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Written By jitendra

प्रेमचंद होने का मतलब

प्रेमचंद
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यदि बीती पूरी सदी में हिंदी साहित्‍य की उपलब्धियों और रचनात्‍मकता का कुल जमा जोड़ निकाला जाए तनि:संदेह एक तरफ समूची साहित्‍य बिरादरी और उसका लेखन होगा और दूसरी तरफ कफन और ईदगाह से लेकर गोदान और कर्मभूमि तक कई हजार पृष्‍ठों में फैली उस कृशकाय लेखक की कलम, जिसे हम प्रेमचंद के नाम से जानते हैं। वह अकेली कलम समूचे हिंदी साहित्‍य का मुकाबला कर सकती है और उसे चुनौती दे सकती है।

प्रेमचंद के बाद जिन भी लोगों ने साहित्‍य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्‍यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनके साथ प्रेमचंद की दी हुई विरासत और परंपरा ही काम कर रही थी। बाद की तमाम पीढि़यों, जिसमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं, को प्रेमचंद के रचना-कर्म ने दिशा प्रदान की, लेकिन जिस युग में प्रेमचंद ने कलम उठाई थी, उस समय उनके पीछे ऐसी कोई ठोस विरासत नहीं थी और न ही विचार औप्रगतिशीलता का कोई मॉडल ही उनके सामने था। वे चीजों को गढ़ रहे थे, उन्‍हें आकार दे रहे थे

साहित्‍य-कला का कोई भी विकास अपने पीछे एक समूची परंपरा लेकर आता है। यह सृजन काल-निरपेक्ष नहीं हो सकता। रूस में मक्सिम गोर्की, चेखव और मिखाइल शोलोखोव जैसे रचनाकारों का जन्‍म ही इसलिए हो सका, क्‍योंकि उनके पीछे तोल्‍स्‍तोय, इवान तुर्गनेव और निकोलाई चेर्नीश्‍वेस्‍की जैसे लेखकों की सुदृढ़ विरासत थी। उनकी बनाई जमीन पर ही नई पीढ़ी ऐसा साहित्‍य रच रही थी, जो समाज और जीवन को गहरे रूपांतरित कर रहा था।

हिंदुस्‍तान में प्रेमचंद की भी कुछ वैसी ही भूमिका रही, जैसी तोल्‍‍स्‍तोय की रूस में। एक कलम, जो कुछ शब्‍दों की जोड़-गाँठ और चमत्‍कार भर नहीं है। वह मनुष्‍य के जीवन को कहीं गहरे छू रही है, बदल रही है और समाज में कुछ बड़े परिवर्तनों की जमीन तैयार कर रही है। जिस कलम की भूमिका उसके जीवन-काल में ही नहीं खत्‍म हो जाती। वह सृजन और कला की तमाम पीढि़यों के लिए विरासत बन जाती है और उससे प्रेरणा पाकर ढेरों-ढेर ऐसे साहित्‍य का सू़त्रपात होता है, ‍जिस पर किसी भी भाषा को गर्व हो सकता है। मुक्तिबोध, यशपाल और रेणु प्रेमचंद की परंपरा की ही अगली कड़ी हैं।

मुक्तिबोध पर तो प्रेमचंद का बहुत गहरा प्रभाव था, और यह प्रभाव उनकी माँ का दिया हुआ था। उन्‍होंने लिखा है, ‘मेरी माँ जब प्रेमचंद की कृति पढ़तीं तो उनकी आँखों में आँसू छलछलाते मालूम देते। प्रेमचंद के प्रति मेरी श्रद्धा व ममता को अमर करने का श्रेय माँ को ही है।’

यह अकेला उदाहरण नहीं है। हिंदुस्‍तान में जाने कितनी माँएँ प्रेमचंद की कलम के साथ एकाकार हो रही थीं, और अपनी संतति तक उस परंपरा का निर्वहन कर रही थीं। मन-ही-मन प्रेम कर रही थीं और अपनी बेटियों के लिए स्‍वतंत्र-आत्‍मनिर्भर जीवन के स्‍वप्‍न बुन रही थीं।

इसके बहुत ठोस सामाजिक कारण थे। जिसके पास जुबान है, वह अपनी बात बोल सकता है, पर जिसके पास जबान नहीं, वह अपनी पीड़ा कैसे बयान करे। उस पीड़ा को शब्‍द देती है, प्रेमचंद की कलम। दलित, अछूत, स्‍त्री और किसान, समाज का हर कमजोर और वंचित तबका उनकी कलम में मौजूद है।

एक सामंती पितृसत्‍तात्‍मक देश में प्रेमचंद एक माँ और पत्‍नी के रूप में आर्थिक परनिर्भरता में घुट रही भारतीय स्‍त्री की पीड़ा को महसूस करते हैं। प्रेमचंद ने एक जगह लिखा है, ‘लड़कियों को भी लड़कों की तरह आत्‍मनिर्भर होने और अपना जीवन अपनी मर्जी से जीने की आजादी होनी चाहिए। हमें उन्‍हें वैसे ही आजाद छोड़ देना चाहिए, जैसे हम लड़कों को छोड़ देते हैं। हमें कोई हक नहीं कि सिर्फ परंपरा का पालन करने या इस कारण से कि कहीं परिवार की नाक न कट जाए, लड़कियों को किसी के भी गले बाँध दें।’

यहाँ प्रेमचंद समानता और मनुष्‍यता की उस परंपरा का सूत्रपात करते नजर आते हैं, जिसने आगे चलकर सामंती कारा से स्‍त्री को मुक्‍त किया और एक मनुष्‍य के रूप में उसके स्‍वतंत्र अस्तित्‍व की जमीन तैयार की

अपनी परंपराओं का अनुसंधान करते हुए भी प्रेमचंद अंतत: आधुनिक प्रगतिशील मूल्‍यों के पक्ष में ही खड़े दिखाई देते हैं। उनकी दुनिया में मानव मन की ढेर सारी गहरी पर्तें हैं। तेजी से घट रहे आर्थिक परिवर्तनों की आहट है, बिखरते हुए गाँव और शहरों की ओर कूच कर रहे गरीब किसान हैं, चोट खाए, त्रस्‍त, पीडि़त, निर्वासित लोग हैं। पितृसत्‍ता के पाटों में पिस रही स्‍त्री है, लेकिन इन सबके साथ संघर्ष का एक जज्‍बा भी है। प्रगतिशील निगाह है, जो इन बदलावों को देखने और समझने की नजर देती है

प्रेमचंद ने अपनी कलम से जिस दुनिया की छवियों और स्‍वप्‍नों के रेखाचित्र बुने थे, वह एक सदी पुरानी बात हुई, लेकिन आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। यह अकारण नहीं कि हमें लौट-लौटकर वहाँ जाने की जरूरत आज भी महसूस होती है, जहाँ से प्रेमचंद ने शुरुआत की थी। कुछ चीजें कभी पुरानी नहीं पड़तीं, उनमें नए अध्‍याय जरूर जुड़ते जाते हैं। प्रेमचंद होने का अर्थ यही है।