एक समय विपुलाचल पर श्री वर्धमान स्वामी समवशरण सहित पधारे। तब राजा श्रेणिक ने नमस्कार करके हाथ जोड़कर प्रार्थना करी, कि महाराज! रोट तीज व्रत कैसा और इस व्रत से किसको लाभ हुआ और यह व्रत कैसे किस विधि से किया जाता है, सो कृपा करके कहो।
तब वर्धमान स्वामी राजा श्रेणिक से कहते, भये राजन्! एक समय उज्जैनी नगरी में एक सागरदत्त नाम का सेठ रहता था। उसके छप्पन करोड़ दीनारों की लक्ष्मी देशांतरों में माल भरकर उसके प्रोहन (जहाज) जाते थे। उस सेठ के सात पुत्र थे। एक दिन श्रीमंदिरजी में एक व्रती मुनिराज ने यती और श्रावक के धर्मों का वर्णन किया। श्रावकों ने अपनी शक्ति के अनुसार व्रत लिए। सागरदत्त की सेठानी ने भी प्रार्थना करी कि महाराज मुझे भी ऐसा सरल व्रत दीजिए, जो कि एक साल में एक ही वक्त आए और उसमें मैं कुछ खा सकूं। श्री मुनिराज ने फरमाया कि हे! सेठानी व्रत-नियम थोड़े से भी इस पामर जीव को संसार में पार लगा देते हैं।
श्री चौबीसा व्रत जिसे रोट तीज भी कहते हैं, साल में एक ही वक्त करना होता है। भाद्रपद शुक्ल तृतीया (तीज) को सामायिक स्नान ध्यान करके चौबीस महाराज की पूजन विधान करना चाहिए।
एक वक्त छहों रस का त्याग करके एकासन और एक ही अन्न से उसी वक्त अन्न और पानी से अंतरायरहित नियमपूर्वक करना चाहिए। इससे लक्ष्मी अटल रहती है। व्रत के दिन कुकथाओं का त्याग करके शील सहित धर्म-ध्यान में लीन रहना चाहिए। चार प्रकार का दान देना चाहिए।
यह व्रत तीन, बारह व चौबीस वर्ष करना चाहिए। श्रावक के षट् कर्म का (देव पूजा, गुरु सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप, दान) पालन करना चाहिए। सेठानी श्री गुरु को नमस्कार करके और व्रत लेकर घर आई। घर आकर सेठानी ने अपने कुटुम्ब परिवार से व्रत लेने के विषय में कहा। कुटुम्ब परिवार ने कहा कि फूलों में रखकर कोमल चावल, घी, शकर, मेवा आदि उत्तम पदार्थों के मिश्रण से जो भोजन किया जाता है, वो हजम नहीं होता है तो ऐसा कठोर व्रत कैसे किया जाएगा।
कुटुम्ब परिवार की निंदा से सेठानी ने लिए हुए व्रतों का त्याग कर दिया। व्रत भंग के पापोदय से सर्वलक्ष्मी नष्ट हो गई, मोतियों का पानी हो गया, रत्नों व सोने-चांदी के ढेर थे, वे पत्थर-कंकरों के ढेर हो गए, देशांतरों के प्रोहन (जहाज) जहां के तहां रह गए, धन के अभाव में दास-दासियां भाग गए तथा दिन बड़े ही कष्ट से व्यतीत होने लगे।
तब सेठ, सेठानी और सातों पुत्र और उनकी स्त्रियां इस प्रकार 16 प्राणियों ने देशांतर जाने का विचार किया और उज्जैन नगरी छोड़कर बाहर निकल गए।
हस्तिनापुर में सागरदत्त सेठ की पुत्री परनाई थी। संकट के कुछ दिन काटने की इच्छा से हस्तिनापुर जाकर पुत्री को खबर पहुंचाई कि हमारे ऊपर संकट पड़ गया है, सो तेरे पास मदद के लिए आए हैं, हमारे संकट के कुछ दिन के लिए सहायक होना चाहिए।
पुत्री ने ऐसी बात सुनकर खबर लाने वाले को कहा- मेरे ससुराल वाले यह कहने लग जाएंगे कि हमारा धन चोरी-चोरी कर पीहर पहुंचा देती है अत: मेरे से ऐसा कष्ट सहा नहीं जाएगा इसलिए ये कष्ट के दिन दूसरी जगह जाकर बिताएं और थाली और दाल-भात भोजन की सामग्री, एक वक्त का भोजन और उसमें पांच रत्न छिपाकर भेज दिए।
सेठ के पापोदय और सेठानी के व्रतभंग दोष से वो थाल मिट्टी का बरतन भोजन सामग्री कीड़ों सहित और मोहरों के कोयले बन गए। उसे उसी जगह खड़ा खोदकर उसने गाड़ दिए और बसंतपुर ससुराल थी। वहां कुछ समय कष्ट के दिन काट देने की इच्छा से गए।
