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Written By WD

कहानी : सत्रहवां संस्कार

नियति सप्रे

Hindi Story | कहानी : सत्रहवां संस्कार
अचानक एक दिन एक विचित्र सा निमंत्रण पाकर मैं आश्चर्यचकित रह गई। निमंत्रण बहुत सलीके से छपा था। कुछ इस प्रकार-

विस्थापन - संस्कार

।। श्री वादविवाद देवता प्रसन्न: ।।

कलह देवी की कृपा के सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि हमारी दादी को उनके दोनों लायक बेटे व उनकी पत्नियां वृद्धाश्रम में विस्थापित कर रहे हैं। उसी विस्थापन संस्कार का यह निमंत्रण है। आपके आगमन से हमारा गौरव बढ़ेगा और आपको प्रेरणा मिलेगी।

विस्थापन पूजा मुहूर्त- संध्याकाल

दादीजी का प्रस्थान- शाम 5 बजकर 20 मिनट पर

कृपया समय का ध्यान रखें।

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मुझे लग रहा था कि महंगाई, भ्रष्टाचार, बलात्कार, लूटपाट, डकैती, आबादी सब कुछ तो बढ़ रहा है, फिर संस्कार ही पीछे क्यों रहें। मानव को संस्कारित करने वाले संस्कार सालों से सोलह के सोलह, लेकिन आज विस्थापन संस्कार के रूप में सत्रहवें संस्कार की उत्पत्ति ने मुझे चिंता मुक्त कर दिया। मैं इस गौरवमय आयोजन में नियत समय पर पहुंच गई। छोटे से शामियाने में बैनर लगा था। सत्रहवां- संस्कार विस्थापन रस्म।

वहीं एक कोने में 'मामेरा' लिखा था। एक व्हील चेयर, एक छड़ी, एक पीकदान, एक रामायण और एक-दो छोटी-छोटी डिबिया रखी थीं। शायद दांत और लेंसेज निकालकर रखने के लिए। इस नए संस्कार के बारे में जानने के लिए मैं बहुत उतावली थी। चारों तरफ देख रही थी कि एक महाशय पास आकर अपना परिचय देते हुए बोले- मैं इस आयोजन का इवेंट मैनेजर हूं।

मुझे इन गुब्बारों के बारे में बात करनी है। वे ऐसे अधमरे से क्यों हैं? इनमें फुल/ टाइट वायु क्यों नहीं भरी?

अरे मैडम, हम अकॅजन के अनुसार सजावट करते हैं। यही तो हमारा वैशिष्ट्‍य है। इस कौशल के लिए हमें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। आज की 'उत्सव मूर्ति' कैसी है? बस बैलून भी उनके जैसे ढीले-ढाले, पिचके हुए झुर्रियों वाले। अब ये केक देखिए। इस पर एक दयनीय चेहरा बनाया है। बीच में एक दरार भी है। छोटे बच्चों के जन्मदिन पर जैसे कार्टून वाले केक बनते हैं वैसे ही विस्थापन-रस्म में अलग-अलग डिजाइंस के केक बनते हैं। परसों हमने केक पर डूबते सूरज का चित्र बनाया था। आज हम कैटलॉग नहीं लाए हैं, वर्ना आपको दिखाते।


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आपको सत्रहवां संस्कार करने का आइडिया कैसे आया?

मेरे मित्र के कारण! उसकी बीवी और मां का छत्तीस का आंकड़ा था। एक दिन वह मां से बोला- यदि तुम्हें हमारे साथ रहना नहीं सुहाता हो तो वृद्धाश्रम चली जाओ।

मां बोली- चली जाऊंगी जरूर, पर तेरे बाप में हिम्मत थी। वह गाजे-बाजे के साथ, विधि-विधान से समाज के सामने मुझे इस घर में लाया था। तुझमें दम हो तो कर चार लोगों को इकट्ठा और भेज मुझे उनके सामने वृद्धाश्रम।

मित्र ऐसा करने से घबराया। पत्नी ने उसे धिक्कारा। तुम अपनी मां की इतनी छोटी सी इच्‍छा भी पूरी नहीं कर सकते। लानत है तुम्हें बेटा कहलाने पर। वह पत्नी के शब्दों से आहत होकर मेरे पास आया।

आपके पास क्यों?

