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क्या है रोहिंग्या हिंसा की असली वजह..?

क्या है रोहिंग्या हिंसा की असली वजह..? - Rohingya violence
म्यांमार के सबसे गरीबतम रखाइन प्रांत में हाल के दिनों में रोहिंग्या लोगों के खिलाफ हिंसा में भारी बढ़ोतरी देखी गई है। बड़ी संख्या में विस्थापित लोग अत्याचारों से बचने के लिए पैदल या नावों की मदद से बांग्लादेश के लिए पलायन कर रहे हैं। हाल में विस्थापितों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन इसके पीछे अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी (आरसा) की हाल की गतिविधियां भी हैं। धार्मिक और प्रजातीय अंतरों के चलते इन्हें रोहिंग्या लोगों के दमन का आमतौर पर प्रमुख कारण माना जा रहा है।
 
लेकिन, ऐसा नहीं है कि इसके पीछे और भी कई कारण नहीं हैं। विशेष रूप से इसलिए क्योंकि म्यांमार में सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त 135 प्रजातीय गुट हैं जबकि 1982 से रोहिंग्या लोगों को इस सूची से बाहर कर दिया गया है। जब हाल की हिंसा का विश्लेषण किया जाता है तो पश्चिमी देशों का ज्यादातर मीडिया इस मामले में सेना की भूमिका और देश की वास्तविक नेता आंग सान सू की की भूमिकाओं पर विचार करता है। रोहिंग्या लोगों पर अत्याचारों की कहानियां सामने आने के बाद उनकी नोबेल शांति पुरस्कार विजेता की छवि को भी धक्का लगा है।
 
उनके बारे में कहा जाता है कि वे रोहिंग्या लोगों के खिलाफ सुनियोजित तरीके से की जा रही हिंसा की आलोचना करने से बचती रही हैं। आखिरकार मीडिया का ध्यान रोहिंग्या लोगों की दुर्दशा पर केन्द्रित हो गया है, लेकिन बहुत सारे ऐसे मुद्दे हैं जिन पर विचार नहीं किया गया है। दमन, अतिसंवेदनशीलता और विस्थापन के अन्य प्रमुख कारणों में आमतौर पर धार्मिक और प्रजातीय अंतरों से आगे नहीं जाया जाता है। 
 
सबसे पहले तो हमें यह बात सोचना चाहिए कि निहित राजनीतिक और आर्थिक हित भी म्यांमा में जबरन विस्थापन के सहायक कारण हैं। इन कारणों के चलते न केवल रोहिंग्या लोगों वरन अल्पसंख्यक गुटों जैसे काचिन, शान, करेन, चिन और मोन को भी विस्थापन का सामना करना पड़ा है।     
 
अल जजीरा की एक रिपोर्ट के अनुसार बड़े प्रजातीय गुट यहां बड़े पैमाने पर जमीनों पर कब्जा कर रहे हैं। जमीन पर कब्जा और जब्ती म्यांमार में बड़े पैमाने पर प्रचलित हैं। पर यह नया लक्षण नहीं है। 1990 के दशक से सैन्य शासन, सारे देश में छोटे जमीनधारकों की जमीनों पर कब्जा करते रहे हैं। इस कब्जे के लिए न तो क्षतिपूर्ति दी जाती है और न कोई अन्य प्रावधान हैं। यह प्रक्रिया सेना के अधिकारियों ने हरेक प्रजातीय या धार्मिक दर्जे के साथ अपनाई है।   
 
इस तरह की जमीन को अक्सर ही 'विकास' परियोजनाओं के लिए हासिल किया जाता है। यह अक्सर ही सेना के आधार शिविरों के विस्तारण, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और खनन, बडी कृषि परियोजनाओं, बुनियादी सुविधाओं और पर्यटन के लिए किया जाता है। उल्लेखनीय है कि काचिन राज्य में सेना ने ग्रामीणों की 500 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर कब्जा कर रखा है और यहां पर गोल्ड मा‍इनिंग (सोने के खनन) का काम किया जाता है।  
 
म्यांमार में विकास कार्यों ने हजारों लोगों को देश के अंदर और सीमापार के देशों, बांग्लादेश, भारत और थाईलैंड, को विस्थापित कर दिया जाता है। कभी कभी तो ये लोग समुद्री मार्ग से इंडोनेशिया, मलेशिया और ऑस्ट्रेलिया तक के लिए जाते हैं।  
 
