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Written By ND

समृद्धि की 'रिसन' के इंतजार में गाँधी का अंतिम आदमी

समृद्धि की ''रिसन'' के इंतजार में गाँधी का अंतिम आदमी -
- प्रकाश कान्त
गाँधी ने आर्थिक प्रगति का मानक सबसे आखिरी आदमी को माना था। इस आखिरी आदमी की खुशहाली ही उनके लिए प्रगति का बुनियादी और अंतिम लक्ष्य था। वे इसी आदमी के आँसू पोंछने की बात करते थे। वे जिस तरह के अर्थतंत्र की पैरवी करते थे, उसके केंद्र में यही आदमी था। 80 के दशक तक यह आदमी लगातार चर्चा में रहा। लोक कल्याणकारी राज्य और समाजवादी समाज रचना जैसे लक्ष्य और संकल्प उन्हीं दिनों घोषित होते रहे।

लेकिन, फिर धीरे-धीरे यह आदमी चर्चा से गैरहाजिर होने लगा। पिछले 8-10 सालों
ND
में तो वह चर्चा से पूरी तरह से गायब ही है। हालाँकि, राष्ट्रीय पर्वों पर गाहे-बगाहे अब भी कभी-कभी उसका नाम सुना जाता है। जबकि हकीकत यह है कि 90 के दशक से शुरू हुए आर्थिक सुधारों के बाद से राष्ट्रीय फोकस अब पूरी तरह से बदल चुका है। खासकर, समाजवादी समाज रचना का साम्यवादी देशों का प्रयोग असफल हो जाने और पश्चिमी बौद्धिक हल्कों में कथित तौर पर 'विचार के अंत की' समारोहपूर्वक घोषणा हो जाने के बाद से तो भारत सहित कई विकासशील देशों में समतामूलक समाज रचना के लक्ष्य की अघोषित रूप से अंत्येष्टि हो चुकी है।

उल्लेखनीय है कि इन दिनों संविधान की उद्देशिका से 'समाजवाद' शब्द निकाले जाने संबंधी याचिका भी न्यायालय में विचाराधीन है। अब छोटे-मोटे 'किंतु-परंतु' के साथ साम्यवादी सहित सभी दलों द्वारा मान लिया गया है कि देश की बेहतरी विकास के इसी तरीके से संभव है! नव उदार आर्थिक चिंतक जोर देकर लोक कल्याण के नाम पर सरकारों द्वारा किए गए कामों को राष्ट्रीय धन का अपव्यय बताने लगे हैं।

यह भी कहा जाने लगा है कि अगर सरकारें समतामूलक समाज रचना और लोक कल्याणकारी राज्य की सनक में ऊल-जलूल कदम न उठाती रहती और देश को शुरू से ही मुक्त अर्थव्यवस्था के राजमार्ग पर चलने देती तो देश बहुत पहले ही अपने आर्थिक लक्ष्य हासिल कर चुका होता। और जिस आम आदमी का रोना अक्सर रोया जाता है, वह भी खुशहाल हो गया होता, क्योंकि आने वाली समृद्धि का लाभ छनकर-रिसकर उस तक पहुँचता ही! किसी जमाने में जनसंघ (भाजपा का पूर्व रूप) और स्वतंत्र पार्टी जैसे दल इसी बात के हिमायती थे।

दरअसल, आर्थिक प्रगति के लाभ छन या रिसकर सबसे निचले और अंतिम आदमी तक अपने आप पहुँच जाने का विचार ही मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल में भी काम कर रहा था। गँाधी के एकदम विपरीत नेहरू देश के तेज औद्योगिकीकरण के पक्षपाती थे। साथ ही वे समतामूलक समाज रचना के विचार से भी सम्मोहित थे। लोक कल्याणकारी राज्य और मिश्रित अर्थव्यवस्था का मॉडल इसी से निकला था। हालाँकि, 30 साल के प्रयोग में यह देखा गया कि प्रगति की आर्थिक रिसन नीचे के सही आदमी तक पहुँची ही नहीं। ऊपर ही ऊपर कहीं रह गई। इसे चाहे नीयत का खोट मानें या व्यवस्था का! जो तरी ऊपर हुई नीचे उसका विद्रूप दिखाई दिया।