क्योंकि उसे मालूम था कि मैं कई दिनों से ऐसे व्यवसाय की खोज में था जिसमें स्वार्थ, परमार्थ, धनार्जन तीनों हो। मैंने यह विस्थापन रस्म ‍करना शुरू कर दी और सच कहता हूं कि वृद्ध की वृद्धाश्रम में बिदाई के बाद यजमानों के चेहरे पर छाई गहरी शांति देख मेरा जीवन सफल हो जाता है। मेरी राय में इस कार्य से बढ़कर दूसरी कोई मानव सेवा नहीं है।

पर क्या आपको ऐसे आयोजनों के लिए ऑर्डर मिलते हैं?

ऑर्डर? ये देखिए डायरी अगले दो वर्षों तक बुक हूं। हम इंस्टेंट ऑर्डर भी लेते हैं, पर उसकी फीस डबल होती है।

इंस्टेंट मतलब?

इंस्टेंट का अर्थ है कि अभी के अभी एक घंटे में वृद्धाश्रम रवानगी करना हो तो।

वैसे विस्थापन रस्म के आपके चार्जेस क्या हैं?

अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग रेट हैं। इंसटेंट ऑर्डर का मैंने अभी आपको बताया ही। इसके अलावा बहुत सारे पैकेजेस हैं। एक हमारा 'जंबो स्पेशल पैकेज' है। इसमें हम पचास प्रतिशत कंसेशन देते हैं, पर इसकी एक शर्त है।

शादी के पहले ही यदि लड़का-लड़की तय कर लेते हैं कि मां-बाप को साथ नहीं रखेंगे तो उस दंपति को ही यह पैकेज मिलता है। शादी के एक साल बाद यदि सास-ससुर को घर से निष्कासित किया, मतलब विस्थापित किया तो अलग-अलग स्थिति के ऐसे भिन्न-भिन्न कंसेशनल रेट हैं। आपने एक बात मार्क की?

कौन-सी?


सिर्फ यही एक ऐसा आयोजन है जिसमें जूनियर सिटीजन को कंसेशन मिलता है। साल में हम एक 'खुशियों की टोकरी' नामक स्कीम भी निकालते हैं। नाम के मुताबिक खुशियों से लबालब।

मललब?

उसमें बहुत सारे कूपन्स होते हैं। एक कूपन में यह व्यवस्था है कि सास-ससुर को संभालने वाली ‍अविवाहित ननद की हम शादी ही नहीं होने देते।

वह कैसे? आश्चर्य से मैंने पूछा।

माफ करिए यह मैं नहीं बता सकता, मामला व्यावसायिक गोपनीयता का है। हमारी एक और स्कीम है। 'बज बारस' के दिन जो बेटा हमारी बुकिंग करता है, उसे हम फ्री में माइक्रोवेव देते हैं।

पर उस दिन को मां अपने बछड़े के लिए उपवास रखती है?

हां, पर मां को मालूम होना चाहिए कि उम्र होने पर बछड़े के सींग निकल आते हैं और सींग निकलने के बाद वह समझदार हो जाता है। मुझे मौन देखकर उसने अपना प्रवचन जारी रखा। एक खुशखबर और देना चाहता हूं। सरकार ने इसे 'राष्ट्रीय संस्कार' घोषित कर दिया है, क्योंकि इस संस्कार को लेकर कोई भेदभाव नहीं है। अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित, बुद्धिजीवी-बुद्धिहीन, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई... सभी लोगों में यह संस्कार स्वागतयोग्य है।

वाह, यह तो धर्मनिरपेक्षता का बहुत अच्‍छा उदाहरण है। यह रस्म राष्ट्रीय एकता की मिसाल कायम करेगी। सामूहिक विवाह की तर्ज पर सामूहिक विस्थापन रस्म भी कर सकेंगे।

पैकेज में आप क्या-क्या करते हैं?


हमारा 'होम टू वृद्धाश्रम' पूरा पैकेज रहता है। व‍िधि-विधान, पूजा सामग्री, पंडितजी, शहनाई, खाना, सजावट, निमंत्रण पत्र, वृद्धाश्रम में बिदाई के लिए कार आदि। इसके अलावा यदि यजमान ने अतिरिक्त कोई सुविधा चाही तो हम मुहैया कर देते हैं लेकिन उसका चार्ज अलग से लगता है। बस हमें दिक्कत आती है तो सिर्फ पंडितजी के डेट सेटिंग में। आपको आश्चर्य होगा कि पंडितजी को भी हमने ही ट्रेंड किया है।

वह कैसे?

