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Written By ND

आर्थिक मजबूती से ही संभव है देश की रक्षा

आर्थिक मजबूती से ही संभव है देश की रक्षा -
- पं. जवाहरलाल नेहरू
आज भारत में हमारे सामने अनेक तरह के संकट उपस्थित हैं। यद्यपि इनमें से कुछ अगली पंक्ति में आ गए हैं, तथापि वास्तव में हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि क्रमशः राष्ट्र की उत्पादन शक्ति शुष्क हो रही है।
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इसके हम पर राजनीतिक, आर्थिक और सभी प्रकार के असर पड़ते हैं और इसी से क्रमशः खतरों का मुकाबला करने की हमारी शक्ति क्षीण होती जाती है। हमें अपना उत्पादन बढ़ाना है; अपनी राष्ट्रीय संपत्ति और राष्ट्रीय आय में वृद्धि करना है और यह तभी संभव होगा जबकि हम अपनी जनता के रहन-सहन के स्तर को ऊँचा कर सकें।

जहाँ-तहाँ मौजूदा संपत्ति का अधिक न्यायसंगत वितरण करके, हम स्थिति को कुछ हद तक ठीक कर सकते हैं। इसे करना चाहिए परंतु यह इसलिए नहीं कि इससे रहन-सहन का स्तर ऊँचा करने में विशेष अंतर आएगा- अंतर तो आएगा लेकिन कुछ विशेष नहीं-लेकिन इसे करना चाहिए, चूँकि यह उन्नति के अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है। यदि ऐसा नहीं होता तो यह भावना बराबर बनी रहती है कि लोगों के साथ न्याय नहीं हो रहा है। तब वे जो काम करते हैं, जी लगाकर नहीं करते।

इसलिए यह सबसे पहले आवश्यक हो जाता है कि जहाँ कहीं भी घोर विषमताएँ हों, वहाँ इन विषमताओं को कम करने के प्रयास में हम लगें। लेकिन अंत में, अधिक संपत्ति सभी तरह के माल के अधिक उत्पादन से ही आएगी। जब हम उत्पादन वृद्धि के विषय में बात करते हैं- वह चाहे अन्न की हो, चाहे किसी दूसरी वस्तु की-तब यह आवश्यक है कि हम छोटे पैमाने पर होने वाले उत्पादन को भी खूब प्रोत्साहन दें। इस विषय पर अक्सर इस तरह विचार किया जाता है, जैसे बड़े और छोटे पैमाने पर होने वाले उत्पादनों के बीच कोई स्वाभाविक संघर्ष हो। शायद, इस तरह इस सवाल को और तरीके से सोचा जा सके।

लेकिन संघर्ष के इस ख्याल को अलग रखकर यह मुझे स्पष्ट जान पड़ता है कि विशेषकर आजकल और संभव है आगे भी, छोटे और बड़े दोनों को साथ ही साथ चलना पड़े। इस समय हमारी वास्तविक आवश्यकता यह है कि एक ऐसा मनोवैज्ञानिक वातावरण उपस्थित किया जाए और एक इस प्रकार का संगठन हो जिससे दोनों तरह के उत्पादनों के पारस्परिक संघर्षों का निपटारा हो सके।

अब, जबकि हम और दुनिया के साथ-साथ कुछ संकटों का सामना कर रहे हैं और साथ ही हमारी कुछ अपनी खास मुसीबतें भी हैं, तो हमें कैसे आगे बढ़ना चाहिए? जो पहला विचार किसी के मन में उठता है, वह यह है कि इस टूटती हुई दुनिया में जो कि फिर एक विशाल संघर्ष की ओर बढ़ रही है, जितनी जल्दी हम भारत को अपने पैरों के सहारे खड़ा करते हैं, उतना ही अच्छा है। यदि इस समय हम अपना पूरा जोर लगा सकेंगे और जीवित रह सकेंगे तभी निकट भविष्य में हमारा प्रभाव रहेगा।

कोई भी, बड़े से बड़ा विशेषज्ञ भी यह नहीं कह सकता कि कब तक यह अनिश्चित शांति दुनिया में बनी रहेगी। हम आशा करते हैं कि यह बहुत वर्षों तक बनी रहेगी, लेकिन यह किसी समय भी भंग हो सकती है। और यदि ऐसा होता है, तो आप अनुभव करेंगे कि सभी तरह की अप्रत्याशित बातें हो सकती हैं और अगर शांति भंग हुई तो वह हमें ऐसा हिला देगी जैसा कि आज तक किसी अन्य बात ने हमें नहीं हिलाया।

सवाल यह है कि इस आकस्मिक संकट का सामना हम कैसे करें? यह तभी हो सकता है कि हम किसी घटना से पहले आर्थिक व्यवस्था की दृष्टि से एक दृढ़, संतुलित भारत का निर्माण कर लें, जिसका अपना काफी मजबूत रक्षा-संगठन हो। याद रखिए कि आज रक्षा-संगठन के क्या अर्थ होते हैं। लोग फौज और नौसेना व हवाई शक्ति की बात करते हैं। स्पष्ट है कि रक्षा का तात्पर्य इनसे ही है।

लेकिन फौज और नौसेना और हवाई शक्ति से कहीं अधिक रक्षा का अर्थ उद्योग और उत्पादन है। नहीं तो सारे संसार के सिपाही भी भारत का कुछ भला न कर सकेंगे। लोग अनिवार्य फौजी सेवा की बात करते हैं। एक दृष्टि से मैं साधारणतः अनिवार्य फौजी सेवा के पक्ष में नहीं हूँ। लेकिन मैं इस मानी में इसके पक्ष में हूँ कि यह जनता को कुछ अधिक अनुशासन सिखाएगी। शारीरिक उन्नति की दृष्टि से भी मैं इसके पक्ष में हूँ।

