सारा सामान गाड़ी में ठीक से व्यवस्थित कर, माता-पिता को सुलाकर प्रकाश भी अपनी बर्थ पर लेट गया, पर उसकी आंखों में नींद कहां थी। पिछले दिनों जो कुछ भी हुआ, उसने बचपन से लेकर आज तक की सारी घटनाओं को एक चलचित्र की भांति उसकी आंखों के सामने सजीव कर दिया था।
प्रकाश, बड़े अरमान से किसी उम्मीद का दामन थाम उसके पिता ने उसे यह नाम दिया था, पर नाम भर रख देने से तो सब कुछ नहीं बदल जाता। जिस जाति से प्रकाश का संबंध था उसके लिए समाज में कोई सम्मान नहीं था, अलग बस्ती थी, अलग कुआं और उस पर सबकी आंखों में दिखने वाला तिरस्कार, तिरस्कार भी ऐसा जो उनसे इंसान होने का हक भी छीन लेना चाहता था।
दादा और पिता आरक्षण की बदौलत नौकरी पा गए थे तो तिरस्कार करने का एक और कारण- 'बिना योग्यता नौकरी मिल गई', सरकारी योजना से रोजगार तो मिल गया पर सम्मान...? प्रकाश संवेदनशील और प्रज्ञावान। अपने आसपास होती घटनाओं को देख-देखकर आग-सी लग जाती, आंखों में विद्रोह उतर आता किंतु असहाय...। तभी गाड़ी ने एक लंबी सीटी दी, एक क्षण को विचारों की श्रृंखला टूटी, कोई स्टेशन था शायद। यात्री चढ़े-उतरे। गाड़ी फिर चल पड़ी, साथ ही प्रकाश की यात्रा भी।
इन सब बुरी यादों के बीच सिर्फ एक चेहरा ऐसा था जिसे याद कर प्रकाश को कुछ शांति मिलती। वे थे उसके गुरु और गांव के सम्माननीय गोविंदरावजी। उसकी जिज्ञासा और ललक को सबसे पहले उन्होंने ही पहचाना और पूरे गांव के विरोध के बावजूद उसे पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित किया।
लगन और दिशा मिली तो प्रकाश ने कुछ ही समय में अपनी बुद्धि से सबको चौंका दिया। उसका तर्कशील दिमाग कइयों के पेट में दर्द पैदा कर गया, सब मौका ढूंढने लगे उसे नीचा दिखाने का और जल्दी ही उन्हें यह मौका मिल भी गया।
गांव के मंदिर का धूर्त पंडित ताक में ही था। एक दिन एक उत्सव की बची हुई सामग्री देने उसने प्रकाश को बुलाया और कहा- 'तुम्हारी बस्ती के घरों में इन्हें बंटवा दो।' कुछ प्रसाद उसकी और लगभग फेंकते हुए बोला- 'ले खा ले।'
प्रकाश का दबा हुआ स्वाभिमान फुफकार मार उठा, वह चिल्ला उठा- 'ये खैरात अपने पास रखो मुझे नहीं चाहिए।'
बस फिर क्या था? पंडित ने चिल्ला चिल्लाकर- 'अरे प्रसाद का तिरस्कार किया, भगवान का अपमान किया', कहकर गांव इकट्ठा कर लिया। गांव वालों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रकाश के विरुद्ध भड़काया गया। गांव वाले अनपढ़, भोले। धर्म के नाम पर कुछ भी करने को तत्पर- 'मारो-मारो' कर गांव वाले प्रकाश की तरफ बढ़े।
तभी पंडित गोविंदरावजी वहां पहुंचे। किसी तरह समझा-बुझाकर पंचायत बुलाने का आश्वासन दे लोगों को शांत किया। मन ही मन दुखी हुए कि 'इस भेदभाव और धार्मिक पाखंड का क्या कोई हल नहीं?'
