आजादी के लिए हिंदुस्तान की उमंग
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जवाहरलाल नेहरू पूरब ने तूफान के आगे सिर झुका लिया सब्र और गहरी लापरवाही के साथ,उसने फौजों को सिर के ऊपर से गुजर जाने दिया और फिर वह विचार में डूब गया ऐसा कवि ने कहा है, और उसकी पंक्तियाँ अकसर उद्धृत की जाती हैं। यह सही है कि पूरब या कम-से-कम उसका वह हिस्सा, जिसे हिंदुस्तान कहते हैं, विचार में डूबना पसंद करता रहा है और अकसर उन बातों पर विचार करने का उसे शौक रहा है, जिन्हें कुछ ऐसे लोग, जो अपने को अमन पसंद कहेंगे, बेतुका और बेमतलब समझेंगे। उसने हमेशा विचारों और विचार करने वालों की (आला दिमाग वालों की) कद्र की है और तलवार चलाने वालों और पैसेवालों को इनसे ऊँचा समझने से बराबर इनकार किया है। अपनी पस्ती के दिनों में भी वह विचार का तरफदार रहा है और इससे उसे कुछ तसल्ली हासिल हुई है।लेकिन यह बात सही नहीं है कि हिंदुस्तान ने कभी भी सब्र के साथ तूफान के आगे सिर झुका दिया है या विदेशी फौजों के सिर पर से गुजरने की तरफ से लापरवाह रहा है। उसने हमेशा उनका मुकाबला किया है (कभी कामयाबी के साथ और कभी नाकाम होकर) और जब वह नाकाम भी रहा है तो उसने अपनी कामयाबी को याद रखा है और दूसरी कोशिश के लिए अपने को तैयार करता रहा है।उसने दो तरीके अख्तियार किए हैं - एक तो यह कि वह लड़ा है और उसने हमलावरों को मार भगाया है; दूसरा यह कि जो भगाए नहीं जा सके, उनको उसने अपने में जज्ब करने की कोशिश की है। उसने सिकंदर की फौज का बड़ी कामयाबी से मुकाबला किया और उसकी मौत के ठीक बाद उत्तर से उन फौजियों को, जिन्हें यूनानियों ने यहाँ मुकर्रर कर रखा था, मार भगाया है। बाद में उसने भारतीय यूनानियों और भारतीय सिदियनों को जज्ब करके आखिरकार फिर कौमी एकता कायम कर ली है। वह कई पीढि़यों तक हूणों से लड़ता रहा है और उन्हें अंत में मार भगाया है। जो बचे रहे, उन्हें फिर अपने में जज्ब कर लिया। जब अरब आए तो वे सिंधु नदी के पास रह गए। तुर्क लोग और अफगानी बहुत रफ्ता-रफ्ता आगे फैले। दिल्ली के तख्त पर अपने को मजबूती से कायम रखने करने में उन्हें सदियाँ लग गईं। यह एक अटूट और लंबा संघर्ष रहा है। जहाँ एक तरफ यह संघर्ष चलता रहता था, दूसरी तरफ जज्ब करने और उन्हें हिंदुस्तानी बनाने की क्रिया भी जारी रहती थी, जिसका नतीजा यह होता था कि हमलावर वैसे ही हिंदुस्तानी बन जाते थे, जैसे कि और लोग थे।
अकबर मुख्तलिफ तत्वों के समन्वय के पुराने हिंदुस्तानी आदर्श का नुमाइंदा बन गया और इस मुल्क वालों को एक आम कौमियत के अंदर लाने की कोशिश में लगा। चूँकि वह हिंदुस्तान का बना रहा, इसलिए हिंदुस्तान ने भी उसे अपनाया था। बावजूद इसके कि वह बाहर से आया हुआ था। यही वजह थी कि वह अच्छा निर्माण कर सका और उसने एक शानदार सल्तनत की नींव डाली। जब तक उसके उत्तराधिकारियों ने उसकी नीति को बरता और कौमियत की जहनियत बनाए रहे, तब तक उनकी सल्तनत कायम रही। जब वे इससे अलग हट गए और कौमियत के विकास की सारी प्रवृत्ति को रोकने लगे, तब वे कमजोर पड़ गए और सारी सल्तनत की धज्जियाँ उड़ गईं। नई तहरीकें उठीं, जिनमें तंग नजरी थी, लेकिन जो उभरती हुई कौमियत की नुमाइंदगी करती थी और अगर ये इतनी मजबूत नहीं थीं कि पायदार हुकूमत कायम कर सके, फिर भी वे मुगलों की सल्तनत को नाबूद करने भर को काफी थी। वे कुछ वक्त तक कामयाब रहीं, लेकिन उनकी निगाह गुजरे हुए जमाने पर बहुत ज्यादा थी। और उस जमाने को फिर से जिंदा करने के ख्याल में डूबी थी। उन्होंने यह नहीं महसूस किया कि बहुत कुछ, जो उसके बाद गुजर चुका था, उसकी तरफ से आँखें नहीं मूँदी जा सकती थीं। अतीत वर्तमान की जगह हरगिज नहीं ले सकता था और यह वर्तमान भी। उनके जमाने के हिंदुस्तान में ऐसा था, जिसमें सड़ांध पैदा हो गई थी। वह बदलती हुई दुनिया से अलग जा पड़ा था और हिंदुस्तान बहुत पीछे पड़ गया था। उन्होंने इस बात का ठीक-ठीक अनुमान न किया कि एक नई और जीवट दुनिया पश्चिम में उठ रही थी, जिसका नजरिया नया था और जिसके पास नई हिम्मतें थी, और यह कि एक नई ताकत (यानि ब्रिटिश) उस नई दुनिया की, जिससे वे इतने बेखबर थे, नुमाइंदगी करती थी। ब्रिटिश जीते, लेकिन मुश्किल से उन्होंने अपने को उत्तर में कायम किया था कि बलवा हो गया था और यह आजादी की लड़ाई बन गया था और इसने अंग्रेजी हुकूमत का करीब-करीब खात्मा कर दिया था। आजादी की, स्वतंत्रता की, उमंग हमेशा रही है और विदेशी हुकूमत के सामने सिर झुकाने से बराबर इन्कार किया गया है (
जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ से साभार)