क्या ऐसे सहजेगें विरासत में मिली आजादी?
- दिनेश ‘दर्द’
ग़ुलाम भारत में आंख खोलने वाले उस वक्त के वह मतवाले और ही थे, जिनकी रगों में, सांसों में और लम्हे-लम्हे में सिर्फ़ आज़ादी की तलब ही पैवस्त होती थी। उन्हें नहीं पता होता था कि ज़िंदगी (जवानी भी कह सकते हैं) का मक़सद अपने वतन पर क़ुर्बान होने के सिवा कुछ और भी होता है। चंदन समझना था शहीदों की ख़ाक को उन तरुणों की तरुणाई अगर मुहब्बत में मुब्तिला हुई भी, तो सिर्फ अपनी मातृभूमि की मुहब्बत में। और सच्चे मायनों में मुहब्बत की, तो जंगे-आज़ादी के इन्हीं दीवानों ने की। यह मतवाले अपनी माँ भारती की मुहब्बत में डूबे, तो इस क़दर डूबे कि झूमते-गाते कब बलिवेदी तक पहुंच गए और उसे चूम कर, कब ख़ुद को ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ी मातृभूमि की माला में गूंथ लिया, पता ही नहीं चला। हमारे हाथ लगी तो सिर्फ़ उनकी ख़ाक। फिर सच तो यह है कि हमने भी उनकी ख़ाक को ख़ाक ही समझा और ख़ाक में ही मिला भी दिया। बेहतर होता, अगर उनके बाद की हर पीढ़ी उनकी ख़ाक को चंदन समझकर मस्तक पर सजाती, तो आज हमारे युवाओं की तरुणाई कुछ और ही कहानी कहती। तमाम अव्यवस्थाओं और विसंगतियों में फंसे इस देश का रुतबा कुछ और ही होता।
अनुशासन का पालन भी वतनपरस्ती अफ़सोस, कि अफीम, चरस, शराब और तरह-तरह के नशे में डूबी ये जवान पीढ़ी विरासत में मिली आज़ादी की क़ीमत समझ नहीं सकी। 26 जनवरी और 15 अगस्त पर महज़ तिरंगा फहराने, बैनर-पोस्टर लगाने और आज़ादी के तराने सुनने-गुनगुना लेने भर को वतनपरस्ती समझ बैठी।