उस दिन सागरदत्त सेठ के साले रामजी सेठ के यहां जीमनवार थी। इस जीमनवार की खबर सुनकर उन्होंने विचार किया कि इस वक्त रामजी सेठ के यहां जीमने वास्ते बड़े-बड़े लोग आए होंगे, ऐसी गरीबी अवस्था में हमारा वहां पहुंचना ठीक नहीं होगा और रात के वक्त अंधेरे में चलेंगे।
कई दिनों की भूख से सभी अधीर हो रहे थे। सागरदत्त सेठ की स्त्री ने कहा कि भूख शांति के लिए मैं जाकर थोड़ा सा चावलों का पानी (मांड) जो मकान के पिछवाड़े से नाले में गिर रहा है, ले आती हूं। एक मटकी हांडी ले जाकर नाले के नीचे रख दी।
मकान के ऊपर रामजी सेठ की स्त्री खड़ी देख रही थी। उसने अपनी ननद को ऐसी गरीब हालत में देखकर विचार किया कि इनका धन नष्ट हो गया है और अब यहां हमको सताने आए हैं, ऐसा विचार करते हुए जिस नाले से चावल का मांड जा रहा था, उस नाले में एक पत्थर सरका दिया।
वो पत्थर पड़ने से नीचे रखी मटकी हांडी फूट गई और चावल का गरम-गरम मांड सेठानी के पैरों पर गिर गया जिससे वह जल गई और बहुत दुखित हुई। पुत्र, खबर पाकर कपड़े की झोली में डालकर उठा ले गए।
अयोध्या में सागरदत्त सेठ का मित्र रहता था। सेठ अपने कुटुम्ब को दूसरे ठिकाने पर छोड़कर अकेला ही अपने मित्र से मिलने गया। मित्र ने भली-भांति आदर-सम्मान किया और धैर्य देते हुए कहा कि- हे मित्र! संतोष धारण करो। हमारे घर को तुम अपना ही समझकर यहां रहो। तुम कुटुम्ब को दूसरे ठिकाने छोड़कर क्यों आऐ? क्या इस घर को तुमने दूसरा समझा था?
दोनों के आपस में रात के वक्त महल में दु:ख-सुख की बात करते हुए आधी रात्रि व्यतीत हो गई। मित्र तो उठकर दूसरे ठिकाने सोने को चला गया और सागरदत्त सेठ वहां ही रहा। उस वक्त वहां चित्राम का मंढी हुआ मोर था। उस हार को निगल रहा था और सेठ पड़े-पड़े देख रहे थे। सेठ ने विचार किया कि दिन निकलते ही मुझे यह चोरी का कलंक लगेगा और मैं कैसे रहूंगा? ऐसा विचार कर रात्रि में ही चला गया और अपने कुटुम्ब से जाकर सारी हकीकत कही।
उधर मित्र ने बहुत अफसोस किया कि मैं बहुत सेवा करने वाला था, वह चला क्यों गया? वहां से चलकर उन्होंने चंपापुरी में समुद्रदत्त सेठ के पास पहुंचकर अपने दु:ख की सब हकीकत कहीं। सेठ ने हर एक प्राणी को दो सेर खाई के गले हुए जौ और दो पैसे भर कड़वा तेल की मजदूरी में रख लिया।
स्त्रियां घर का काम करती थीं और पुरुष दुकान का काम करते थे। सागरदत्त सेठ ने समुद्रगुप्त की स्त्री को धर्मबहन बना लिया था। कुछ दिन बाद भाद्रपद शुक्ल दूज को समुद्रदत्त की स्त्री ने सबको कहा कि कल हर एक काम सफाई से करना, क्योंकि कल व्रत का दिन है।
सागरदत्त के छोटे बेटे की स्त्री ने पूछा कि कल कौन सा व्रत है और इससे क्या होता है और कैसे किया जाता है? समुद्रदत्त सेठ की स्त्री ने व्रत की उपरोक्त विधि बताते हुए कहा कि इससे लक्ष्मी बढ़ती है।
सागरदत्त की पुत्रवधू ने व्रत पर दृढ़ श्रद्धा करते हुए अपने भाग्य की जौ की रोटी बनाकर सबके साथ गुप्त रीति से ले गई और चढ़ाते हुए प्रार्थना करी कि हे प्रभु! हम तो रत्नों का नैवेद्य चढ़ाने लायक थे, परंतु आज हमारी ऐसी संकटापन्न स्थिति है कि मैं उपवास करके अपने भाग्य को नैवेद्य बनाकर आपको अर्पण कर रही हूं और करुणाभरी पुकार करी।
व्रत में दृढ़ श्रद्धा की वजह से इतना पुण्य उपार्जन हुआ कि चढ़ाया हुआ नैवेद्य तुरंत ही सुवर्ण रत्नों का बन गया और पंचों को खबर मिलने से पंच लोग आश्चर्य करने लगे।
उस तरफ समुद्रदत्त सेठ की स्त्री ने एक बड़ा रोट बनवाकर सागरदत्त की स्त्री को देते हुए कहा कि भोजाई, यह रोट आज तुम्हारे बच्चों को दे देना।
उसने पूछा कि ननदजी आज यह कौन-सा त्योहार है कि आज उत्सव मनाया जा रहा है।