ये नया संस्कार है। पोथी, पुराण, वेद कहीं भी इस संबंध में कुछ मैटर नहीं है। फिर मैंने ही पंडितजी को सुझाया कि ऐसा करो कि जनेऊ के वक्त जब लड़का रूठकर जाता है तब के थोड़े से मंत्र ले लो। कन्या मायके से विदा होती है तब के मंत्रों में से थोड़ा ले लो और मृत देह को अग्नि देते समय जो मंत्र पढ़े जाते हैं उनमें से भी थोड़ा-सा मैटर चुरा लो। मंत्रों का बढ़िया कॉकटेल बन जाएगा।

इस आयडिया के कॉकटेल और ऊपर बताई विधि में थोड़ा फरक है। जनेऊ के वक्त रूठे को मामा समझाकर वापस लाता है। ससुराल गई लड़की को भी दूसरे दिन मायके वापस लाने की रस्म है। मृत देह को अग्नि देने के बाद उस व्यक्ति की याद की जाती है, चाहे वह कैसा ही क्यों न हो!

लेकिन विस्थापन रस्म में इस प्रकार की कोई गुंजाइश नहीं रहती। एक बार व्यक्ति वृद्धाश्रम गया कि गया। पीछे मुड़कर देखने की न उसमें हिम्मत होती है और न घर वालों के पास ऐसी कोई सद्इच्छा! इसलिए यह महायात्रा से भी कठिन यात्रा है। इसके वाहक इसी भूमि पर वास करते हैं।

इस रस्म की पूजा-विधि कुछ अलग रहती है क्या?

यह पूजा मुख्य रूप से बहू ही करती है और बेटा उसके हाथ को केवल स्पर्श करता है। पुणे में जब हमने यह विधि की तो वहां स्त्री-मुक्ति संघ की महिलाएं भी उपस्थित थीं।

उन्होंने कहा- आखिर पुरुष-प्रधान समाज को अकल आ ही गई और नारी का महत्व समझकर पुरुष को उसके योग्य स्थान पर बिठा दिया गया। निश्चित ही हमें इस बात का अभिमान है। तीन मंत्रों में यह विधि पूरी हो जाती है।

पहले मंत्र का अर्थ पंडितजी ने बताया- बहू कहती है मैं अग्नि, सूर्य, चंद्रमा, तारे, समाज के लोग, रिश्तेदार सबकी साक्षी में सास को वृद्धाश्रम भेज रही हूं। जल छोड़कर आचमन लेती हैं।

दूसरे मंत्र का अर्थ है कि आज से वृद्धाश्रम के कर्मचारीगण ही तुम्हारे नातेदार, रिश्तेदार, दोस्त सब कुछ हैं। उनकी सुविधा-असु‍विधा के अनुसार तुम्हें रहना होगा। फिर आचमनी से पानी छोड़ती है।

तीसरे मंत्र के उच्चारण के पहले पंडितजी बहू के हाथ के नीचे सास का हाथ रखते हैं, उसके नीचे पति का हाथ रखते हैं और फिर संकल्प दिलवाते हैं। जिसका अर्थ है कि आज के बाद हम तुम्हारे कोई नहीं और तुम भी हमारी कोई नहीं। ना तुम पलटकर आना, ना हम आगे बढ़कर तुम्हारे पास आएंगे।

इस मंत्र के बाद आचमनी से पानी छोड़ने के बजाए पंडितजी पूरी कल्सी उल्टी कर देते हैं। वापस आने का एक भी चांस नहीं छोड़ते। फिर पंडितजी घोषणा करते हैं- 'अथ विस्थापन विधि संपूर्णम्।' बजाओ भई बजाओ, बजाते रहो। इस समय सब राहत की सांस लेते हैं। शहनाई बजने लगती है।

अच्‍छा एक बात बताइए। यदि किसी का बेटा न हो तो क्या दामाद को विस्थापन-रस्म का अधिकार रहता है क्या?


अधिकार? अरे अधिकार रहता है और इच्छा भी, पर हिम्मत नहीं रहती। परसों की बात बताता हूं। एक यजमान के यहां विस्थापन रस्म चल रही थी। पंडितजी को दोनों भाइयों ने दक्षिणा दी, पर बहन दक्षिणा देने को राजी नहीं थी।

क्यों?

