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Last Updated : सोमवार, 21 मार्च 2016 (08:29 IST)

ताजिक मुस्लिमों से सीखें भारतीय मुस्लिम

ताजिक मुस्लिमों से सीखें भारतीय मुस्लिम - tajikistan muslims
ताजिकिस्तान मध्य एशिया का मुस्लिम बहुल देश है लेकिन यहां कुछ ऐसी बातें देखी जा सकती हैं जिनसे साबित होता है कि इस देश में इस्लामी कट्‍टरपंथ से बचने के लिए हर संभव उपाय किए जा रहे हैं। वर्ष 2010 में ताजिकिस्तान की सरकार ने विदेश में इस्लामी शिक्षा ले रहे अपने छात्रों को स्वदेश वापस बुला लिया था।   
ताजिकिस्तान में युवाओं के एक वर्ग में इस्लामी शिक्षा का काफी चलन रहा है। लेकिन ताजिकिस्तान के सैकड़ों छात्रों को देश वापस आने का आदेश दिया गया था। गौरतलब है कि ताजिकिस्तान के राष्ट्रपति ने छात्रों को 'इस्लामी कट्टरपंथ के प्रभाव से बचाने के लिए' ऐसा आदेश दिया था। हालांकि ताजिकिस्तान में सरकारी शिक्षा की स्थिति लचर है और वहां के छात्र धार्मिक शिक्षा के लिए मिस्र, ईरान और पाकिस्तान जाते रहे हैं। पर देश के राष्ट्रपति इमोमिल रहमान ने चेतावनी दी थी कि छात्रों को बाहर के देशों में सही शिक्षा नहीं दी जा रही है और उग्र विचारधारा के प्रभाव में उनके आने का खतरा है।
 
इस बात को सभी जानते हैं कि कट्टरवाद एक मानसिकता है। आतंकवाद की जड़ें इसी से बनती हैं। धार्मिक प्रतीकों का भी कट्टरवाद से बहुत करीबी नाता है। इसीलिए कट्टरवादी इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस) की चुनौती को देखते हुए मुस्लिम बाहुलय देश ताजिकिस्तान के लोकप्रिय राष्ट्रपति इमोमाली रहमान ने अपने नागरिकों से इस्लामी प्रतीकों मसलन, दाढ़ी और हिजाब से तौबा करने का कहा। हाल ही में वहां सरकारी अभियान के तहत 13 हजार मर्दों की लम्बी-लम्बी दाढ़ियां कटवाई गईं और 1700 महिलाओं को अपने सिर पर पहने हिजाब को हटाने के लिए राजी किया गया।
 
सरकार ने हिजाब बेचने वाली 162 दुकानें बन्द करवा दी। ये फैसला वहां के उस मुस्लिम राष्ट्रपति का है जो 1994 से लगातार ताजिकिस्तान की क़मान सम्भाले हैं और जिनका मौजूदा कार्यकाल 2020 तक है। लेकिन जरा सोचिए कि दाढ़ी और हिजाब जैसे धार्मिक कट्टरवाद के प्रतीकों को हटाने की ताजिकिस्तान जैसी कोशिश अगर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे देशों में हो, तो क्या होगा? यहां के सामाजिक ताने-बाने को देखते अकल्पनीय हिंसा और अराजकता पैदा होने का खतरा पैदा हो जाता है। मध्य एशिया के देश ताजिकिस्तान की सीमाएं रूस, चीन, किर्गिस्तान, उजबेकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच में हैं लेकिन यहां कट्‍टरता का कोई चिन्ह नहीं हैं। 
 