अगले दिन पंचायत बैठी। पंडित की तरफ पूरा गांव।
प्रकाश ने कहा कि- 'मुझे फेंककर प्रसाद दिया। मैंने कोई तिरस्कार नहीं किया'।
पंडित हाथ हिला-हिलाकर बोला- 'तो क्या तुझे आसन पर बिठाकर तिलक लगाकर प्रसाद देता, लो जी, नाली के कीड़े सर पर चढ़ रहे हैं। अब तो धर्म का भगवान ही मालिक है।'
आरोप-प्रत्यारोप का लंबा दौर चला किंतु पंडितजी की लाख कोशिशों के बावजूद पंचायत ने उसे और उसके परिवार को गांव से बेदखल कर दिया, साथ ही उसकी बिरादरी ने भी भयवश उनका हुक्का-पानी बंद कर दिया।
पंच पंडितजी से बोले, 'आपकी सज्जनता हमारे धर्म के लिए परेशानी बनती जा रही है। आज एक प्रकाश है, कल कई होंगे तो हमारा क्या होगा?'
पंडितजी अकेले थे, विरोध नहीं कर सके।
गाड़ी ने फिर झटका दिया। विचारों की श्रृंखला फिर टूटी, फिर जुड़ी। प्रकाश ने सोचा जिंदगी भी फिर जुड़ जाएगी।
गांव से निकलते वक्त पंडितजी के कहे गए शब्द कान में गूंजने लगे- 'मेरी बात भूलना मत प्रकाश, ज्ञान को ही आधार बनाना, नफरत को नहीं, अपनी आवाज में इतना वजन पैदा करो कि सुनते वक्त लोग भूल जाएं कि बोलने वाला किस जाति का है। इस संसार में आज भी अच्छे इंसानों की कमी नहीं है, जो ज्ञान, कर्म और मानव-प्रेम को ही सच्चा धर्म मानते हैं इसलिए अपने अंदर निराशा मत आने देना। और एक घटना से पूरे समाज के लिए कोई पूर्वाग्रह मत पाल बैठना, नहीं तो तुम्हारे अंदर की प्रतिभा भी पक्षपाती हो जाएगी, जाओ और अपने लक्ष्य को पा सको यही मेरा आशीर्वाद है।'
आंसूभरी आंखों और विश्वास से भरे मन से प्रकाश ने गुरुजी की चरण रज को अपने माथे से लगाया और निकल पड़ा। शहर का रास्ता तो पता था, पर जीवन किस रास्ते पर जाएगा उनमें से कोई नहीं जानता था।
गाड़ी से उतरकर पहले तो उसे एक रिश्तेदार के यहां शरण लेनी पड़ी, फिर मकान की खोज शुरू हुई। मकान ढूंढते वक्त जब किसी ने उनसे उनकी जाति नहीं पूछी तो प्रकाश को आश्चर्य भी हुआ। उसने देखा कि शहर में जाति-पाति के भेदभाव का असर वैसा कटु नहीं है, जैसा कि गांव में था। सभी जाति और समाज के लोग हर कहीं साथ-साथ रहते और काम करते थे। न सार्वजनिक स्थानों पर कोई प्रतिबंध, न कोई अलग बस्ती या व्यवस्था। हां, आर्थिक दृष्टि से क्षेत्र बंटे हुए थे। निम्नवर्गीय कॉलोनी, मध्यमवर्गीय कॉलोनी, धनाढ्य वर्ग, पर हर कॉलोनी में हर जाति और समाज के लोग रहते थे। यह देख प्रकाश को बेहद खुशी हुई, कुछ हल्का-हल्का-सा लगा।