उसका कहना था कि मेरे मां-बाप की विस्थापन रस्म नहीं होना चाहिए।

उसका कहना बिलकुल ठीक था। वह बुजुर्गों के प्रति संवेदनशील होगी।

हां, वह संवेदनशील है, पर स्वयं के मां-बाप के प्रति। आठ-दस दिन पहले उसने अपने ससुरजी की विस्थापन रस्म बहुत धूमधाम से की थी।

इस संस्कार को संपन्न करने में तो बड़ी राशि खर्च होती होगी। यह आशंका व्यक्त करने पर मैनेजर महोदय ने उबाचा- आपकी जिज्ञासा उचित है। सच तो यह है कि इतना खर्च करने की आवश्यकता ही नहीं है। हमारा देश भावना-प्रधान देश है। आपके पास भले ही पैसा न हो, पर वृद्धों के प्रति अनादर की भावना प्रबल होनी चाहिए।

आपका वृद्धों के प्रति 'अगाध प्रेम' और हमारी पूजा सामग्री बस बन गया विस्थापन रस्म का पूरा रसायन! वैसे आप घर के घर में सत्रहवां संस्कार संपन्न कर सकते हैं और मेरे ख्याल से लोग ऐसा चुपचाप करते भी हैं, बस बताते नहीं। बात अधूरी छोड़ उन्होंने कहा- मैडम आप थोड़ा उधर चली जाएंगी। हमें यहां बैठक व्यवस्था करनी है। अभी यहां हमारा 'भड़ास' प्रोग्राम होने वाला है।

मतलब?

हम लोग विस्थापन रस्म में आधे घंटे का 'भड़ास' प्रोग्राम करते हैं। इस प्रोग्राम में घर के लोगों को, विस्थापित होने वालों को, आमंत्रित व्यक्तियों को बोलने का अवसर प्रदान करते हैं। बिलकुल मुक्त संवाद करने की इजाजत रहती है।


बैठक व्यवस्था हो गई। सब आकर बैठ गए।

बड़े बेटे ने बोलना शुरू किया- नमस्कार, आज का यह शुभ दिन मेरी मां के अल्प और पत्नी के अपार ज्ञान की वजह से आया है। मेरी मां पुराने दकियानूसी विचारों की है। उसका दुराग्रह रहता है कि घर से बाहर जाने वाले हर सदस्य को बताना चाहिए कि वह कहां जा रहा है, क्यों जा रहा है, कब आएगा?

इसके विपरीत पत्नी समझाती है कि यह उसकी स्वतंत्रता, प्रायवेसी पर आक्रमण है।

दूसरी समस्या यह है कि मां सुबह से प्रश्न दागने शुरू कर देती है- कौन आया, किसका फोन है, कौन गया, कहां गया, क्या बात चल रही है, खाने में क्या बन रहा है, किसका कोरियर आया, फलाने की शादी कब है... ऐसे निरर्थक प्रश्न उसके पास होते हैं और पत्नी के पास जवाब देने का समय नहीं रहता।

पत्नी एकदम से भड़क जाती है। 'प्लीज स्टॉप ‍दिस गिव मी स्पेस।'

मैंने पहले ही बताया कि मेरी मां का ज्ञान सीमित है।

पत्नी के ऐसे वाक्य सुनकर मेरी मां मेरे पास आती है और पूछती है- क्यों रे बेटा, स्पेस का मतलब स्थान होता है ना?
अपना इतना बड़ा घर खाली पड़ा है फिर बहू बार-बार गिव मी स्पेस, गिव मी स्पेस क्यों बोलती है?

अब मैं मां को क्या बताऊं कि उसकी बहू जो स्पेस मांग रही है, वह स्पेस यह नहीं है, अमेरिका के नासा वाला स्पेस नहीं है। बहू के स्पेस का अर्थ एकदम अलग है।

सच पूछो तो मुझे भी नहीं मालूम, लेकिन आजकल कुछ शब्द आपके वार्तालाप में आने ही चाहिए, जैसे स्पेस, प्रायवेसी, टेंशन, माइंड ब्लोइंग, यौन-उत्पीड़न आदि। कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि जब तक मेरी शादी नहीं हुई थी मैं अपनी मां को आदर्श गृहिणी और व्यवहारकुशल महिला समझता था।