अफगानिस्तान के वाखन कॉरिडोर वाले इलाके में पाकिस्तान और ताजिकिस्तान के बीच सिर्फ़ 13 किलोमीटर का फ़ासला है। लेकिन करीब 86 लाख की आबादी वाला ताजिकिस्तान एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र है। इसकी 98% आबादी हनफी सुन्नी मुसलमानों की है। यहां अल्पसंख्यकों के रूप में 14% उजबेक़, 1% किरगिज़ और 1% ईसाई और यहूदी आदि रहते हैं। पहले की रूसी शिक्षा नीति की वजह से इस ग़रीब देश की तकरीबन सारी आबादी साक्षर है। अल्यूमीनियम, पनबिजली और कपास यहां का मुख्य उत्पाद है लेकिन देश की आधी आमदनी रूस में बसे प्रवासी मजदूरों की ओर से स्वदेश भेजी जाने वाली रकम से होती है।  
 
कभी ‘सिल्क रूट’ पर पड़ने वाला ताजिकिस्तान नशीले पदार्थों की तस्करी के लिए बदनाम रहा है।  लेकिन हाल के वर्षों में इस्लामी कट्टरवाद की हवा यहां भी पहुंच गई। करीब 2 हजार ताजिकों ने आईएसआईएस से अपना नाता जोड़ लिया। इसे देखते हुए ही ताजिक सरकार ने अपने नागरिकों को इस्लामी कट्टरवाद से बाहर निकलने की नीति बनाई। नई नीति के तहत पिछले सितम्बर में देश के इकलौते इस्लामिक राजनीतिक दल पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 
 
उसी नीति के तहत अब दाढ़ियों को कटवाने और हिजाब की संस्कृति को खत्म करने का क़ानून बना। हुकूमत की अगली कोशिश ‘अरबी’ नामों पर रोक लगाने की है क्योंकि वहां बड़ी संख्या में लोग अपने बच्चों के नाम में ‘मोहम्मद’ का इस्तेमाल करते हैं। हिजाब की आड़ में आसानी से हो रही वैश्यावृत्ति पर नकेल कसी गई है। ताजिकिस्तान ने पाया कि बीते सालों में पाकिस्तानी और अफगानी तालिबानियों ने सीमान्त इलाकों में अपना गढ़ बना लिया है। इसी को देखते हुए सरकार ने अब चौतरफा कार्रवाई की है।
 
अगले पन्ने पर जारी भारत की स्थिति....
 
 

भारत का सबसे बड़ा समाज हिन्दू (सनातनी) भी धीरे-धीरे तमाम धार्मिक प्रतीकों से दूर जाता रहा है। इससे उसकी धार्मिकता नहीं बदली लेकिन वह कट्टरवाद से दूर होता गया है। देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र की वजह से अन्य धार्मिक सम्प्रदायों के लोगों पर भी इसका कम या ज्यादा असर देखने को मिलता है। लेकिन ऐसी ही उदारता पड़ोस के पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में लगभग नहीं के बराबर है। खाड़ी के देशों का तो बहुत ही बुरा हाल है। भारत में सिखों के धार्मिक प्रतीकों की परम्परा सबसे सख्त है लेकिन बदलते दौर के साथ वहां भी उदारवाद को पूरी जगह मिलती गई है। पगड़ी और केश के अलावा बाकी वेष-भूषा के लिहाज से सिख समाज की परम्पराओं में भी काफी  बदलाव आया है।
 
लेकिन ऐसा नहीं है कि हमारे यहां कट्टरवादी ताकतें और प्रतीक नहीं हैं। लेकिन यहां सरकारों को कभी इनसे बहुत सख्‍ती से निपटने की नौबत नहीं आई। इस काम को बदलाव की अन्तर्धारा ने लगातार वैसे ही किया जैसे नदी का आन्तरिक पर्यावरण उसकी सफाई खुद ही करता रहता है।
 
पूरी दुनिया में ऐसा ही क्रमागत विकास वेश-भूषा से जुड़ी परम्पराओं में आया है। पश्चिमी में जन्मे पतलून-कमीज ने अपने डिजाइन की बदौलत सारी दुनिया में अपना परचम लहराया। इसने मनुष्य को एक शानदार एकरूपता में पिरोया। आज सारी दुनिया की पुलिस और सेना इन्हीं पोशाकों में दिखाई देती है। 
 