एक दिन उसका पड़ोसी उसे पास के मंदिर में ले गया। जीवन में पहली बार प्रकाश किसी मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रहा था। उसे ऐसा लग रहा था, मानो किसी ने उसकी बेड़ियां काट दी हों और वह स्वतंत्र हो गया हो। अजीब-सा रोमांच उसके अंदर हिलौरे लेने लगा। यहां न तो पंडित ने, न ही किसी और ने उसे रोका। मंदिर की सुंदर मूर्तियों को देख उसकी आंखों में आंसू आ गए।
प्रसाद के लिए हाथ आगे करते वक्त उसके हाथ कांप गए, पर जब पंडित ने उसके माथे पर तिलक कर उसे प्रसाद दिया तो वह सर झुकाकर रो पड़ा।
उसके पड़ोसी ने उसे संभाला। वह समझ सकता था कि तिरस्कृत भूतकाल की स्मृति ने उसे भावुक कर दिया है।
वो कहने लगा- 'प्रकाश, ये शहर है, यहां जाति, नहीं पैसा चलता है, यहां पैसा ही भगवान है और फिर किसी को इतनी फुर्सत कहां कि वो जाति-पाति पूछकर धंधा-पानी करे। यहां काम और पैसा चहिए। वो कहीं से भी मिले। कोई नहीं पूछता कि तुम कौन सी जाति के हो।'
प्रकाश सोचने लगा कि पूंजी की कितनी बड़ी माया है कि जाति के बंधन शिथिल पड़ गए हैं। पहली बार उसे पूंजीवाद में कुछ सकारात्मकता दिखाई दी। उस रात उसे बड़ी गहरी नींद आई।
जागा तो उत्साह से भरा था। अब आगे की पढ़ाई के लिए भी उसे सोचना था। पिताजी सरकारी नौकरी में थे तो आर्थिक रूप से तो कोई परेशानी नहीं थी। उस पर जाति कार्ड के आधार पर भी बहुत-सी सुविधाएं उन्हें मिलने लगी थीं।
जीवन पटरी पर आ गया था। प्रकाश ने लोक सेवा में जाने का निश्चय कर लिया था। अपनी पढ़ाकू प्रवत्ति के कारण समाज विज्ञान और राजनीति उसके प्रिय विषय हो गए थे और उसे लगता था कि इसी तरीके से वो समाज में बदलाव भी ला सकता है। कॉलेज और कोचिंग में उसके कई दोस्त भी बन गए। कुछ उसी की जाति के, तो कुछ उच्च जाति के भी। प्रखर भी उनमें से एक था। उच्च ब्राह्मण वर्ग का। कुलीन संस्कारी लड़का। माता-पिता भी बेहद सहज- सरल। उसके परिवार में प्रकाश का निर्बाध आना-जाना होता, प्राय: रोज ही।
उसके परिवार को देख प्रकाश को सहसा विश्वास ही नहीं होता कि गांव के ब्राह्मण और प्रखर के परिवार वाले एक ही जाति धर्म को मानते हैं। प्रखर के घर किसी तरह के भेदभाव का उसे आभास ही नहीं होता। कुछ ही समय में प्रखर उसका सबसे घनिष्ठ मित्र बन गया था। प्रखर के पिता भी प्रकाश के पिता के विभाग में ही कार्यरत थे, परंतु अधिक योग्य व वरिष्ठ होने के बावजूद वे कनिष्ठ ही रहे। प्रकाश के पिता को जातिगत लाभ के कारण पदोन्नति मिलती गई थी।