हमारे बीच मां-बेटे का अटूट ‍रिश्‍ता था। लेकिन मेरा शुभ विवाह हुआ और मुझे पत्नी ने बताया कि मेरी मां सिर्फ अज्ञानी ही नहीं है, उन्होंने मां होने का भी कर्तव्य नहीं निभाया है। इतनी गंभीर बात मेरी घरवाली को इतनी जल्दी समझ में आ गई, मैं धन्य हो गया।

ऐसी बुद्धिमान स्त्री के साथ मुझे जिंदगी गुजारनी है, सोचकर खुशी से पागल हो गया। फिर मैंने पत्नी को अपना गुरु मान लिया और उसी के मार्गदर्शन में विस्थापन रस्म करने का फैसला ले लिया।

अब मैं घर की सर्वेसर्वा से बोलने का अनुरोध करता हूं, इवेंट मैनेजर बोला।

नमस्कार! मैं अपनी समस्या आपको बतलाती हूं। मैं एक सोशल वर्कर हूं, लेकिन यह मेरी समस्या नहीं है। यह तो मेरा सौभाग्य है। मेरी प्रॉब्लम है मेरी सास और उनका बेतुका व्यवहार।

मैं एक सोशल वर्कर हूं इसलिए मुझे वृद्धाश्रम में फल वगैरह बांटने जाना पड़ता है। घर से जाते वक्त मैं घर के फलों को छुपाकर रख जाती हूं, पर मेरी सास उन्हें ढूंढकर खा जाती हैं। लौटकर आने पर मेरा फल खाने का मन होता है, तो फल गायब! आप ही बताओ गुस्सा आएगा कि नहीं?

ऐसे ही मैं अनाथालय में बच्चों को मिठाई, बिस्किट... बांटने जाती हूं। घर आकर देखो तो घर की रोटी, चिवड़ा, लड्डू सब खत्म। पूछो तो कहती हैं- बर्तन वाली बाई के बच्चे भूखे थे, उनको दे दिया। मना करो तो बहस करती हैं। तू भी तो अनाथालय में मिठाई बांटने के लिए जाती है...

पर इन्हें इतनी-सी बात ही समझ में नहीं आती कि वृद्धाश्रम में फल बांटने से, दवाई देने से, अनाथालय में मिठाई बांटने से समाज में नाम होता है, फोटो छपते हैं। यह बात मैं इन्हें कैसे समझाऊं! अब इनकी सेवा करने से, इन्हें फल खिलाने से क्या मेरा नाम होगा? फोटो छपेंगे? पद्मश्री मिलेगी? इतनी मामूली सी बातें इन्हें नहीं समझतीं।

और हां, मैं समाजसेवा में सक्रिय योगदान देना चाहती हूं इसलिए वृद्धाश्रम को मेरी तरफ से एक वृद्धा भेंट। इतनी महंगाई होते हुए भी धूमधाम से विस्थापन रस्म कर रही हूं। ये मेरे संस्कार हैं।

तभी देवर ने उठकर कहा- मुझे ज्यादा कुछ कहना नहीं है। मैं तो भैया-भाभी जो कहेंगे उसका सम्मान करूंगा, क्योंकि बड़े भाई का आदर करना विस्‍थापित होने वाली मेरी मां ने ही मुझे सिखाया है।

मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि भाभी को तो मेरी मां को समझने में कुछ वक्त लगा, पर मेरी पत्नी ने तो दो दिन में ही जान लिया कि मेरी मां की जगह कहां पर है। आज वह आ नहीं पाई, क्योंकि उसकी मां को 99 डिग्री बुखार है और उसका कहना है कि इतने बुखार में मां को अकेला नहीं छोड़ा जा सकता।

अब भाई साहब आप बोलिए- इवेंट मैनेजर ने सामने बैठे व्यक्ति से कहा।

वे कहने लगे- सत्रहवां संस्कार अटेंड करने का मेरा यह पहला ही मौका है। मुझे बहुत गर्व और आनंद हो रहा है। हमारे जैसे प्रबुद्ध लोग ही ऐसा क्रांतिकारी कदम उठा सकते हैं। केवल डिग्री लेकर कुछ भी हासिल नहीं होगा। जब तक हम हमारे ज्ञान को इस तरह से कार्यरूप में पर‍िणित नहीं करेंगे, तब तक समाज का विकास संभव नहीं होगा और ऐसे नयनाभिराम दृश्य भी दिखाई नहीं देंगे। मुझे ऐसे आयोजनों से देश का भविष्य सुनहरा और सुरक्षित दिखाई पड़ रहा है।

