शुक्रवार, 29 नवंबर 2024
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चुनाव के बाद फ्रांस भारी असमंजस में, यदि वामपंथी सरकार बनी तो भारत पर भी असर

चुनाव के बाद फ्रांस भारी असमंजस में, यदि वामपंथी सरकार बनी तो भारत पर भी असर - France After Election
French election results: दो दौर में संपन्न हुए फ्रांस के चुनाव परिमाण ने वहां के नेताओं और मतदाताओं को 'किंकर्तव्य-विमूढ़' बना दिया है। वे जिस तरफ भी पैर बढ़ाएं, 'आगे कुआं पीछे खाई' दिखती है। लगता नहीं कि जल्द ही किसी टिकाऊ सरकार का गठन हो पाएगा। 
 
7 जुलाई को हुए मतदान के दूसरे दौर के बाद, देर शाम जब मतगणना के परिणाम सामने आने लगे, तो फ्रांसिसी कम्युनिस्टों और वामपंथियों ने राजधानी पेरिस के 'गणराज्य चौक' (प्लास दे ला रेपुब्लीक) पर जमा हो कर नाचना-गाना और अपनी जीत का जश्न मनाना शुरू कर दिया। उन्हें सबसे अधिक खुशी इस बात की थी कि सर्वेक्षणों पर आधारित सारी भविष्यवाणियां ग़लत निकलीं।
 
इस्लाम विरोधी घोर दक्षिणपंथी मरीन ले पेन की पार्टी 'रासेम्ब्लेमां नस्योनाल' (राष्ट्रीय रैली RN) पहले नहीं, तीसरे नंबर पर पहुंच गई थी। सरकार बना सकने का उसका रास्ता वामपंथी गठबंधन ने रूंध दिया था। देर रात पेरिस सहित कई अन्य शहरों में भी जश्न मनाने वाले वामपंथियों और पुलिस के बीच झड़पें हुईं।
 
बहुमत विहीन तीन बड़े गठबंधन : चुनाव परिणाम के अनुसार, 577 सीटों वाली फ्रांसिसी संसद में कम्युनिस्टों, वामपंथियों और पर्यावरणवादियों के गठबंधन को 182 सीटें, राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों की पार्टी को 168 सीटें और मरीन ले पेन की पार्टी को 143 सीटें ही मिली हैं। फ्रांस में हर 5 वर्ष बाद चुनाव होते हैं। किसी चुनाव के बाद लंबे समय तक सरकार का गठन नहीं हो सकने पर, संविधान के अनुसार, अगला चुनाव एक साल बाद ही हो सकता है, उससे पहले नहीं। जर्मनी के बाद फ्रांस ही यूरोपीय संघ का दूसरा सबसे बड़ा, सबसे महत्वपूर्ण और सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है। यदि ठीक-ठाक सरकार के अभाव में वह पंगु हो गया, तो इससे वहां की राजनीति और अर्थव्यस्था को तो क्षति पहुंचेगी ही, पूरा यूरोपीय संघ भी दुष्प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा।  
 
मरीन ले पेन की घोर दक्षिणपंथी पार्टी के सहयोग से न तो राष्ट्रपति माक्रों की पार्टी कोई सरकार बनाना चाहेगी और न ही तीन पार्टियों के गठजोड़ वाला वामपंथी मोर्चा। ऐसी स्थिति में यदि एक वर्ष बाद पुनः चुनाव कराने की नौबत आई, तो उसमें मरीन ले पेन की 'रासेम्ब्लेमां नस्योनाल' का जीतना तय माना जा सकता है। इस पार्टी के उपाध्यक्ष एडविग डियाज़ ने याद दिलाई कि 'दो दशक पहले राष्ट्रीय संसद में हमारे पास केवल 7 सीटें थीं, उसके बाद 88 थीं और इस बार 143 सीटें होंगी।'
 
आम फ्रांसिसी हैं ले पेन समर्थक : स्पष्ट है कि इस्लाम विरोधी नारों वाली मरीन ले पेन की 'रासेम्ब्लेमां नस्योनाल' (RN) पार्टी की लोकप्रियता हर चुनाव के साथ बढ़ती ही गई है, घटी नहीं है। इस बार के चुनाव में उनकी पार्टी को क़रीब एक करोड़ वोट मिले हैं। शरणार्थियों, इस्लामी आतंकवादियों और कट्टरपंथियों के कारनामों से ऊबे हुए आम फ्रांसिसी ही RN के सबसे अधिक समर्थक हैं। छोटे शहरों और देहातों में रहने वाले इन आम लोगों का मानना है कि कम्युनिस्टों, अन्य वामपंथियों और पर्यावरणवादियों ने जानबूझ कर 'रासेम्ब्लेमां नस्योनाल' (RN) का रास्ता रोकने के लिए ही एक दुरभिसंधि कर रखी है, वर्ना तो RN का जीतना तय था। मतदान के दूसरे दौर में 200 चुनाव क्षेत्रों में राष्ट्रपति माक्रों वाली पार्टी और सामान्य वामपंथियों ने अपने हाथ पीछे खींच लिए बताए जाते हैं, ताकि उनके वोट आपस में बंटने से RN का रास्ता आसान न बने।   
 