वर्ष 2011 में म्यांमार ने आर्थिक और राजनीतिक सुधारों की शुरुआत की और इस कार्यक्रम को 'एशिया का फाइनल फ्रंटियर' का नाम दिया गया क्योंकि इसने देश को विदेशी निवेश के लिए खोल दिया था। इसके तुरंत बाद 2012 में रखाइन प्रांत में रोहिंग्या और कुछ हद तक करेन मुस्लिमों के खिलाफ हिंसक हमले किए जाने लगे। इस बीच, म्यांमार की सरकार ने खेती की जमीन के प्रबंधन और वितरण के लिए बहुत से कानून बनाए।  
 
इन कदमों की बहुत ही तीखी आलोचना की गई और कहा गया कि जमीन हथिया कर बड़ी-बड़ी कंपनियों को लाभ कमाने का अवसर दिया जा रहा है। उदाहरण के लिए एग्रीबिजनेस मल्टीनेशनल्स जैसे पॉस्को, दाइवू ने सरकार द्वारा सम्पर्क किए जाने के बाद बाजारों में उत्सुकतापूर्वक प्रवेश किया।
 
एक क्षेत्रीय लूट का माल : विदित हो कि म्यांमार, चीन और भारत जैसे देशों के बीच स्थि‍त है और लम्बे समय से इन दोनों देशों की इसके संसाधनों पर निगाह है। चीनी कंपनियां तो 1990 के दशक के बाद से ही म्यांमार के उत्तर के शान प्रांत में लकड़ी, नदी जल और खनिज पदार्थों का दोहन करती रही हैं। 
 
सरकार की इसी नीति के खिलाफ सैनिक शासन और सशस्त्र गुटों जैसे कि काचिन इंडिपेंडेंस ऑर्गनाइजेशन (केआईओ) और इसके प्रजातीय सहयोगियों में पूर्वी काचिन प्रांत और उत्तरी शान राज्य के बीच हिंसक झड़पें होती रही हैं। 
 
रखाइन प्रांत में भारत और चीन के हित भारत और चीन सीमापारीय हितों से जुड़े हैं। दोनों ही देशों के हित मुख्य रूप से बुनियादी सुविधाओं के निर्माण और क्षेत्र में पाइपलाइन बिछाने को लेकर हैं। इस तरह की परियोजनाओं के बारे में कहा जाता है कि इनसे रोजगार मिलता है, ट्रांजिट फीस मिलती है और समूचे म्यांमार के तेल और गैस से राजस्व की प्राप्ति होती है। 
 
बहुत सारी विकास परियोजनाओं के चलते, एक बहुदेशीय पाइपलाइन को चाइना नेशनल पेट्रोलियम कंपनी (सीएनपीसी) ने बनाया है। यह रखाइन की राजधानी शहर सित्वी से लेकर कुनमिंग चीन तक जाती है और यह वर्ष 2013 के‍ सितंबर माह से सक्रिय है। इसी तरह से श्वी गैस फील्ड की गैस और तेल को गुआंगझू, चीन तक ले जाने की कोशिश चल रही है।   
 
इसी के समानांतर एक और पाइपलाइन को मध्यपूर्व के तेल के लिए चीन के क्योकफ्यू बंदरगाह तक लाने की भी संभावना है। हालांकि रखाइन राज्य पर एक निरपेक्ष सलाहकार आयोग ने म्यांमार सरकार से आग्रह किया था कि इससे पहले एक समग्र प्रभाव का मूल्यांकन किया जाए। वास्तव में, आयोग का कहना है कि पाइपलाइन के कारण स्थानीय समुदायों के लोग जोखिम में पड़ सकते हैं। रखाइन में जमीन की जबरन जब्ती से स्थानीय नागरिकों में रोष है, नुकसानों के लिए बहुत ही कम क्षतिपूर्ति दी जाती है और पर्यावरणीय दुर्दशा देखने को मिल रही है।  
 