मुझे बहुत अफसोस है कि जब मैंने अपने अम्मा-बाबूजी को वृद्धाश्रम में भेजा था तब सत्रहवां संस्कार अस्तित्व में नहीं आया था। वे बेचारे बिना सत्रहवें संस्कार के ही चुपचाप वृद्धाश्रम चले गए। बोलते-बोलते उनका गला भर आया। पसीने के साथ अफसोस उनके चेहरे से चू रहा था।

अब मैं आज की उत्सव मूर्ति को आग्रह करूंगा कि वे अपना मन हल्का करके पक्षी की भांति उड़ते हुए विस्थापित हो जाएं। इवेंट मैनेजर ने कहा।


उत्सव मूर्ति ने कहना शुरू किया- सभी उपस्थित बच्चों को मेरा अंतिम आशीर्वाद।

मुझे बहुत खुशी हो रही है कि मेरे जीवन में यह शुभ दिन आया। बस अफसोस सिर्फ इस बात का है कि मेरे पति, बच्चों के प्रगतिशील कदम देखने के लिए जीवित नहीं हैं।

उनकी तीव्र इच्‍छा थी कि उनके बच्चे खूब पढ़ें। नई-नई कल्पना कर समाज की विद्रूपता दूर करें। रूढ़ियां तोड़ें। उन्हें समाज में परिवर्तन लाना चाहिए। आज उन्हीं के बच्चे सत्रहवां संस्कार के जनक बने हुए हैं और अफसोस कि वे ही होनहारों का यह 'क्रांतिकारी कदम' देखने के लिए जीवित नहीं हैं।

खैर! वृद्धाश्रम जाने के लिए जब मैंने अपना सामान बाहर रखा तो देखा एक छोटा सा सूटकेस! जरा से सूटकेस में मेरा पूरा विश्व! कुछ साल पहले तक तीन बेडरूम, हॉल, किचन, दो बाथरूम, तीन बच्चे, पति, सास, ससुर, नाते‍-रिश्तेदार, दूधवाला, पेपरवाला, कामवाली बाइयां... सबको साथ लेकर चलने वाली मैं!

कितनी बड़ी दुनिया थी मेरी, वह आज 22 इंची सूटकेस में कब और कैसे समा गई। मैं अपना सबकुछ कब देते गई, मुझे मालूम ही नहीं पड़ा, कहते हुए उनका गला रुंध गया। कुछ देर रुककर वे फिर से कहने लगीं।

मुझे लगता था कुछ रिश्ते आपस में इतनी मजबूती से बंधे होते हैं कि उन्हें कोई अलग नहीं कर सकता। लेकिन जीवन का रास्ता तय करते-करते यह एहसास हुआ कि चलते-चलते एक वक्त ऐसा भी आता है, जब हमेशा साथ रहने वाली अपनी छाया भी साथ छोड़ देती है।

दूसरी बात जो मैंने सोची, वह यह कि जो बच्चे सत्रहवां संस्कार कर रहे हैं, वे हमारे ही बच्चे हैं ना? हमने ही उनमें संस्कार डाले हैं ना? -------- आखिर उनको पालने-पोसने में हमसे कहां चूक हो गई? उनके साथ रहते हुए हम क्या गलती कर रहे थे? इन सब प्रश्नों के जवाब ढूंढने बहुत जरूरी हैं।

यदि जवाब नहीं मिलें तो सोलह संस्कार की तरह सत्रहवां संस्कार भी समाज में घुलमिल जाएगा। शादी के समय से ही सुनती आ रही थी कि बेटी जिस घर में तुम्हारी डोली जा रही है, वहीं से तुम अर्थी पर निकलना। मगर हमने कितनी प्रगति कर ली है। आज वही घर में चार कंधों पर नहीं, दो पैरों पर छोड़ रही हूं। कहते हुए उनकी आंखें भर आई और गला भर्रा गया। बड़ी मुश्किल से उन्होंने 'बच्चो सदा सुखी रहो' कहा और खामोश हो गईं।

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मो. 94250-82372

फोन 0731- 2560845