समय का चक्र उल्टा घूमने लगा था। स्थान बदलने लगे थे। शासन की डोर फिसलकर शोषित वर्ग के हाथ में आने लगी थी। एक वर्ग को अधिकार देकर दूसरे से अधिकार छीन लिए गए, ढाक के वही तीन पात। एक गलती को सुधारने के लिए दूसरी गलती। खैर, प्रकाश भी बदलते जमाने की आहट को सुन रहा था। उसके अंदर बैठा तिरस्कार का नाग कभी-कभी कुलबुला उठता और वह सोचता- 'अच्छा ही है, सदियों से हम पर अत्याचार किए हैं, अब अपनी परछाई पर लात पड़ी तो कैसे तिलमिला उठा यह स्वर्ण समाज, अब हमारी बारी है। अब हम राज करेंगे।' पर मन शांत होने पर अन्यायपूर्ण व्यवस्था से खिन्न भी हो उठता।
तीन पीढ़ियों से आरक्षण का लाभ लेते-लेते उनकी आर्थिक स्थिति काफी अच्छी हो गई थी, वहीं प्रखर के घर की हालत कुछ ठीक नहीं थी। पिता अकेले कमाने वाले और दोनों बच्चों की पढ़ाई- लिखाई, माता-पिता की जिम्मेदारी, बीमारी-तिमारी सब कुछ और कोई मदद नहीं। जब प्रखर को हजारों रुपए कॉलेज की फीस भरनी पड़ती और प्रकाश को कम फीस, छात्रवृत्ति की मदद, किताबों की मदद मिलती तो प्रकाश का मन अपराध-बोध से भर जाता। हर परीक्षा में प्रखर को पूरी फीस भरनी पड़ती और प्रकाश को नाममात्र की।
प्रकाश के जाति प्रमाण पत्र के लगते ही कई सुविधाएं बिना उसका आर्थिक आधार जाने मिलने लगतीं। प्रकाश को हमेशा ही शोषित और कम बुद्धि वाला ही माना जाता, वहीं प्रखर के सामान्य जाति के होने पर उसे अमीर और बुद्धिमान मान लिया जाता। किसी भी परीक्षा में प्रखर को अधिक नंबर लाने पर ही पात्र माना जाता और प्रकाश को कम नंबर आने पर भी प्रवेश मिल जाता।
जब बिना प्रयास के चीजें मिलने लगती हैं तो इंसान प्रयास करना छोड़ देता है। वही प्रकाश के साथ हुआ। वह धीरे-धीरे आलसी होने लगा। दूसरी तरफ प्रखर अपने लिए अवसरों की कमी को भांप दिन-रात कठिन परिश्रम करने लगा। प्रकाश को अब पढ़ने में वैसा आनंद नहीं आता, जैसा उसे गांव की लाइब्रेरी से बड़ी कठिनाई से मिलने वाली किताबों से आता था। अब उसके पास वो सब किताबें हैं, जो कभी वो पढ़ना चाहता था। पर अब उसे लगने लगा कि जब बिना कुछ किए ही थोडा-बहूत पढ़-लिखकर भी बड़ा पद मिल ही जाना है, तो कौन माथापच्ची करे?
स्नातक का जब परिणाम आया तो प्रखर के नंबर सबसे अच्छे थे, पर प्रकाश सेकंड डिवीजन में पास हुआ। प्रखर ने उससे कहा- 'तू तो पढ़ने में बड़ा अच्छा था फिर ऐसा कैसे हुआ?'
