ललिता मौसी ने बताया कि पन्ना बा मर गया। सुन कर बीती हुई कई बातों की पोटली खुल गई। पन्ना बा कौन था? यह उस समय जब मैं आठ साल की थी, नहीं जानती थी। जब वह अपना भारी भरकम शरीर और उससे भी भारी अपनी आवाज में ताली बजा बजा कर- “आय हाय गोटी की मम्मी, होली का शगुन दे दो, तेरी बेटी राजरानी बनेगी, तेरा बेटा बड़ा आदमी बनेगा, तू भी नाती पोतों के साथ सुख के झूले झूलेगी”। सच कहूं तो तब मैं डर कर अपने किचन में जा छुपती थी। उसकी अजीब सी वेशभूषा, मर्दानी आवाज और जनाना पहनावा, कुतूहल का कारण था हम बच्चों के लिए।
पान से रंगे होंठ और किनारों से निकलती पिक, मेहंदी से रंगे कहीं सफेद, कहीं काले, कहीं लाल बाल बेतरबीत और कभी संवारे हुए। हर त्यौहार, शिशु जन्म पर अपनी टोली के साथ नगर भर में घुमती/घूमता पैसे इकट्ठे कर अपने दो खोली के घर में चला जाता।
मैंने एक बार मां से पूछा था - “मम्मी यह पन्ना बा अजीब है ना, बहुरूपिये की तरह। जब आदमी है तो औरतों वाले कपड़े पहन कर क्यों घूमता है”। मां ने डपट दिया था -“खबरदार, किसी और से कभी यह प्रश्न मत पूछ बैठना”।
मेरे नन्हें मन को कोई उत्तर नहीं मिला और जिज्ञासा जस की तस, अब क्या करूं ? बाल मन जिस बात के लिए, जितना मना किया जाए उस तरफ उतना ही भागा। अपनी कुछ समझदार सहेलियां जिन्हें मैं समझदार समझती थी, क्योंकि वे थोड़ा व्यवहारिक ज्ञान भी रखती थीं। और मैं, मैंने तो अपने आप को कईं बातों में नीरा मुर्ख ही पाया। मैं भली और मेरी किताबे भली, सो उनसे पूछा - “ऐसा क्यों?” वे बड़ी ज्ञानी सहेलियां मुझे बोली- “वह किन्नर है”।
मैंने सोचा कि –“लो अब नई मुसीबत यह किन्नर क्या होता है?” लेकिन पूछती तो मुर्ख साबित हो ही जाती उनके सामने, तो अपनी इज्जत बचाने और यह बताने के लिए कि थोड़ा बहुत ज्ञान मुझे भी है, बड़ा सा मुंह खोल कर बोली “अच्छा .....।” वे मुझसे भी बड़ा मुंह खोल कर बोली –“हां ......”
आज सोचती हूं तो हंसी आती है कि उस समय मेरी परम ज्ञानी सखियों को भी नहीं पता था किन्नर का मतलब, पर सब अपने ज्ञान के रोब को जताने के लिए बड़े विश्वास से सिर्फ “किन्नर है” कहकर आगे बढ़ गई थीं। मुझे कईं प्रश्नों में उलझा कर और मैं, जैसी कि आदत है पीछे पड़ने की, जब तक उत्तर न मिल जाए, उस समय गूगल बाबा तो थे नहीं, और न ही किताबें इतनी सुलभ और किसी बड़े से कुछ पूछने पर डांट पड़ने का डर। बच्चों के प्रश्नों के कोई कभी सही जवाब देता कहां है, और वे खुद ही अपनी जिज्ञासा का समाधान उलटे सीधे तरीकों से करने लगते हैं।
मेरी जिज्ञासा भी बढ़ती जा रही थी, लेकिन कोई हल नहीं मिला। मेरी सयानी सहेलियों को तो मैं आजमा चुकी थी, लेकिन फिर वह बात दिमाग से उतर गई। खैर, पन्ना बा का घर रंगरेज गली में था और उस गली के सामने से होकर ही नदी का रास्ता था। जब हम छोटे थे तब नदी जिंदा थी और उसका कल कल बहता पानी हमें आमंत्रित करता था। छोटे से कस्बे में हर घर में नल नहीं थे। पानी की टंकियां और कुंए ही सहारा थे। हमारे यहां तो कावड़ वाले भइया आते थे कावड़ डालने, और थोड़ा बहुत पानी हम खेल खेल में टंकी से भर लाते। आज सोचती हूं तो आश्चर्य होता है कि कितने कम पानी में गुजारा हो जाता था हम लोगों का। और आज इतना होने पर भी कमी लगती है। कम पैसों में भी खुश थे हम। और आज सब होते हुए भी चित्त बैचैन। खैर, आंटीजी, मम्मी और हम बच्चों की टोली, बड़ा लाला ,छोटा लाला, (गुड्डू) मेरा भाई, और मैं अक्सर कपड़े धोने और नहाने नदी पर जाते। उस दिन शायद ईद थी।
मम्मी ने आवाज लगाई – “चलो आज नदी पर जाना है”
मैंने कहा “अरे वाह मैं अभी पढ़ाई पूरी कर लेती हूं” “आंटीजी भी चल रहीं है क्या ?”