दिलचस्प बात यह है कि आज जारी आर्थिक सुधारों के पीछे भी रिसन का यही सिद्धांत सर्वमान्य ढंग से प्रचारित किया जा रहा है। स्वयंसिद्ध सत्य के रूप में माना और कहा जाने लगा है कि आम और अंतिम आदमी के लिए सरकारों को अलग से कुछ करने की जरूरत नहीं है। सब कुछ पूँजी और बाजार की शक्तियों के हाथों में सौंप दिया जाना चाहिए। आम और अंतिम आदमी की आर्थिक मुक्ति भी इसी से होगी। पहले यह बात पूँजीवादी अर्थशास्त्री देशी पूँजी के संदर्र्भ में कहते थे। अब इसके साथ विदेशी और बहुराष्ट्रीय पूँजी भी जुड़ गई है, बल्कि वही असली मुक्तिदाता भी मान ली गई है। सरकारें अब अपनी नीतियाँ इसी पूँजी को ध्यान में रखकर बनाने लगी हैं, बल्कि बाजवक्त इस पूँजी के एजेंट का काम भी करने लगी हैं।

उदार अर्थव्यवस्था के पक्ष में पहले पश्चिमी देशों की मिसाल दी जाती थी, अब चीन की भी दी जाने लगी है। बताया जाने लगा है कि चीन अपने साम्यवादी दुराग्रहों से मुक्त होने और विकास के इस उदारवादी दर्र्शन को अपनाने के बाद ही इतनी बड़ी आर्थिक शक्ति बनकर उभर पाया है। इस अर्द्धसत्य की प्रशस्ति पढ़ते वक्त इस बात को हमेशा ही भुला दिया जाता है कि चीन की इस तरी के पीछे साम्यवादी दौर का उसका कठोर अनुशासन भी जिम्मेदार रहा है। इसके अलावा वहाँ आज भी भ्र्रष्टाचार और आर्थिक अपराधों के लिए मौत की सजाएँ दी जाती हैं। और सबसे बड़ी बात वहाँ अभी भी एकदलीय शासन प्रणाली है। सत्ता के सारे सूत्र वहाँ की साम्यवादी पार्टी के हाथ में केंद्र्रित हैं। वहाँ जनप्रतिनिधियों की वैसी खुलेआम बेशर्म मंडी नहीं लगती, जैसी पिछले दिनों दिल्ली में लगी देखी गई।

वैसे, चीन की इस चमत्कारी तरी के पीछे के सच भी अब कुछ-कुछ सामने आने लगे हैं। कहा जाने लगा है कि कभी अपनाए गए आय के आदर्श अनुपात 1:3 में ढील दे दी जाने के बाद वहाँ विषमता बढ़ने लगी है। हमारे यहाँ आय के ऐसे किसी आदर्श अनुपात की तो पहले भी कभी ज्यादा परवाह नहीं की गई। अब तो खैर इसे एक तरह से बकवास ही मान लिया गया है। अब देश की प्रगति अरब-खरबपतियों की संख्या और औद्योगिक घरानों की संपत्ति के बढ़ने के आधार पर नापी जाने लगी है। देश के दो-चार घरानों का दुनिया के सबसे अमीर घरानों में शुमार होना देश के लिए राष्ट्रीय गौरव का विषय बताया जाने लगा है।

ऐसे में, रोजगारविहीन विकास के दुष्परिणाम के चलते फैलती बेरोजगारी और किसानों, छोटे कारीगरों की बदहाली की चर्चा को तो जान-बूझकर शगुन बिगाड़ने का षड्यंत्र समझा जा ही सकता है! वैसे, नव उदारवादी आर्थिक चिंतक इसे समाजवादी दौर के अभी तक बने हुए मनोरोग के असर में किया जाने वाला प्रलाप भी कहते हैं और सरकारों को समझाते हैं कि वे इसकी ज्यादा चिंता न करें, बल्कि इस बात से खुश हों कि देश में अमीरों की तादाद बढ़ रही है और मध्यम वर्ग फैल रहा है।

बहरहाल, गाँधी का अंतिम आदमी जो इस व्यवस्था का एक तरह से अन्त्यज भी था, वह इस आर्थिक महायज्ञ के पांडाल में दूर-दूर तक कहीं नहीं है। यज्ञ के होता, पुरोहित और याज्ञिक सब दूसरे हैं। इस यज्ञ का सारा पुण्यफल भी उन्हें ही प्राप्त हो रहा है। भरोसा दिलाया जा रहा है कि यज्ञ के बाद जो महाभोज होगा उसकी फेंकी गईं जूठी पत्तलों से इस अंतिम आदमी को भी कुछ न कुछ प्राप्त होगा। उसे धैर्य रखना चाहिए। वैसे, यह अंतिम आदमी आजादी मिलने के बाद विकास का पूँजी केंद्रित मॉडल अपनाए जाते ही हाशिए पर सरकने और पिछड़ने लगा था। पिछड़कर विकास यात्रा से उसके बिलकुल बाहर हो जाने का सिलसिला अब पूरा होता दिख रहा है।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)