गाड़ी की चाबी हिलाता प्रकाश बड़े अहंकार से बोला- 'ज्यादा पढ़ाई की जरूरत तुझे है, मुझे तो यूं ही नौकरी मिल जाएगी।'
फिर बोला- 'चल, आज दोस्तों के साथ पार्टी करते हैं।'
प्रखर एक फीकी हंसी हंसकर बड़ी विनम्रता से बोला- 'नहीं यार, आज से ही एक पार्टटाइम जॉब कर लिया है, घर की हालत कुछ ठीक नहीं है, फिर मुझे बैठे-बैठे तो कुछ मिलने से रहा।' कहकर प्रखर चला गया।
ओह! विनम्रता भी कभी-कभी कितनी उग्रता से प्रहार करती है। प्रकाश तिलमिला गया। उसे लगा- 'आरक्षण ने उसे ताकत देने के बजाय और कमजोर कर दिया है। उसके अंदर की जिज्ञासा, कुछ पाने की बेचैनी, अपने को साबित करने की तड़प धीरे-धीरे दम तोड़ रही है। पैरों में ताकत देने के लिए दी गई बैसाखियां ही पैर बन गईं। अब लगता है, उसके बिना चला ही नहीं जाएगा।'
अधिक अनूकुलताएं इंसान की स्वाभाविक क्षमताओं को खत्म कर डालती हैं, वैसा ही कुछ हो रहा था एक समाज के साथ, जो धीमे जहर की तरह उनकी जड़ों को खोखला कर रहा था। दूसरी ओर दिन-ब-दिन अपने लिए कम होते अवसरों को देख दूसरा वर्ग प्रतिकूलताओं में भी अपनी क्षमताओं को बढ़ा पा रहा था। वर्गभेद मिटा नहीं, वर्गभेद का प्रकार बदल गया, आरक्षित- अनारक्षित।
समय अपनी गति से चल रहा था। प्रखर के पिता का तबादला दूसरे शहर में हो गया था। कुछ समय आपसी पत्र-व्यवहार के बाद सब अपनी-अपनी दुनिया में मस्त हो गए। प्रकाश ने सिविल सर्विसेज पास कर ली थी और वह डिप्टी कलेक्टर हो गया था। पैसे और ताकत का मद सर चढ़कर बोलने लगा। अब वह भी वही सब करने लगा जिसका कि वह घोर विरोधी था। कभी कोई उच्च जाति का अधीनस्थ कर्मचारी उसके सामने खड़ा रहता, तो उसे बड़ा सुकून मिलता। कोई बड़े अदब से जब अपने हाथ से मिठाई या प्रसाद 'सर, सर' कर देता और सवर्ण जाति के लोग जब उसे अपने यहां भोजन पर आमंत्रित करने की होड़-सी लगाते तो वह एक कुटिल मुस्कान के साथ उन सबको अपमानित-सा करता हुआ बेरुखी से मना कर देता। सोचता- 'कभी हम सवर्णों के सामने खड़े भी नहीं हो सकते थे, आज देखो वही स्वर्ण समाज हमारे अधीन काम कर रहा है, मेरे बच्चे तो मुझसे भी अधिक अच्छी स्थिति में होंगे।'
एक दिन जब वह ऑफिस में काम कर रहा था तो उसके मोबाइल पर एक फोन आया। प्रकाश ने फोन उठाया तो कुछ-कुछ जानी-पहचानी आवाज में कोई उधर से पूछ रहा था कि 'क्या मैं प्रकाशजी से बात कर कर रहा हूं।
'प्रकाश आवाज पहचानने की कोशिश में कुछ असमंजस से बोला- 'जी हां, कहें।'
दूसरी तरफ से कोई बड़े उत्साह से बोला- 'क्या प्रकाश, इतनी जल्दी भूल गए अपने दोस्त को?बड़ी मुश्किल से तुम्हारा फोन नंबर लिया। तुम्हारे जिले में हूं।'
प्रकाश उछल पड़ा- 'अरे प्रखर, कहां हो भाई, कितने साल हो गए?'