इसके साथ ही, स्थानीय लोगों के लिए रोजगार मिलने की बजाय विदेशी, विशेष रूप से चीन के कार्मिकों का बड़ी संख्या में आगमन होता है। कलादान मल्टी-मॉडल ट्रांजिट ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट के एक हिस्से के तहत भारत ने यहां ‍‍‍‍‍सित्वी डीप सी पोर्ट (गहरे पानी में बंदरगाह) का वित्तपोषण किया और इसका निर्माण किया है। इसका उद्देश्य है कि बंगाल की खाड़ी से होते हुए पूर्वोत्तर के मिजोरम राज्य को जोड़ा जाए। 
 
रखाइन राज्य के तटीय किनारे भारत और चीन दोनों के लिए सामरिक महत्व के हैं। इस कारण से म्यांमार की सरकार का अंतर्निहित हित जमीन को और विकास के लिए तैयार करना है और देश का तेज आर्थिक विकास सुनिश्चित करना है। चूंकि यह सब काम सेना की देखरेख में हो रहा है इसलिए यहां से भागने वालों के धर्म का कोई अर्थ है, वे चाहे रोहिंग्या मुस्लिम हों या रोहिंग्या हिंदू।   
 
यह घटनाएं भू-राजनीतिक तिकड़म के विस्तृत संदर्भ में हो रही हैं लेकिन इसमें बांग्लादेश की भूमिका विवादास्पद है। बांग्लादेशी मुस्लिम और सरकार प्रजातीय हिंसा को धर्म के नाम पर बढ़ाने में लगा है। इस तरह के शक्ति संघर्ष में सिर्फ रखाइन ही नहीं वरन म्यांमार के कई राज्यों में बसे 135 प्रजातीय समूह पिस रहे हैं और विकास के नाम पर मनुष्यों की बलि चढ़ रही है। अल्पसंख्‍यकों की अरक्षितता और तेजी से बढ़ रही है।
 
म्यांमार की हालत यह है कि जो गुट जमीन को जबरन हथियाने के शिकार हुए हैं, वे और अधिक कमजोर, अक्षम हालत में पहुंच गए हैं। उनकी हालत बद से बदतर होती चली गई है। रखाइन प्रांत में रोहिंग्या लोगों के साथ सैनिक शासन और बहुसंख्‍यकों का व्यवहार इस बात का उदाहरण है कि अल्पसंख्यकों पर किए जाने वाले हमलों का कितना व्यापक प्रभाव पड़ता है? 
 
जब किसी एक गुट को हाशिए पर धकेल दिया जाता है, उसका दमन किया जाता है तो उनकी कमजोरी गहरी होती चली जाती है और वे अपने ‍अधिकारों या सम्पत्ति की भी रक्षा नहीं कर पाते हैं। जहां तक रोहिंग्या लोगों की बात है तो उनके अपने घरों को बचाने की क्षमता को भी तब धूल में मिला दिया गया जब उनके उनकी बर्मी नागरिकता भी छीन ली गई।
 
वर्ष 1970 के दशक के आसपास करीब दस लाख रोहिंग्या सरकारी दमन चक्र से बचने के लिए भागे थे। दु:ख की बात है कि अब तो इन्हें अपने मेहमान देशों में हाशिए पर डाल दिया गया है। बर्मा और बांग्लादेश के नकारने के बाद कोई भी देश इन्हें अपने देश में इनकी जिम्मेदारी लेना नहीं चाहता है। इस कारण से या तो इन्हें इधर से उधर भगाया जाता है या फिर निरंतर ही विभिन्न देशों की सीमाओं में घुसपैठ करने को वाध्य किया जाता है।
 
इस कारण से इस गतिविधि को चलाने के लिए रोहिंग्या लोगों को एक कमजोर हालत में रखा जाता है। रोहिंग्या लोगों की दुरावस्था एक बड़ी तस्वीर का हिस्सा है जोकि समूचे म्यांमार और इसके पड़ोसी देशों में अल्पसंख्‍यकों का उत्पीड़न और विस्थापन पैदा करती है। म्यांमार में धार्मिक और प्रजातीय मुद्दों की प्रासंगिकता और जटिलता से इनकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन हम इस समस्या के राजनीतिक और आर्थिक संदर्भों की भी अनदेखी नहीं कर सकते हैं क्योंकि यह विस्थापन का प्रमुख कारण है जिस पर अक्सर ही ध्यान ही नहीं दिया जाता है।
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