उसने कहा कि आज चौबीसी व्रत अर्थात रोट तीज व्रत है और कभी संकट नहीं आता है।
सागरदत्त की स्त्री को मुनिराज के दिए हुए व्रत की याद आने और उसे भंग कर देने, छोड़ देने से भारी पश्चाताप हुआ और यह भी जाना कि इस व्रत भंग के दोष से हमारी यह संकटापन्न स्थिति हो गई है। पश्चाचाप करते हुए उसने व्रत करने का निश्चय किया।
व्रत पर श्रद्धा होने से और भूल का पश्चाताप होने से पुण्य का उदय हुआ जिसके प्रभाव से हाथ में आया हुआ रोट तुरंत ही सुवर्ण का बन गया। सुवर्ण का रोट देखकर लोभ उत्पन्न होने से समुद्रदत्त सेठ की स्त्री ने कहा कि भोजाई, आटा और सुवर्णों का रोट दोनों पास-पास रखे थे, सो गलती से यह सुवर्ण का रोट आ गया और गेहूं का वहीं रह गया। यह सुवर्ण का रोट मुझे वापस दे दो। गेहूं का रोट मैं तुम्हारे लिए लाती हूं।
यह रोट समुद्रदत्त की स्त्री के हाथ में जाते ही गेहूं का बन गया। तब समुद्रदत्त की स्त्री कहने लगी- भोजाई अब तुम्हारे पुण्य का उदय आ गया है जिससे तुम्हारे हाथ में आते ही सुवर्ण का रोट बन जाता है।
उधर सागरदत्त ने व्यापार-धंधा किया जिससे वे वापस करोड़पति हो गए। वहां से रवाना होकर वे मित्र के घर अयोध्या आए। मित्र ने जैसा सम्मान पहले किया था, वैसा ही सम्मान भाव व प्रेमपूर्वक अब भी किया।
दोहा
सौ सज्जनन अरु लाख मित्र, मजलिस मित्र अनेक।
दुख काटन विपदा हरन, सो लखन में एक।।
लेकिन नौकर लोग कहने लगे कि यह वही सेठ है, जो पहले मोर के गले से हार निकालकर ले गए। उसी द्रव्य से कमाई करके करोड़पति बनकर आए और अब कुछ लेने आए हैं, इनकी चौकसी करना। रात के वक्त वो ही चित्राम का मड़ा हुआ मोर उस हार को वापस उगलने लगा। तब सबको बुलाकर दिखाया कि एक दिन वो था जबकि चित्राम का मोर हार निगल गया था और यह दिन है कि चित्राम का मोर हार उगल रहा है।
वहां कुछ दिन रहकर सेठ अपनी ससुराल बसंतपुर आए। रामजी सेठ खबर पाकर लेने को आए। बहन ने कहा कि भाई, तुम हमारे धन को देखकर लेने आए हो। अगर हमें चाहते तो संकट में पहले मदद करते। उस वक्त भोजाई ने मांड भी नहीं लेने दिया। गरम-गरम चावलों का मांड पत्थर से गिराया जिसमें मेरा अंग जला, जो अभी भी अच्छा नहीं हुआ।
रामजी सेठ ने कहा- बहन, उस वक्त तुम्हारे पापोदय से कुबुद्धि सूझती थी। सेठ समझाकर बहन को अपने घर ले आए।
कुछ दिनों बाद हस्तिनापुर में अपनी पुत्री के यहां चले गए। पुत्री खबर पाकर बहुत सी सहेलियों के साथ गाजे-बाजे के साथ अगवानी को आई।
होत की बहन अनहोत का भाई, नैना पीछे नार पराई।
भाइयों ने कहा कि हे बहन! उस दिन को याद कर, जब हम संकटग्रस्त आए थे तो तू एक दिन भी रखने को राजी न थी। न मिलने को ही आई, बल्कि ठीकरे में कीड़े और कोयले ही भरकर भेजे थे जिन्हें हम यहां गाड़ गए थे। बहन ने कहा- भैया! मैंने तो भोजन ही भेजा था, तुम्हारे पापोदय से ऐसा बन गया। अगर मैं उस अवस्था में मिलने आती तो मेरी ससुराल और तुम्हारी दोनों की बदनामी होती।
सागरदत्त सेठ ने अपनी पुत्री को धन-जेवर देकर विदा किया। वे वहां से अपने देश उज्जैनी को वापस आ गए। जो लक्ष्मी पहले बिड रूप हो गई थी, वो सब अपनी असली अवस्था में मिली। दास-दासी, नौकर-चाकर सब आ मिले। देशांतरों के प्रोहन (जहाज) जो जहां के तहां रुक गए थे, वे सब पुण्य के प्रभाव से व्रत की दृढ़ श्रद्धा से आ मिले।
इससे हे जीवों, व्रत भंग को महादोष समझकर हर एक को व्रत दृढ़ श्रद्धा से करना चाहिए और उसकी कथा बांचना, सुनना, अनुमोदन करना चाहिए। चाहे कोई भी व्रत हो, व्रत करने वाले को पूजा, दान, सामायिक जरूर ही करना चाहिए।