'हां यार, अब वो मस्तीभरे दिन कहां?' प्रखर ने कहा- 'आज शाम को मिल सकते हो? कहीं बाहर पुरानी यादें ताजा करेंगे।'
प्रकाश उत्साह से बोला- 'हां-हां मैं भी काम-काम और काम से थक गया हूं। तो शाम को मिलते हैं शहर के बाहर एक अच्छा रिसॉर्ट है। वहां मैं फोन कर देता हूं, सब इंतजाम हो जाएगा', कहते-कहते न चाहते हुए भी उसकी आवाज में दंभ उभर ही आया।
'ठीक है'- कहकर प्रखर ने फोन रख दिया।
प्रकाश सोचने लगा कि प्रखर को पढ़ाई के बाद किसी सॉफ्टवेयर कंपनी में जॉब मिला था और वो मुंबई चला गया था। इसके बाद उनका संपर्क नहीं रहा। प्रकाश ने कोशिश भी नहीं की जानने की।
इधर प्रखर मुंबई में जॉब करते हुए एक ही साल में अपनी मेहनत के बल पर विदेश जाने का मौका पा गया था, दो साल बाद विदेश से लौटा तो सोचा कि प्रकाश से मिल लिया जाए।
शाम को दोनों ही बड़े उत्साह से एक-दूसरे से मिलने पहुंचे। एक-दूसरे को देखते ही गले मिले और फिर दौर शुरू हुआ शिकवे-शिकायतों का, पुरानी बातें-किस्से निकल पड़े।
प्रकाश ने देखा कि प्रखर अब भी चुस्त है, वहीं सरकारी नौकरी की आरामतलबी ने प्रकाश पर चर्बी की परत चढ़ा दी थी।
प्रकाश, प्रखर के अभिजात्य तौर-तरीकों से भी प्रभावित था। सभ्य तो वह पहले भी था, पर विदेशी और अत्यधिक पढ़े-लिखे लोगों की संगत ने उसके व्यक्तित्व में अनोखा आकर्षण पैदा कर दिया था। ऊपर से अंग्रेजी का प्रभाव।
खैर, प्रकाश ने बड़ी शान से पुछा- 'क्या लोगे कुछ चिकन-मटन और वाइन में कौन-सा ब्रांड पसंद करते हो।'
प्रखर ने आश्चर्य से पुछा- 'प्रकाश, तुझे तो पता है कि मैं शाकाहारी हूं और शराब तो मैंने कभी छुई ही नहीं।'
प्रकाश ने व्यंग्य से कहा- 'अब मुझसे झूठ मत बोल प्रखर, विदेश में इतने साल रहने पर भी तूने शराब चखी भी नहीं होगी और हिन्दुस्तान में तुम्हारी जाति के लोगों ने सब नियम-धरम छोड़ के सब कुछ करना शुरू कर दिया है।'
प्रखर ने अर्थपूर्ण दृष्टि से मुस्कुराकर देखा कि यहां जाति की बात कहां से आई। वह कुछ नहीं बोला। उसकी चूप्पी ने प्रकाश को और भी आहत कर दिया।
मन ही मन सोचने लगा- 'ऊंची नौकरी, विदेश की यात्रा इनका क्या है? सब कुछ अच्छा ही अच्छा है।' पर अंदर से आवाज आई- 'बहूत कम प्रयास के ऊंची नौकरी तो मुझे मिली है, सारे लाभ और सुविधाएं तो मुझे ही प्राप्त हैं। फिर भी मैं असंतुष्ट क्यों हूं? प्रखर को तो बड़ी मेहनत और संघर्ष के बाद यह प्राइवेट नौकरी मिली है फिर भी वह संतुष्ट है।' सोचते-सोचते उसका सांवला चेहरा और भी म्लान हो गया।
तभी प्रखर का कोई दोस्त उधर से गुजरा जिसे देख प्रखर ने जोर से आवाज लगाई- 'प्रांजल, अरे प्रांजल, देख प्रकाश प्रांजल शर्मा ही है ना?' प्रकाश ने भी देखा। हां-हां उनके कॉलेज का दोस्त प्रांजल ही तो था।
प्रांजल आवाज सुनकर मुड़ा और प्रखर को देखकर दौड़कर उसके गले लग गया- 'कब आया बाहर से, सुना बहूत तरक्की कर ली है।'
प्रखर ने कहा- 'अरे देख, प्रकाश भी है'।
'अरे प्रकाश कैसे हो', कहकर उसने हाथ आगे कर दिया।
