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Last Updated : बुधवार, 30 अप्रैल 2025 (13:35 IST)

कनाडा में ट्रूडो की हार और मार्क कार्नी का उदय: भारत के लिए क्या मायने? Explainer

जस्टिन ट्रूडो की लिबरल पार्टी, जो कभी कनाडाई जनता के दिलों पर राज करती थी, ने सत्ता गंवा दी, और मार्क कार्नी के नेतृत्व में लिबरल पार्टी ने फिर से सत्ता हासिल की।

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कनाडा की राजनीति में हाल के महीनों में एक नाटकीय बदलाव देखने को मिला है। जस्टिन ट्रूडो की लिबरल पार्टी, जो कभी कनाडाई जनता के दिलों पर राज करती थी, ने सत्ता गंवा दी, और मार्क कार्नी के नेतृत्व में लिबरल पार्टी ने फिर से सत्ता हासिल की। लेकिन यह बदलाव इतना आसान नहीं था। आखिर ट्रूडो की लिबरल पार्टी क्यों हारी? और नए प्रधानमंत्री मार्क कार्नी भारत के लिए कितने मुफीद साबित होंगे? आइए, इस घटनाक्रम का विश्लेषण करें और भारत के दृष्टिकोण से इसके मायने समझें। ALSO READ: कनाडा में 24 भारतवंशी चुनाव जीते, खालिस्तान समर्थक जगमीत सिंह हारे
 
ट्रूडो की लिबरल पार्टी की हार: क्या थे कारण?
जस्टिन ट्रूडो, जो 2015 से कनाडा के प्रधानमंत्री रहे, अपनी करिश्माई छवि और प्रगतिशील नीतियों के लिए जाने जाते थे। लेकिन 2025 तक उनकी लोकप्रियता में भारी गिरावट आई। इसके कई कारण थे:
 
आर्थिक संकट और जनता का असंतोष : कनाडा में बढ़ती महंगाई और आवास संकट ने ट्रूडो सरकार की मुश्किलें बढ़ाईं। कंज़र्वेटिव नेता पियरे पोएलिएवर ने इन मुद्दों को भुनाकर सरकार पर लगातार हमले किए। 2024 में ट्रूडो की अप्रूवल रेटिंग केवल 33% रह गई थी, जो पहले 63-70% हुआ करती थी। जनता में गुस्सा बढ़ रहा था, और लिबरल पार्टी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा।
 
पार्टी के भीतर बगावत : अक्टूबर 2024 में करीब दो दर्जन लिबरल सांसदों ने ट्रूडो से इस्तीफे की मांग की। "कोड रेड" याचिका और पार्टी कार्यकर्ताओं का असंतोष उनके नेतृत्व पर सवाल उठा रहा था। वित्त मंत्री क्रिस्टिया फ्रीलैंड का दिसंबर 2024 में इस्तीफा एक बड़ा झटका था। उनके तीखे इस्तीफा पत्र ने पार्टी को और कमजोर किया। डलहौज़ी यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर लॉरी टर्नबुल के अनुसार, ट्रूडो का हटने से इनकार पार्टी के लिए हताशा का कारण बन गया था।
 
ट्रम्प का दबाव और राष्ट्रीय भावना : अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने लगातार ट्रूडो के खिलाफ बयान दिए। ट्रम्प की कनाडा को "51वां अमेरिकी राज्य" बनाने की बात ने कनाडाई जनता में राष्ट्रवादी भावनाएं भड़काईं लेकिन ट्रूडो इसे समझने में चूक गए। ट्रम्प के टैरिफ युद्ध और आर्थिक दबाव ने ट्रूडो सरकार को कमजोर स्थिति में ला दिया। ट्रूडो इस संकट से निपटने में नाकाम रहे, जिसने उनकी छवि को और नुकसान पहुंचाया।

खालिस्तान विवाद और भारत के साथ तनाव : ट्रूडो के कार्यकाल में भारत-कनाडा संबंध ऐतिहासिक रूप से निम्नतम स्तर पर पहुंच गए। खालिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या (जून 2023) में भारत का हाथ होने का आरोप लगाकर ट्रूडो ने भारत के साथ तनाव बढ़ाया। भारत ने इन आरोपों को सिरे से खारिज किया और कनाडा पर खालिस्तानी अलगाववादियों को पनाह देने का आरोप लगाया। ट्रूडो की सिख तुष्टिकरण नीतियां, विशेष रूप से न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (एनडीपी) नेता जगमीत सिंह के समर्थन पर निर्भरता, उनकी घरेलू और अंतरराष्ट्रीय छवि के लिए घातक साबित हुईं।
 
गठबंधन की कमजोरी : 2021 के चुनाव में लिबरल पार्टी को बहुमत नहीं मिला, और ट्रूडो को जगमीत सिंह की एनडीपी के समर्थन पर निर्भर रहना पड़ा। सितंबर 2024 में एनडीपी ने समर्थन वापस ले लिया, जिससे ट्रूडो अल्पमत सरकार में आ गए। यह उनकी हार का एक बड़ा कारण बना।
 
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मार्क कार्नी का उदय: समय और संयोग
मार्क कार्नी, एक पूर्व केंद्रीय बैंकर, जिन्होंने कनाडा और इंग्लैंड के बैंकों का नेतृत्व किया, ने मार्च 2025 में लिबरल पार्टी की कमान संभाली। उनकी जीत कई मायनों में अप्रत्याशित थी।
 