दुनिया के हरेक समाज की अपनी परम्परागत पोशाकें रही हैं लेकिन वह भी सामाजिक समारोहों तक सीमित होती चली गईं। अब इन्हें 'एथनिक वियर' के रूप में पहचाना जाता है। इसी तरह, आधुनिक शिक्षा, पेशा और रोजगार के साधनों ने हरेक समाज में परम्परागत वेश-भूषा को प्रभावित किया। इसे पुरानी चीज़ के पतन के रूप में नहीं देखना चाहिए वरन यह मनुष्य के क्रमागत विकास का सबसे सहज प्रतीक है। ये बताता कि आदिमानव कैसे कबीलों, सूबों और देश की धारणाओं से आगे बढ़ता हुआ धीरे-धीरे वैश्विक बन रहा है। बदलाव प्रकृति का नियम है और ताजिकिस्तान ने भी इसे समझा है। 
 
इतना ही नहीं, ताजिकिस्तान में जो हुआ है, वह पूरी तरह से अकल्पनीय है। दुनिया के सभी मुस्लिम देशों में यह आम प्रथा है कि मुस्लिम परिवारों के चचेरे-ममेरे भाई-बहनों में शादी करा दी जाती है लेकिन जब ताजिकिस्तान ने इस पर रोक लगाने का फैसला किया तो सारी दुनियां चौंक गई। यह मध्य एशिया का सबसे गरीब देश है लेकिन सरकार के इस फैसले से संसद का यह कानून अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में आ गया। ताजिक संसद के निर्णय ‍‍ल‍िया कि अब देश में कॉन्सेंग्युनियस विवाह (रक्त संबंधियों से विवाह) पर रोक लगाई जाती है। 
 
दुनिया के कई देशों जिनमें मुस्लिम ही नहीं वरन इसाई व अन्य धर्मों में ऐसी शादियां होती हैं लेकिन म‍ुस्लिम बहुत ताजिकिस्तान में लोगों के इस प्रगतिशील फैसले ने दुनिया को हैरत में डाल दिया। ताजिक सरकार ने यह फैसला लेते हुए तर्क दिया है कि इस तरह के विवाहों से आनुवांशिक रोग होने की संभावनाएं ज्यादा होती हैं। ताजिक सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने 25 हजार से ज्यादा विकलांग बच्चों का पंजीकरण किया और यह निष्कर्ष निकाला कि ऐसे विवाहों से करीब 35 फीसदी बच्चे ऐसे पैदा होते हैं जोकि आनुवांशिक बीमारियों की संभावनाएं लेकर पैदा होते हैं।  
 
दुनिया के एक चौथाई हिस्से में बसी आबादी के मध्य इस तरह (एक ही चरह के रक्त संबंधियों के बीच विवाह) आम हैं। एशिया, उत्तरी अफ्रीका, स्विट्‍जरलैंड, मध्य पूर्व, चीन, जापान और भारत में ही यह प्रथा प्रचलित है। दक्षिण भारत में तो कई स्थानों पर लड़कियों की शादी उनके मामाओं से भी   कर दी जाती है। अमेरिका जैसे देशों में भी ऐसे विवाहों पर प्रतिबंध नहीं है लेकिन वहां के कई राज्यों में इस तरह के विवाह की अनुमति केवल ऐसे लोगों को दी जाती है जोकि उम्र में 65 वर्ष से भी अधिक के हों और बच्चे पैदा करने में असमर्थ हों। कुछ देशों में चिकित्सकीय जांच के बाद ही   ऐसे विवाहों की अनुमति दी जाती है।
 
ताजिकिस्तान में ऐसा इसलिए किया गया है कि ताकि बच्चों में होने वाले आनुवांशिक रोगों पर रोक लगाई जा सके। इस संदर्भ में एक सटीक उदाहरण है कि ब्रिटेन में पैदा होने वाले बच्चों में तीन फीसदी बच्चे पाकिस्तानी मूल के होते हैं लेकिन जो बच्चे आनुवांशिक रोगों से पीडि़त होते हैं, उन कुल बच्चों में से 13 प्रतिशत पाकिस्तानी मूल के होते हैं। कुछ समय पहले ब्रिटेन के ब्रैडफोर्ड में एक ऐसा ही अध्ययन किया गया था। विदित हो कि ब्रैडफोर्ड पाकिस्तानी मूल के लोगों की बड़ी बस्ती है। यहां की आबादी में 17 फीसदी लोग पाकिस्तानी मुस्लिम हैं।
 