“हां, हमेशा साथ ही तो जाते हैं ” मां ने जवाब दिया।
पढ़ाई पूरी कर हम सभी नदी की और चल दिए। कपड़े धो कर, नहा कर हम वापस आ रहे थे कि रास्ते में मेरी एक मुस्लिम सहेली का घर पन्ना बा के घर के पास ही था। मीठी ईद थी, तो उसकी मम्मी ने हमें आवाज दी, “हम सब ने सोचा चलो आज तो दावत हो जाए”। उसके आंगन में एक जाम का पेड़ भी था। सब बच्चे पत्थर मार मार कर जाम तोड़ने लगे, पन्ना बा तब अपने घर के आंगन में बने बाथरूम में लघुशंका के लिए जा रहा था, कि एक पत्थर उसकी पकौड़ी जैसी नाक पर जा लगा, दर्द से बिलबिलाता अपनी भयानक आवाज में वह हम बच्चों की तरफ दौड़ा। सारे बच्चे सर पर पैर रख कर भागे। हम आगे आगे और पन्ना बा अपना अस्सी कलि का घागरा संभाले तालियां बजाते, गालियां सन्नाते हमारे पीछे।
हम तीन थोड़े बड़े थे, तो तेजी से भाग रहे थे, लेकिन मेरा भाई जो सबसे छोटा था पीछे रह गया। मैंने थोड़ा रुक कर उसे भी मेरे साथ तेजी से दौड़ाया कि कहीं आज पकड़ में आ गए तो बेटा खैर नहीं, यह अपने चौड़े थाली जैसे हाथ का एक रेपटा दे हमारे दिमाग की नसों को झन्ना देगा। गिरते पड़ते, जैसे-तैसे घर पहुंचे गुड्डू रोने लगा था पर दौड़ रहा था। दौड़ते-दौड़ते ही मैंने अपने मोहल्ले वालों को पूरी बात बता दी – “बचाओ वह पन्ना बा आ रहा है हमें मारने, जल्दी से कहीं छूपा लो”, अश्विन भइया जो साइकल से कहीं जा रहे थे, गुड्डू को बैठा कर फुर्र हो गए। मेरी जान में जान आई | भागते-भागते दोनों लाला हमारे घर के गलियारे में रखी दो कोठियों में कूद गए और मैं अपने चिर-परिचित किचन स्टैंड के नीचे।
मां-पापा कुछ समझ पाते इससे पहले ही, हांफता हुआ पन्ना बा हमारे घर की ड्योडी पर खडा था। उसकी छाती धौंकनी-सी चल रही थी, पर फिर भी ताली ठोक-ठोक कर –“गोटी कहां है, कहां है गोटी बुलाओ, मेरी नाक फोड़ दी दुबेजी तुम्हारी छोरी ने”। वह किसी और का नाम नहीं ले रहा था। उस दिन मुझे पता चला कि फेमस होना भी बड़ी मुसीबत है, मेरी तथाकथित ख्याति ने मुझे बड़ी मुसीबत में डाल दिया था।
पापा ने जैसे तैसे समझाया तो बोला –“आया हूं तो कुछ ले कर जाऊंगा, किन्नर की नाक की कीमत चुकाओ बाउजी”। पापा ने पैसे दे कर किसकी नाक की कीमत चुकाई पता नहीं, लेकिन उस दिन के बाद से मेरे जीवन की कईं मनोरंजक घटनाओं में यह घटना भी जुड़ गई। मेरे साथ कुछ हालत ऐसे हो जाते हैं जो मेरे साथ साथ औरों को भी याद रहते हैं ताउम्र। मोहल्ले वालों ने बहुत दिनों तक चिढ़ाया इस घटना के लिए। टारगेट मैं ही, क्योंकि सबसे मस्तीखोर मैं ही तो कुछ ना भी करुं तो भी ठीकरा अपने ही सर फूटता। फिर सोचती फेमस होने की कीमत तो चुकानी ही पड़ती है...हा हा हा।
खैर, फिर तो समय गुजरता गया। शायद कई साल, मैं भी भूल गई और वह तो भूल ही गया होगा। छोटा सा कस्बा उसकी सबसे बोल चाल और जान पहचान, कोई घर ऐसा नहीं जहां वह नाम ले ले कर सबसे बात न करता हो। कई सालों बाद जब उसे पता चला कि मैं कॉलेज में पढ़ाती हूं, तो एक दिन सामने से आते हुए बड़े अदब से उसने मुझे नमस्ते किया था और मेरे पढ़े लिखे रूप से वह थोड़ा भयभीत भी हुआ, ऐसा मुझे लगा।