ट्रम्प के खिलाफ राष्ट्रवादी लहर : ट्रम्प के आक्रामक बयानों और टैरिफ युद्ध ने कनाडाई जनता में एकजुटता पैदा की। कार्नी ने इसे भुनाया और अपने पहले भाषण में कहा, "अमेरिकियों को कोई गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए, हॉकी की तरह, ट्रेड में भी कनाडा जीतेगा।" उनकी यह सख्त रुख जनता को पसंद आया।
 
आर्थिक विशेषज्ञता : कार्नी की आर्थिक संकटों से निपटने की विशेषज्ञता ने उन्हें ट्रम्प के आर्थिक दबाव का सामना करने के लिए उपयुक्त उम्मीदवार बनाया। उनकी छवि एक गैर-राजनीतिक, अनुभवी व्यक्ति की थी, जिसने मतदाताओं का भरोसा जीता।
 
लिबरल पार्टी की रणनीति : ट्रूडो के जनवरी 2025 में इस्तीफे के बाद कार्नी ने 85.9% वोटों के साथ लिबरल पार्टी का नेतृत्व हासिल किया। उनकी उम्मीदवारी को कैबिनेट मंत्रियों और सांसदों का व्यापक समर्थन मिला। 29 अप्रैल 2025 को हुए आम चुनाव में लिबरल पार्टी ने 343 में से 167 सीटें जीतीं, हालांकि बहुमत (172) से पीछे रही। फिर भी, यह जीत लिबरल पार्टी के लिए एक नया इतिहास थी।
 
भारत के लिए मार्क कार्नी: कितने मुफीद?
ट्रूडो के कार्यकाल में भारत-कनाडा संबंधों में तल्खी थी, लेकिन कार्नी का रुख भारत के लिए सकारात्मक संकेत देता है।
 
संबंधों में सुधार की संभावना : कार्नी ने कई बार कहा है कि वह भारत के साथ संबंध सुधारना चाहते हैं। उन्होंने निज्जर हत्याकांड के बाद उत्पन्न तनाव को स्वीकार किया, लेकिन भारत के साथ सहयोग को प्राथमिकता देने की बात कही। अप्रैल 2025 में, कार्नी ने टोरंटो के बाप्स स्वामीनारायण मंदिर में राम नवमी की शुभकामनाएं दीं और ओटावा के सिख गुरुद्वारे में बैसाखी मनाई, जो भारतीय समुदाय के प्रति उनके उदार रवैये का संकेत है।
 
खालिस्तान मुद्दे पर संतुलन : ट्रूडो के विपरीत, कार्नी ने खालिस्तान मुद्दे पर संयमित रुख अपनाया है। 2025 के चुनाव में खालिस्तान समर्थक जगमीत सिंह और उनकी एनडीपी की करारी हार हुई, जिसे भारत ने सकारात्मक रूप से देखा। यह कार्नी के लिए भारत के साथ रचनात्मक बातचीत का अवसर देता है।
 
आर्थिक सहयोग : कनाडा में 427,000 से अधिक भारतीय छात्र और प्रवासी हैं, जो शिक्षा और श्रम बाजार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कार्नी की उदार नीतियां भारतीय प्रवासियों के लिए अनुकूल हो सकती हैं। भारत और कनाडा के बीच व्यापारिक संबंध, जो ट्रूडो के समय प्रभावित हुए, कार्नी के नेतृत्व में मजबूत हो सकते हैं। विदेशी मामलों के जानकार राजीव डोगरा के अनुसार, कनाडा के आर्थिक प्रतिबंधों का भारत पर सीमित प्रभाव होगा, लेकिन कार्नी की नीतियां सहयोग बढ़ा सकती हैं।
 
चुनौतियां : कार्नी की सरकार को गठबंधन पर निर्भर रहना होगा, क्योंकि लिबरल पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। यदि सिख वोट बैंक को संतुष्ट करने का दबाव बढ़ा, तो खालिस्तान जैसे मुद्दे फिर से उभर सकते हैं। हालांकि, कार्नी का गैर-राजनीतिक बैकग्राउंड और संतुलित दृष्टिकोण इसे कम करने में मदद कर सकता है। ALSO READ: कनाडा में मार्क कार्नी ने जीत के बाद कहा- ट्रंप हमें तोड़ना चाहते हैं
 
जस्टिन ट्रूडो की लिबरल पार्टी की हार आर्थिक संकट, पार्टी के भीतर बगावत, और ट्रम्प के दबाव का परिणाम थी। मार्क कार्नी का उदय समय, संयोग, और उनकी आर्थिक विशेषज्ञता का नतीजा है। भारत के लिए, कार्नी का नेतृत्व एक नई शुरुआत का अवसर है। उनके भारत-केंद्रित सकारात्मक बयान, खालिस्तान समर्थक ताकतों की कमजोरी, और आर्थिक सहयोग की संभावना दोनों देशों के रिश्तों को बेहतर बना सकती है। लेकिन गठबंधन की मजबूरियां और सिख वोट बैंक का दबाव कार्नी के लिए चुनौती बने रहेंगे। भारत को इस नए दौर में कूटनीतिक चतुराई के साथ कदम बढ़ाने होंगे, ताकि आपसी हितों को मजबूत किया जा सके।
 
कनाडा की राजनीति में यह बदलाव न केवल कनाडाई जनता, बल्कि भारत जैसे साझेदार देशों के लिए भी एक महत्वपूर्ण मोड़ है।
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