प्रेक्षकों का कहना है कि अब प्रश्न यह है कि चुनावों ने ये जो तीन ऐसे बड़े गुट पैदा कर दिए हैं, जिनमें से किसी गुट के पास इतनी सीटें नहीं हैं कि वह अकेले सरकार बना सके, तो अब सरकार बनेगी कैसे? ऐसी कोई संभावना कम से कम ठीक इस समय तो दिख नहीं रही है कि किसी गुट के कुछ लोग उसे छोड़कर किसी दूसरे गुट में चले जाएं और इस तरह शायद एक नई सरकार बन जाए। राष्ट्रपति माक्रों वाले गुट के वर्तमान प्रधानमंत्री गाब्रिएल अताल ने संवैधानिक नियमों का पालन करते हुए तुरंत अपना त्यागपत्र दे दिया है, पर राष्ट्रपति ने उनसे अनुरोध किया है कि वे फिलहाल अपने पद पर बने रहें, क्योंकि देश में राजनीतिक स्थिरता बनी रहनी चाहिए। 
 
सरकार बनने की समय-सीमा नहीं : संविधान के अनुसार, ऐसी कोई समय-सीमा नहीं है कि कब तक कोई सरकार बन जानी चाहिए, हालांकि राष्ट्रीय संसद की पहली बैठक 18 जुलाई को होनी तय है। समस्या यह है कि इस तारीख के एक ही सप्ताह बाद पेरिस में अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक खेल शुरू हो जाएंगे। एक ऐसे समय में, जब हज़ारों विदेशी खिलाड़ी ही नहीं, लाखों विदेशी अतिथि एवं दर्शक भी पेरिस में होंगे, आतंकवादी हमलों का ख़तरा बढ़ गया होगा, तब देश में जनता की चुनी हुई सरकार तक नहीं होगी। इस्लामी आतंकवादी संगठन 'प्रॉविंस खोरासान' ने संकेत दिए हैं कि ओलंपिक खेल और आइफ़ल टॉवर उसके निशाने पर होगा।
 
राष्ट्रपति माक्रों सिद्धांततः किसी को भी अपना प्रधानमंत्री बना सकते हैं। लेकिन, राष्ट्रीय संसद में ऐसे किसी प्रधानमंत्री के पास बहुमत नहीं होने से ख़तरा यह रहेगा कि संसद में बहुमत साबित करने के पहले ही 'विश्वास मत' के लिए मतदान के समय सरकार गिर सकती है। यही हाल तब भी होगा, जब सबसे अधिक (182) सीटें पाने वाला वामपंथी गुट सरकार बनाने का प्रयास करेगा। उसके पास भी सरकार बनाने के लिए आवश्यक कम से कम 289 सीटें नहीं होंगी। दूसरा विकल्प यही हो सकता है कि राष्ट्रपति महोदय, किसी पार्टी के केवल समर्थन के आधार पर, एक अल्पमत सरकार बनाएं। वह पार्टी या गुट, हर भावी संकट के समय सरकार के पक्ष में मतदान के लिए तैयार रहे।
 
कम्युनिस्ट नेता जां-लुक मेलेंशों : तीन पार्टियों के वामपंथी गठजोड़ में शामिल कम्युनिस्ट पार्टी के नेता जां-लुक मेलेंशों एक कट्टर कम्युनिस्ट हैं। उनकी मांग है राष्ट्रपति माक्रों तीन पार्टियों वाले 'जनमोर्चे'  को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करें। मेलेंशों के बारे में शिकायत है कि वे यहूदी विरोधी और फ़िलिस्तीन समर्थक हैं। पिछले वर्ष 7 अक्टूबर को इसराइल में घुसकर वहां आतंकवादी हमले करने वाले गाज़ा पट्टी के फ़िलस्तीनी संगठन 'हमास' की आलोचना वे नहीं करते। वे यूरोपीय संघ को भी पसंद नहीं करते और जर्मनी के भी मुखर आलोचक हैं।
 
यूरोपीय संघ में माना जाता है कि जर्मनी और फ्रांस ही संघ की रेलगाड़ी के दोहरे इंजन हैं। इसलिए फ्रांस में यदि ऐसी कोई सरकार बनी, जिसमें मेलेंशों की तूती बोलती है, तो यूरोपीय संघ में चखचख और जर्मनी के साथ तूतू-मैंमैं होना भी तय है। कहने की आवश्यकता नहीं कि फ्रांस में चुनाव परिणाम ने 6 करोड़ 71 लख जनसंख्या वाले इस देश को दो विपरीत ध्रुवों वाली विचारधाराओं में बांट दिया है।
 
फ्रांस के संसदीय चुनावों के परिणाम वैसे तो चाहे कुछ भी हों, संविधान के नियमों के अनुसार, राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों 5 साल के अपने पूरे कार्यकाल तक, यानी 2027 तक राष्ट्रपति बने रह सकते हैं। विदेश नीति सहित असली सत्ता राष्ट्रपति के पास ही होती है। वर्तमान संसदीय चुनाव के परिणामस्वरूप यदि ऐसी कोई सरकार बनी, जिसमें जां-लुक मेलेंशों या उनके चेलों-चंटों का बोलबाला हुआ, तब तो भारत और फ्रांस के बीच संबंधों में भी कुछ न कुछ खटास आए बिना नहीं रहेगी। मेलेंशों भारत और मोदी को पसंद नहीं करते।
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