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Written By WD

मार्मिक कहानी : धुंधले पलों की धूल

मार्मिक कहानी : धुंधले पलों की धूल - Story
रामजी मिश्र 'मित्र'
एक बड़ी विस्तृत जगह। दूर तक रेल की पटरियां बिछी दिखाई दे रही थीं। मैदान सी जगह कुछ सुनसान लग रही थी। हालांकि हवा की सरसराहट और उठती धूल बार-बार अपनी मौजूदगी का अजीब अहसास करा रही थी। गर्मी चरम पर थी। सूरज की किरणें और तेज होती जा रही थीं। किसी भी शरीर से तेज किरणें रक्त को पसीना बनाकर खींचने की ताकत अख्तियार कर चुकी थी। ऐसे में वह शरीर असहाय होने की अकथनीय दुहाई दे रहा था। किरणें बिना रहम रक्त पीती जा रही थीं। बीच-बीच में हवा के झोंके किरणों में उलझकर सूरज की तपिश से उसे राहत देने का प्रयास कर रहे थे। 
 
अरे यह क्या, उड़ती धूल से निकलता दूर से कोई आ रहा है। वह पथिक उस निष्प्राण से शरीर की ओर बढ़ रहा था। कौन है वह पथिक ? एक थके, असहाय और घोर निराशा को ढोते उस शरीर की आंखे कौतूहल से देखने लगीं। अरे यह तो मेरे प्रियतम सा जान पड़ता है। थोड़ा और नजदीक आने पर कुछ स्पष्ट होगा। हां यह तो प्रियतम ही लग रहे हैं। बोझिल और थका शरीर उठकर बैठ गया। कहां-कहां नहीं खोजा था प्रियतम को और वह मिले भी तो एक यात्रा पथ पर। पथिक उस शरीर के नजदीक आ चुका था। आहा क्या आनंद की अनुभूति हो रही है दर्शन भर से। संदेह मिट चुके थे। वह मेरा प्रियतम ही है शरीर बोल उठा। आज बरसों बाद वह खोया प्रेमी आखिर मिल ही गया। अरे मैं यहां हूं अब तुम मुझे बिना देखे कैसे जा सकते हो? उस दिन तुम चेतनाशून्य थे पर आज ऐसा कैसे कर सकते हो? पथिक ने दुखी शरीर को निहारा। वह अचंभित होकर ठहर गया। उस शरीर में तेज गर्मी से उर्जा क्षय होने के बावजूद एक नई शक्ति का प्राकट्य हो चुका था। 
 
पथिक भी अपनी प्रेमिका को पहचान चुका था। वह बोली प्रियतम आओ मेरे पास आओ कहां थे अब तक? उस दिन भीड़ में मेरे लाख पुकारने पर भी क्यों नही बोले थे? पथिक निरूत्तर था। ऐसा जान पड़ता था कि प्रेमिका जिस दिन की बात कर रही थी उस दिन वह विवश था। आज उसने प्रेमिका की ओर बढ़ते हुए कहा "हां आता हूं, मैं भी थक चुका हूं चलते-चलते।" पसीने से तरबतर वह एक दूसरे के गले लग गए। शरीर पर अब गर्म हवा के झोंके लगते तो पसीने की बूंदें ठंढा और अच्छा अहसास कराने लगीं।" तुम थके हो न" यह कहकर प्रेमिका ने प्रेमी का शीष अपनी गोद में कर लिया। वह उसके बालों को मुट्ठी भींच-भींच कर सहलाने लगी। इस बार उसने पूरे हाथ की गदेली खोल दी। उंगलियां फैल कर प्रेमी के बालों को भुट्ठी में भरने को आतुर हो गईं। उसने प्रेमी के शीष में नाखून गड़ा दिए। अंगुलियां और बाल आपस में लिपट से गए। अब नाखून गड़ाते हुए उसने बालों को मुट्ठी की कैद में लेना शुरू कर दिया। पूरी हथेली अंगुलियों के सहारे बंद हो चुकी थी, प्रेमी भी शायद आनंद की अनुभूति कर रहा था। कितने मुलायम बाल मैंने अपनी मुट्ठी में भर लिए हैं। 
 
अचानक प्रेमिका के सर पर कुछ टकराया। वह क्रोध से बौखलाकर एकदम से उठ खड़ी हुई। कुछ बच्चे पागल-पागल कहकर उस पर पत्थर फेंक रहे थे। एक पत्थर लगने की वजह से उसका माथा फूट चुका था। उसने अपनी मुट्ठी खोली तो उसमें धूल भरी थी। दोपहर ढल चुकी थी। शाम का समय नजदीक आ रहा था। अब सबके लिए बाहर निकलकर घूमने वाला माहौल लगभग बन चुका था। मौसम अच्छा होता जा रहा था। वह अब तक गदेली पर रखी उस मुट्ठी भर धूल को देखकर प्रेमी के बालों का अहसास कर रही थी। अचानक एक मस्त हवा का झोंका फिर आया चारों तरफ से धूल फिर उड़ी, वह झोंका उसके शरीर से टकराया। हथेली पर रखी धूल जिसे वह घूर रही थी एक दम से धूल के गुबार में उड़कर जा मिली। वह दूसरे हाथ को सामने उठाकर बोली अरे रूको। हर तरफ से धूल भरी हवा चल रही थी। वह फटे पुराने कपड़े पहने उसमें प्रेमी को ढूंढ़ने थकी-थकी चलने लगी। वह उस मंजिल के रास्ते तलाशने निकल चुकी थी जहां फिर प्रेमी से मिला जा सके। उसके पीछे बच्चे दौड़ रहे थे, पत्थर मार रहे थे। लेकिन वह बेपरवाह थी अपनी मंजिल की खातिर। वह उन यादगार चंद पलों की निधि पाने के लिए अपनी यात्रा में फिर से उस प्रेमी यात्री को ढूंढ रही थी।
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