-पंकज जोशी मोहल्ले में लोग आज़ादी की 60वीं वर्षगाँठ की तैयारी में लगे हुए थे। बीच चौराहे पर चमकता-लहराता तिरंगा गाड़ दिया गया था। शर्माजी भी आज ही के दिन अपने 60 वर्ष पूरे कर रहे थे। उस 15 अगस्त को देश में आज़ादी आई और शर्माजी दुनिया में आए थे। इस बात की उन्हें बड़ी प्रसन्नता थी कि वे भारत के आज़ाद होने पर जन्मे हैं। आज़ाद भारत और उनका उदय साथ-साथ हुआ है। उनकी आँखों ने भारत को इन 60 वर्षों में बड़ा बनते और विकास करते देखा था।
ऐसे विशेष दिन पैदा होने पर घरवालों ने उन्हें ‘आज़ादी का तोहफ़ा’ कह दिया था। शिक्षा-दीक्षा और संस्कार अच्छे मिले। देश-प्रेम और राष्ट्रभावना तो बचपन से ही नस-नस में दौड़ती रही। पर ये सबकुछ अब प्रासंगिक नहीं था। उनके स्वतंत्र विचारों और समाजहित में किए कार्यों ने उनकी नई छवि बना दी थी। मोहल्ले में मौजूद देश के नौजवानों ने उन्हें ‘सनकी, सिरफिरा, आज का गांधी’ जैसी पदवियाँ दे रखी थीं।
आज चौराहे पर लगे लाउडस्पीकरों से देशप्रेम के गाने निकल रहे थे। तय समय पर कुछ लाल-पीली बत्ती वाले लोग आ गए। उन्होंने तिरंगा लहराया और उत्साह और जोश में 5-10 नारे लगा मारे। बस फिर क्या, स्वतंत्रता, देशप्रेम, राष्ट्रसम्मान की भावना और स्वतंत्रता सैनानियों के बलिदान से लहूलुहान भाषण, कविताएँ, और अन्य कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए। जिसका असर था कि कार्यक्रम समाप्त होते ही पूरा ‘चौराहा तिरंगा’ हो गया। अब सारे झंडे सड़क पर पड़े हुए थे। शर्माजी को पहले तो लगा कि जाकर सब तिरंगों को ससम्मान उठा लें पर फिर अचानक कुछ सोचते हुए कोने में रुक गए।
एक नौजवान चौराहे पर आकर रुका। हवा के चलते एक तिरंगा उसके पैर तक आ गया। शर्माजी को कुछ उम्मीद जागीं, लेकिन लड़के ने इधर-उधर नज़रें घुमाईं और तिरंगा उठाकर अलग उड़ा दिया। उसने मोबाइल निकालकर शायद किसी को कॉल किया था। दो मिनट बाद ही एक सुंदर युवती आई और उसकी गाड़ी पर सवार हो गई। दोनों लड़का-लड़की अपनी-अपनी आज़ादी का उत्सव मनाने के लिए तेज़ गति से निकल गए।
दूसरी ओर से वहीं पर सब्जी वाले की आवाज़ सुनकर एक महिला बाहर निकली। उन्हें अपने ‘तिरंगे पुलाव’ की सजावट के लिए सलाद की सब्ज़ियाँ लेनी थीं। वे भी किसी तरह तिरंगों से बचती-बचाती चौराहा पार कर गईं। और अपना काम ख़त्म कर वापस घर में दाखिल हो गईं। शर्माजी एक ओर खड़े पता नहीं क्यों, पर मुस्कुरा दिए।
आज़ादी के पर्व पर मोहल्ले के कुछ प्रबुद्ध लोग भी सैर पर निकले थे। चौराहे का दृश्य देखकर उनकी भी नाक-भौंह सिकुड़ गईं। वे लोग:
‘कैसे लोग हैं!’
‘अब पढ़े-लिखों को कौन समझाए?’
‘ये कोई तरीका है?’
इस प्रकार की बातें और तर्क-वितर्क करते आगे बढ़ गए। उन्हें आज की बहस के लिए एक ज्वलंत मुद्दा मिल गया था।
शर्माजी इन सबके गवाह बन उदास मन से तिरंगों की ओर बढ़े। इतने में ही उछलता-कूदता एक बालक आ खड़ा हुआ। उसके तन पर कपड़े तो नहीं थे, बस भारतभूमि की मिट्टी और एक चिंदी लिपटी हुई थी। उसने मासूमियत से तिरंगे को देवों की भाँति प्रणाम किया और उठा लिया। फिर ‘जय भारत माता’ और ‘जय हिंद’ कहते हुए तिरंगे का माथे और आँखों पर स्पर्श करा लिया। शर्माजी को देख वो फिर एक बार चिल्लाया ‘बाबा! वंदे मातरम्!!!’ वह ऐसे ही नारे लगाता आगे भाग गया।
हल्के मन और संतोष के साथ शर्माजी आगे बढ़े। उनकी चेहरे की मुस्कान पता नहीं क्या, शायद उनकी उदासी को छुपा रही थी। पर वे अब खुश थे। उन्हें लगा कि जैसे उस बच्चे ने उन्हें और स्वतंत्र भारत को जन्मदिन का तोहफ़ा दे दिया हो। अगले ही पल वे ‘जन्मदिन मुबारक हो' बुदबुदाकर बाकी के तिरंगों को इकट्ठा करने लगे।