प्रकाश ने बेमन से हाथ मिलाया, वह प्रांजल को खास पसंद नहीं करता था।
प्रखर ने कहा- 'प्रकाश तो डिप्टी कलेक्टर है भाई।' प्रखर ने यह बात बड़े सहज भाव से कही थी, पर पता नहीं क्यों प्रकाश को यह व्यंग्य लगी।
जैसे ही प्रांजल ने सुना एक अजीब-सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर आ गई। प्रकाश उस मुस्कान की कड़वाहट से अंदर तक झुलस गया। कुछ देर बाद प्रांजल दोनों से विदा ले चला गया। दोनों ने साथ खाना खत्म कर अपनी-अपनी राह पकड़ी। वैसे भी प्रकाश का मन वहां लग भी नहीं रहा था। एक अजीब-सी बेचैनी ने उसे घेर लिया था।
घर जाते-जाते भी प्रांजल की तिर्यक मुस्कान उसे बिंंधती रही। कॉलेज के दिनों में भी वह उसे बैठे-बैठे मिलने वाली सुविधाओं के लिए चिढ़ाया करता था। हालांकि किसी ने उससे कुछ नहीं कहा था, पर उसे ऐसा क्यों लग रहा था कि कोई उसे और उसकी उपलब्धि को गंभीरता से नहीं ले रहा था। आज उसे बरसों पहले पंडित द्वारा फेंकी गई थाली याद आ रही थी। उसे तो उसने 'खैरात' कहकर लेने से इंकार कर दिया था।
पर आज पता नहीं क्यों उसे अपनी ये नौकरी भी खैरात नजर आ रही थी। उसका मन उसे बार-बार कह रहा था कि- 'जब दो पीढ़ियों से उसके पिता और दादाजी ने आरक्षण का लाभ ले लिया था, तब क्यों नहीं वह उसको मिलने वाली सुविधाओंरूपी खैरात को यह कहकर नकार पाया कि मेरा परिवार आर्थिक रूप से संपन्न हो गया है, किसी जरूरतमंद को इस सुविधा का लाभ दे दिया जाए ताकि एक और प्रकाश आगे बढ़ सके?'
'क्यों नहीं वह खुद अपने प्रयासों पर भरोसा कर पाया और अपने दम पर संघर्ष कर यह नौकरी पा सका? क्यों उसने बैसाखियों का सहारा ले अपनी क्षमताओं का खत्म हो जाना मंजूर किया?'
'ये बैसाखियां नहीं होतीं तो शायद बदलाव देर से होता समाज में, पर मेहनत और संघर्ष कर के बराबरी से मुकाबला कर जब कुछ मिलता हमें, तो स्वाभिमान से सर उठाकर खड़े रह सकते थे। हम मेहनतकश लोगों से हमारा परिश्रमी चरित्र ही छीन लिया गया। ओह! यह भी तो एक तरह का षड्यंत्र ही है, बिना मेहनत के किसी को सब कुछ दे देना और हर बार उस खैरात को याद दिला-दिलाकर उन्हें हीन बनाए रखना भी तो शोषण ही है।'
मखमल में लपेटकर मारी गई जूती की चोट हर बार प्रकाश महसूस करता, जब कोई उसका सरनेम सुन व्यंग्य से मुस्कुरा उठता। 'पहले हवा, पानी, मिटटी तक पर अधिकार नहीं था हमारा और अब हर चीज का अधिकार हमें दे दिया गया, लेकिन सम्मान, वो... वो... न तब था, न अब है। मिटाना ही था तो इंसान-इंसान के बीच का भेदभाव मिटाते, पर यहां तो खाई और भी गहरी होती जा रही है।'
उसका मन हुआ कि वह चीख-चीखकर इस देश के नीति-निर्धारकों से कहे कि- 'बंद करो, बंद करो ये खैरात बांटना, बंद करो किसी एक समाज को जाति के नाम पर, सुविधाओं के नाम पर दिया जाने वाला दान, जो उसकी आत्मा तक को गुलाम बना डाले, उसका स्वाभिमान, सम्मान छीन ले और वो कभी इस खैरात के बोझ से उबर ही न पाए। बंद करो, बंद करो...!'