लेकिन अनिवार्य सैनिक शिक्षा की बात, रक्षा की दृष्टि से, कोई विशेष महत्व नहीं रखती। क्योंकि वास्तविक समस्या यह नहीं है कि लोगों में युद्ध की मनोवृत्ति पैदा की जाए, बल्कि वह यह है कि उन्हें लड़ाई के साधन प्राप्त हों। अगर आपके यहाँ करोड़ों आदमी दकियानूसी हथियार और लाठियाँ लिए हुए हों, तो उससे बहुत लाभ नहीं होगा। आपको युद्ध के समय मुख्य साधनों का उत्पादन कर सकना चाहिए। वास्तव में युद्ध में हथियार और सभी तरह की चीजें आवश्यक हैं।

अगर आप औद्योगिक दृष्टि से मजबूत हैं तो आप अपनी फौज, नौसेना और हवाई शक्ति को थोड़े समय में तैयार कर सकते हैं। अगर आप अपने जंगी जहाज और सब कुछ विदेश से खरीदने पर निर्भर रहते हैं और वह स्रोत बंद हो जाता है और कुछ हजार आदमी 'युद्ध', 'युद्ध' चिल्लाते रहते हैं, तो वह बिलकुल बेकार है। इसलिए अंतिम विश्लेषण करने पर यह लड़ाई का मामला भी आपको उत्पादन और बड़े-छोटे उद्योगों की उन्नति की आवश्यकता पर पहुँचाता है।

पिछले युद्ध के जीतने में कई बातों ने मदद दी थी। लेकिन मेरी समझ में अंतिम कारण दो ही थेः अमेरिकी उद्योग की आश्चर्यजनक क्षमता और वैज्ञानिक अनुसंधान। इन्हीं दो चीजों ने युद्ध जीतने में जैसी मदद दी थी, उतनी सिपाहियों तथा और चीजों ने नहीं दी। इसलिए बाहरी और भीतरी, हर एक दृष्टि से उत्पादन के ढीले पड़ने को रोकना चाहिए और नए व्यवसायों के निर्माण द्वारा इसे तेजी से आगे बढ़ाना चाहिए। हमें बेकारी की और रहन-सहन के स्तर को उठाने की समस्याओं को हल करने में लगना चाहिए। यह तभी हो सकता है जबकि उद्योग के क्षेत्र में शांति हो। वहाँ शांति हुए बिना यह करना असंभव होगा।

हम परिवर्तन के एक बड़े युग में से गुजर रहे हैं, जबकि शक्ति के बिलकुल नए स्रोतों को उपयोग में लाया जा रहा है। आज न सिर्फ औद्योगिक क्रांति या विद्युत क्रांति के ढंग की चेष्टाएँ हो रही हैं, बल्कि उससे भी दूर के परिणाम रखने वाली बातें हो रही हैं। अगर औद्योगिक क्रांति के समय कोई उससे पूर्वकाल की स्थिति को ही ध्यान में रखते हुए यह सोचता कि हमें अमुक चीजें प्राप्त करनी हैं, तो कुछ समय बाद, जबकि नया युग आ गया और शक्ति के नए साधन अस्तित्व में आ गए, तब नई व्यवस्थाओं में उसे अपने लिए कोई जगह न दिखाई दी होती।

इसी तरह हम एक नए व्यावसायिक युग के सन्निाकट हैं और चाहे दस या पंद्रह या बीस वर्ष लगे- इससे अधिक समय तो मेरी समझ में क्या लगेगा- उत्पादन के हमारे बहुत-से तरीके बिलकुल पुराने ढंग के हो जाएँगे और जिस चीज पर आप अधिकार करने की सोच रहे हैं उसका संभव है तब कोई मूल्य ही न रह जाए। इसे चेतावनी समझिए। मैं उम्मीद करता हूँ कि ऐसा कहने से लोग इतना न डरेंगे कि वे किसी व्यवसाय में पूँजी लगाने का ख्याल छोड़ दें।

लेकिन आज आदमी को इन परिवर्तनों के बारे में बहुत सतर्क रहना पड़ता है और उसे बीते हुए समय की न सोचकर आगे की सोचना चाहिए, क्योंकि अतीत बीत चला, हम उसके पास लौटकर नहीं जा सकते। वर्तमान भी बहुत तेजी से बदल रहा है। यदि आप भविष्य की दृष्टि से देखें, तो हमारे आज के बहुत-से संघर्ष अनावश्यक जान पड़ेंगे। तब कम से कम, एक नया पहलू आपको दिखाई देगा, जिससे पुराने ढंग की लीक से आप बाहर आ जाएँगे।

मैं नहीं कहता कि आप अपने विचारों और विश्वासों को छोड़ दीजिए। आप उन पर टिके रहिए। केवल यह अनुभव कीजिए कि आपको विशेष विचारधारा के लिए भी पनपने का अधिक अवसर उस समय मिलेगा, जबकि शांति स्थापित हो और अगले साल-दो साल के लिए हम इसी समय कुछ इकट्ठा कर लें, और इस बीच में हम अपनी उन दूसरी नीतियों का विकास करें। अगर आप लड़ना ही चाहते हैं, तो उसके बाद लड़ भी लीजिए। लेकिन कम से कम कुछ ऐसी चीज भी सामने हो जिसके लिए लड़ाई की जा सके। नहीं तो जिस चीज के लिए हम लड़े, वही गायब हो जाए, तो यह बात न तो अच्छी ही होगी और न अक्लमंदी की ही।
(18 दिसंबर 1947 को दिए गए एक भाषण के अंश)