इन लोगों में से 75 फीसदी लोग अपने ही समुदाय में चचेरे, ममेरे भाई-बहनों में शादी करते हैं। भारत में भी ऐसे शोध नहीं किए गए हैं लेकिन इनके किए जाने की जरूरत है। आंध्र प्रदेश की एक महिला बिंदु शॉ ने दिल्ली विश्वविद्यालय में रहकर रिसर्च की है। उनका कहना है कि ' उन्होंने ऐसे दो सौ परिवारों का अध्ययन किया जिन्होंने कॉग्सेंग्यूनियस विवाह किए थे। इस शोध के दौरान यह भी देखने में आया कि चचेरे, ममेरे भाई- बहनों के बीच हुई शादी की तुलना में मामा से शादी होने वाले दम्पत्तियों में आनुवांशिक विकारों की संभावनाएं अधिक पाई जाती हैं।' इस बारे में उनका कहना है कि ' जब भी एक जैसा रक्त रखने वाले संबंधियों में विवाह होता है तो उनके कई जीन्स समान होते हैं।  
 
'ऐसे दम्पत्तियों में अगर जीन्स विकृत‍ होते हैं तो विकृत जीन्स की दो प्रतियां होने के कारण रोंगों की संभावना अधिक होती है। पर समुदाय से बाहर विवाह होने पर जीन्स का दायरा काफी बढ़ जाता है और विकृत जीन्स के बच्चों तक पहुंचने की संभावनाएं बहुत कम हो जाती है।' भारत में इस प्रकार की प्रथाएं सामाजिक पहलुओं, धार्मिक व सांस्कृतिक मान्यताओं के कारण होती हैं। इस तरह की सोच के पीछे आर्थिक कारण भी जिम्मेदार हैं क्योंकि लोगों का मानना होता है कि अपने ही संबंधियों के बच्चों में शादियां होने पर घर की सम्पत्ति बाहर नहीं जाती और इसका बंटवारा नहीं होता है। भारत के ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में माना जाता है कि अपनी बेटियों को अजनबी लोगों के हाथों में सौंपने से अच्छा है अपने संबंधियों को वरीयता दी जाए।  
 
इस तरह के विवाह जिन समुदायों में होते हैं, उनमें बच्चों के बीच प्रेम संबंध छोटी उम्र से ही पनपने लगते हैं। चूंकि उनमें पहले से ही दोस्ती होती है, दोनों के प्रेम संबंधों को विवाह में बदला जाना बुरा नहीं माना जाता है। लेकिन इस तरह के विवाहों का विरोध करने वाले लोगों का कहना है कि तथ्यों को सिद्ध करने के लिए आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है। इस तरह के विवाहों से पैदा होने वाले बच्चों की आनुवांशिक बीमारी का विरोध करने वालों का कहना है कि ऐसे रोग तो तब भी पैदा होते हैं जब महिलाएं अधिक उम्र, 40 वर्ष से बाद, मां बनती हैं। ताजिक संसद के इस फैसले के विरोध‍ियों का कहना है कि जब अधिक उम्र की महिलाओं के विवाह पर रोक नहीं लगाई जाती है तो कांग्सेंग्यूनियस विवाहों पर ऐसी रोक क्यों हो?  
 
लेकिन ताजिक सरकार के लोगों का कहना है कि विवाहों को मात्र आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से ही नहीं देखा जाए क्योंकि ऐसे विवाहों के परिणामों को चिकित्सकीय दृष्टिकोण से भी देखा जाना चाहिए। इस तरह के विचार से ताजिक संसद का फैसला तर्कसंगत नहीं वरन भावी पीढि़यों के भी हक में है।