जिनके लिए आजादी के मायने थे अलग
अँग्रेजों के आगमन से पहले भी भारत पर विदेशियों का आधिपत्य था। हर शासक ने देश को अपने स्वार्थ और अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल ढालने का प्रयास किया। लोग अंधविश्वास और अज्ञानता से घिरे हुए थे। उनमें सामाजिक शिष्टाचार का भी अभाव था। शिक्षा का प्रसार नहीं था, महिलाओं की स्थिति शोचनीय थी। अँग्रेजों ने जब अपने साम्राज्य का विस्तार किया, तो इन कमजोरियों का भरपूर लाभ उठाया। लोगों की जमीनें हड़प ली जाती थीं। उन्हें उनकी ही जमीनों से बेदखल कर दिया जाता। उनसे मनमाना लगान वसूला जाता था, लेकिन अपनी अज्ञानतावश वे आवाज भी नहीं उठा पाते थे। उनकी अपनी ही अज्ञानता उनकी परतंत्रता का कारण बनी थी। धर्म और सामाजिक कर्मकांडों में उनके अंधविश्वास जड़ों तक गहरे जमे हुए थे। पति की मृत्यु के उपरांत उसकी पत्नी को भी मृत्यु को स्वीकार करना पड़ता था और सती माता कहकर उनकी पूजा की जाती थी। कम उम्र में ही बालिकाओं का विवाह कर दिया जाता था और विधवा होने पर उन्हें कठिन और संतप्त जीवन जीना पड़ता था। आजादी के संघर्ष के दौर में इन परिस्थितियों से गुजर रहे देश को उबारने के लिए कई योद्धाओं ने अपना योगदान दिया। जिन्होंने हथियार नहीं उठाया, लेकिन समाज को ऐसी राह पर लेकर आगे बढ़े, जहाँ लोगों को सही मायने में उन्मुक्तता और स्वतंत्रता का आभास हुआ।राजा राममोहन राय: इन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की थी, जो मूर्ति पूजा और धार्मिक कर्मकांडों के सख्त खिलाफ थे। इस समाज ने महिलाओं के उत्थान में अग्रणी भूमिका निभाई। बाल-विवाह, विधवा-पुनर्विवाह के समर्थक इस समाज ने पुरुषों के समान ही स्त्रियों की शिक्षा पर भी बल दिया। हिन्दू धर्म में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए ब्रह्म समाज ने जगह-जगह आंदोलन चलाए, सभाएँ कीं। राजा राममोहन राय के बाद देवेंद्रनाथ ठाकुर ने इन सिद्धांतों को आगे बढ़ाया।
रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद: इन दोनों महापुरुषों ने सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक अंधविश्वासों को दूर करने का प्रयास
किया। रामकृष्ण परमहंस माँ काली के परम भक्त थे, लेकिन इन्होंने कभी लोगों को मूर्तिपूजा के लिए प्रेरित नहीं किया। स्वामी विवेकानंद ने भारतीय धर्म का गुणगान विदेशों में किया और वास्तविक अर्थों में धर्म को प्रतिपादित किया। जाति प्रथा, पूजा-पाठ की जगह लोगों को स्वतंत्र चिंतन की ओर उन्मुख होने की प्रेरणा दी। स्वामी दयानंद: 1875 में दयानंद सरस्वती ने ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की। इस समाज ने उत्तर भारत में फैली कुरीतियों को दूर करने का बीड़ा उठाया। दयानंद सरस्वती ने ही ‘वेदों की ओर लौट चलो’ का नारा दिया था। उनका मानना था कि अज्ञानी पुरोहितों ने धर्म को लोगों के बीच गलत रूप में प्रसारित किया है। उनके कारण ही लोग दिग्भ्रमित हो रहे हैं और वास्तविकता से पलायन कर जड़ता की ओर बढ़ रहे हैं। इस समाज ने लोगों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा दिया। वेदों के सकारात्मक विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का कार्य किया, ताकि बौद्धिक स्तर पर लोगों का विकास हो सके।
एनी बेसेंट: इन्होंने थियोसॉफिकल सोसायटी की स्थापना भारत में की। यह संस्था संयुक्त राज्य अमरीका में धार्मिक आंदोलन चला रही थी।
उनका मानना था कि भारत में हिंदुत्व, पारसी धर्म और बौद्ध मतों की पुर्नस्थापना की जाए। इन मतों के द्वारा लोगों में जागरूकता लाने का प्रयास किया गया।
सर सैयद अहमद खान: हिंदू धर्म में फैली कुरीतियों और अंधविश्वासों को दूर करने के लिए कई आंदोलन चलाए गए, लेकिन मुस्लिम समाज में यह कार्य कुछ देर से प्रारंभ हुआ। उनमें जनजागरूकता लाने का प्रयास सर सैयद अहमद खान ने किया। अलीगढ़ से उन्होंने अपने आंदोलन की शुरुआत की। कुरान की महत्ता को स्थापित करते हुए लोगों में आधुनिक और वैज्ञानिक विचारधारा प्रवाहित करने का प्रयास किया। ज्योतिबा फुले : महाराष्ट्र में धार्मिक सुधार आंदोलन जोरों पर था। जाति-प्रथा का विरोध करने और एकेश्वरवाद को अमल में लाने के लिए
‘प्रार्थना समाज’ की स्थापना की गई थी, जिसके प्रमुख गोविंद रानाडे और आर.जी भंडारकर थे। महाराष्ट्र में जाति-प्रथा बड़े ही वीभत्स रूप में फैली हुई थी। स्त्रिओं की शिक्षा को लेकर लोग उदासीन थे, ऐसे में ज्योतिबा फुले ने समाज को इन कुरीतियों से मुक्त करने के लिए बड़े पैमाने पर आंदोलन चलाए। इन प्रमुख सुधार आंदोलनों के अतिरिक्त हर क्षेत्र में छोटे-छोटे आंदोलन जारी थे, जिसने सामाजिक और बौद्धिक स्तर पर लोगों को परतंत्रता से मुक्त किया। लोगों में नए विचार, नए चिंतन की शुरुआत हुई, जो आजादी की लड़ाई में उनके संबल बने।प्रस्तुति : नीहारिका झा