अथर्व को लेकर पहली बार जब मायके आई, तो एक दिन अचानक पन्ना बा सामने मिल गया- अपने चिर परिचित अंदाज में ताली ठोक बोला – “आय हाय गोटी रानी, इत्ती बड़ी हो गई, भेनजी शादी में भी नहीं बुलाया, बाहर जा कर शादी कर दी, इसकी शादी में दो चार बन्ने बन्नी गा देते, शगुन हो जाता। नई मांगते नेग, बुला तो लेती। अब मां बन गई है तो जरूर नेग लूंगी और गीत भी गाऊंगी। फिर अचानक पता नहीं क्या हुआ जो अपने अस्सी कलि के घागरे के जेब से दस का एक नोट निकाल कर अथर्व के हाथ में रख बोला – “जीते रहो लल्ला, खूब नाम रोशन करो”, कहते-कहते उसकी आंखों में आंसू आ गए।
मैं और मां कुछ कहते, उससे पहले वह पल्ले से अपनी आंख पोछता चला गया। पहली बार किसी किन्नर को किसी को पैसे देते देखा। मां ने घर आकर साड़ी सेट मिठाई और कुछ रुपए रख कर उसके घर भिजवा दिए, लेकिन हम बड़े दुखी हो गए थे। इधर फेसबुक पर किन्नर की मौत पर उसकी लाश की जूतों से पिटाई की खबर पढ़ ही रही थी कि पता चला पन्ना बा मर गया।
सोच कर ही रोंगटे खड़े हो गए कि उसकी लाश के साथ भी यही सब हुआ होगा। कैसा जीवन प्रभु, कितनी यातना, अपने ही शरीर से घिन की हद तक बेगाना पन। कैसे किसी इंसान का मन स्वीकारे मरदाना आवाज, लेकिन कपड़े और श्रृंगार करने का मन औरतों की तरह, दाड़ी मुछों का उगना पुरुष की तरह और शरीर का विकास स्त्री की तरह। कोई काम पर रखे नहीं, कोई माता पिता इस अभिशाप को साथ रखने को राजी नहीं, कोई नौकरी नहीं, कोई पढ़ाई नहीं, बेचारा मनुष्य जिए भी तो कैसे ? कैसे देह से परे हो, फिर भी जीता है एक किन्नर, देह का भान है भी और नहीं भी हो तो भी क्या ? सारी लाज शर्म सब त्याग, कितने साहस के साथ निकलता है शगुन गाने, पैसा मांगने, अश्लील हरकतों, व्यंग्यबाण, द्विअर्थी मुस्कानों और दुत्कारों को सहन करता हुआ भी अपनी जिजीविषा को जिंदा रखे हुए।
एक इंसान ही तो है, अगर यह वरदान कि “किन्नर की दुआ की कोई होड़ नहीं और उसकी बद्दुआ का कोई तोड़ नहीं।” उनके साथ नहीं होता तो प्रकृति के इस अभिशाप को झेलता यह वर्ग किस तरह जिंदा रहता। पन्ना बा भी अपने इसी वरदान का सहारा ले सब्जी वाले से सब्जी, किराने से किराना और सारी जरूरत की चीजें इकट्ठी कर लेता था। क्या करता, शायद समाज के निर्माण काल में किसी संवेदनशील व्यक्ति ने ही उनके जीवन यापन की यह व्यवस्था कर दी होगी, क्योंकि इंसान किसी से डरे न डरे दुआ और बद्दुआ का डर हर युग में हर ज्ञान पर भारी है। पर अब तो बड़ी-बड़ी गैंग बन गई, लखपति करोड़पति किन्नर भी हैं, लेकिन समाज की नजरों में हिकारत तो कम नहीं हुई। वह दर्द तो वे भी झेलते ही हैं।
वह मर गया, मेरा मन दुःख और क्रोध से जल रहा था। मृत्यू स्वाभाविक दुःख देती है और क्रोध इसलिए कि मैं भी चाहती थी कि उसकी लाश पर जूते बरसा कर मैं भी उसे इस किन्नर के जन्म पर धिक्कारूं। और शायद वह मेरे जूतों की बौछार से डर कर अगले जनम में किन्नर के रूप में पैदा होने की हिमाकत ना करे।