखाओं-प्रशाखाओं की तरह, एक कथा से अनेक कथाएँ भूटती हैं। इस तरह के कथा-वर्णनों को उन्होंने गद्यरूप में वर्णित किया है। लेकिन, पद्यरूपी संवादों को उन्होंने अधिकतर उनके पद्यरूप में ही रखने का प्रयास करते हुए अपनी काव्य-प्रतिभा का भी परिचय दिया है। खटकने वाली बात इतनी ही है कि कौरव-पांडव युद्ध के समय रणभूमि पर हुआ कृष्ण- आर्जुन संवाद, जिसे हम भगवद गीता के नाम से जानते हैं, इस पुस्तक में नहीं है।
पुस्तक के टिप्पणी वाले हिस्से में इसका कारण बताते हुए जिम्जन ने लिखा है कि उन के प्रकाशक (बर्लिन के फ़ेर्लाग देयर वेल्ट रेलिगियोनेन/ विश्वधर्म प्रकाशनगृह) ने चार साल पहले भगवद गीता का जर्मन अनुवाद अलग से प्रकाशित किया है, इसलिए उसका सुझाव था कि गीता वाले अंश को इस पुस्तक में रखना जरूरी नहीं है। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रकाशनगृह एक के बदले दो पुस्तकें बेचने का व्यापारिक लाभ देख रहा था, जबकि पाठक चाहेगा कि उसे महाभारत के साथ यदि गीता भी मिलती, जोकि महाभारत का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है, तो वह हिंदू धर्म- दर्शन का समग्र परिचय पा जाता।
धार्मिक कथनों व पृष्ठभूमियों पर बलः पुस्तक की भूमिका में कहा गया है कि महाभारत की विशालता को देखते हुए गेओर्ग फॉन जिमजोन को अनुवाद-योग्य निर्णायक महत्व के अंशों का चयन करना पड़ा। अतः उन्होंने मुख्य रूप से उन अंशों पर ध्यान केंद्रित किया, जो इस महकाव्य के धार्मिक कथनों और उन की पृष्ठभूमि को उजागर करते हैं। जिन अंशों का अनुवाद करना उन्होंने जरूरी नहीं समझा, उन का संक्षेप में इस तरह सारांश दिया है कि पुस्तक पढ़ने का प्रवाह बना रहे।
भारत विद्या का अंधेरा भविष्य : महाभारत का जर्मन भाषा में विस्तृत और वैज्ञानिक अनुवाद हो जाने का यह अर्थ नहीं है कि अब जर्मनी में सभी लोग उसे पढ़ेंगे या महाभारत से परिचित हो जाएंगे। यह मोटी पुस्तक कुल मिला कर उन जर्मन विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाएगी, जहाँ अब भी भारतविद्या अध्ययन की सुविधा हैं या भारतीय भाषाएँ पढ़ाई जाती हैं। एक दशक पूर्व इन विश्वविद्यालयों की संख्या लगभग दो दर्जन थी, अब केवल एक दर्जन रह गई है। इन एक दर्जन में से भी कई विश्वविद्यालय, छात्रों या धन की कमी के करण, ठीक इस समय या तो अपने यहाँ भारतविद्या की पढ़ाई बंद कर कर देने की प्रक्रिया में हैं या अगले दो-तीन वर्षों में बंद कर देंगे।
भारत में ही उपेक्षित हिंदी या संस्कृत क्यों पढ़ें? कारण कई हैं। छात्रों और विश्वविद्यालयों की दृष्टि से स्वयं भारत में ही उपेक्षित हिंदी या संस्कृत जैसी भाषाओं के पठन-पाठन पर धन और समय बर्बाद करने से कहीं बेहतर है चीन के बारे में जानना और चीनी भाषा पढ़ना-पढ़ाना। विश्वविद्यालय ही नहीं, सामान्य हाईस्कूल और जूनियर कॉलेज तक चीनी भाषा पढ़ाने लगे हैं। जिन लोगों ने वर्षों की मेहनत से हिंदी जैसी कोई भारतीय भाषा सीखी भी है, उन्हें जर्मनी में न तो कोई काम-धंधा मिलता है और न भारत में कोई उन से अंग्रेजी के सिवाए किसी दूसरी भाषा में बात करता है।
उन का कहना है कि कई भारतीय तो उन पर बिगड़ जाते हैं और कहते हैं कि क्या हम अनपढ़ हैं या हमें अंग्रेजी नहीं आती कि तुम हम से हिंदी में बात करना चाहते हो? जर्मनों की समझ में नहीं आता कि भारतीय अपनी ही राष्ट्रभाषा में बात करने में अपमान और अंग्रेजी बोलने में सम्मान क्यों अनुभव करते हैं? चीनियों या अन्य देशों के लोगों की तरह उन्हें अपनी भाषा पर गर्व क्यों नहीं है? साठ साल से अब तो अंग्रेज भी भारत में नहीं रहे कि अंग्रेजी लिखना- पढ़ना- बोलना भारतीयों की मजबूरी मानी जा सके? वे मजाक उड़ाते हैं कि हर भारतीय यह कहता फिरता है कि अंग्रेजी कोई विदेशी नहीं, भारतीय भाषा है!