स्त्री पैदा नहीं होती, बना दी जाती है
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सिमोन द बोवुआर दुनिया की पहली नारीवादी चिंतक और विचारक, जिन्होंने स्त्रियों की समस्या को पहली बार इतिहास, विज्ञान और दर्शन के साथ समायोजित कर आर्थिक-सामाजिक संदर्भों में उसकी व्याख्या की। जिन्होंने अपने विचारों के अनुसार जीवन जीने का साहस भी दिखाया। सिमोन द बोवुआर की पुस्तक ‘द सेकेंड सेक्स’ आज भी विश्व भर की करोड़ों महिलाओं के लिए प्रकाश-स्तंभ की तरह है। 70 के दशक में एक जर्मन पत्रकार एलिस श्वाइत्जर ने सिमोन के कई लंबे-लंबे इंटरव्यू लिए, जो स्त्रियों की तत्कालीन दशा को संबोधित थे। हम उन साक्षात्कारों के कुछ चुनिंदा अंश समय-समय पर प्रकाशित करते रहेंगे। यहाँ प्रस्तुत है, ‘द सकेंड सेक्स’ के प्रकाशन के तीस वर्ष पूरे होने पर लिए गए एक इंटरव्यू के कुछ अंश: एलिस श्वाइत्जर : उस घटना को पाँच साल हो चुके हैं, जब आपने पहली बार अपने नारीवादी होने की घोषणा की। आप आधुनिक नारीवाद के लिए महान प्रेरणा-स्रोत थीं। लेकिन आप खुद आधुनिक स्त्री-आंदोलनों की शुरुआत से पहले स्वयं नारीवाद-विरोधी थीं। नारीवाद-विरोधी इस अर्थ में कि आपने स्वायत्त स्त्री-आंदोलन का विरोध किया और आपका विश्वास था कि समाजवादी क्रांति से स्त्री उत्पीड़न की समस्या स्वत: हल हो जाएगी। तब से लेकर आज तक काफी कुछ घटित हो चुका है। आप स्वयं महिला-आंदोलन में सक्रिय हैं, और औरतों के संघर्ष के प्रति जन-साधारण में जागरूकता पैदा हुई है। तथाकथित अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष ऐसे में किसी रोग का सूचक लगता है। आप इस बारे में क्या सौचती है?सिमोन द बोवुआर : हम नारीवादी इस संबंध में कई बार अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं। हम औरतों को मूर्ख बनाया गया है और अपमानित किया गया है। अगली बार अंतरराष्ट्रीय समुद्र वर्ष मनाया जाएगा, फिर अंतरराष्ट्रीय घोड़ा वर्ष, फिर कुत्ता वर्ष और फिर इसी तरह और भी.... पुरुष औरतों को वस्तु समझते हैं, जिनका कोई मूल्य नहीं है और जिन्हें मर्दों की इस दुनिया में बहुत गंभीरता से लेने और एक ‘वर्ष’ व ‘समारोह’ से ज्यादा तूल देने की कोई जरूरत नहीं है। और तब, जबकि हम पूरी मानव-जाति का आधा हिस्सा हैं। अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष मनाया जाना बहुत ही विकृत और भौंडा है। सभी वर्षों को अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष होना चाहिए, बल्कि यह कहा जाए कि अंतरराष्ट्रीय मानव वर्ष।
एलिस : फिर भी क्या एक व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि तमाम सारी चीजों के बावजूद अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष की कुछ तो उपयोगिता है? सिमोन : बेशक, वस्तुत: यह कहा जाना चाहिए कि घटिया-से-घटिया सुधारों की भी कुछ-न-कुछ उपयोगिता तो होती ही है, लेकिन वे उतने ही खतरनाक भी होते हैं। इसका सबसे बढि़या उदाहरण फ्रांस का नया गर्भपात कानून है। यह एक बहुत ही मामूली-सी उपलब्धि है, जो हमारे संघर्ष के कारण ही हासिल की जा सकी है। एम. जिसकारदेस्तैं ने यह कानून बनाया, इसलिए नहीं क्योंकि यह औरतों का हक है, बल्कि खुद को आधुनिक जताने के लिए अर्थात वे पुरुषों के वास्तविक विशेष अधिकारों और सुविधासंपन्न स्थिति पर चोट नहीं करते, बल्कि उन चीजों की सतहें खरोंचते हैं, जो समाज में वर्जना या निषेध के रूप में है। अत: एक अर्थ में यह सुधार किसी तरह के बुनियादी परिवर्तन को नहीं व्यक्त करता। यह चीजें पूँजीवादी और पितृसत्तात्मक दुनिया के एकदम अनुकूल है। (इसका सबसे बढि़या साक्ष्य यूएसए और जापान है, जहाँ पर गर्मपात की स्वतंत्रता है) लेकिन बावजूद इसके इस तरह के सुधारों को कम करके नहीं आँका जाना चाहिए।इससे औरतों की अनेक समस्याएँ आसान हुई है और यह एक शुरुआत भी है, जैसे कि गर्भनिरोधक गोलियाँ। लेकिन इन गोलियों की तरह, जो औरतों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाती हैं और जिसकी वजह से स्त्रियों के ऊपर ही गर्भधारण से बचने की सारी जिम्मेदारी ढोने का दबाव बढ़ जाता है, गर्भपात की स्वतंत्रता भी औरतों के लिए अंतत: प्रतिघातक साबित हो सकती है। एक पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था में स्त्रियों पर पुरुष की इच्छाओं के आक्रामक आरोपण की ही अपेक्षा की जा सकती है। पुरुष गर्भपात की स्वतंत्रता का इस्तेमाल स्त्रियों पर दबाव बनाने के लिए अपने पक्ष में एक अतिरिक्त साधन के रूप में करेंगे।एलिस : आप विभिन्न नारीवादी उपक्रमों और आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लेती रहीं है। आधुनिक युवा नारीवादियों के साथ आपके किस तरह के संबंध हैं?सिमोन : युवा नारीवादियों के साथ मेरे संबंध वैयक्तिक किस्म के हैं। ये संबंध किसी दल या समूह के कारण नहीं हैं। मैं उनके साथ विशेष योजनाओं पर काम करती हूँ। उदाहरण के लिए ले ताँ मोदेर्न में हम मिलकर रोजमर्रा के जीवन में घटित होने वाले लैंगिक विभेद पर एक नियमित कॉलम लिखते हैं। इसके अतिरिक्त मैं ‘लीग फॉर वीमेंस राइट्स’ की अध्यक्ष हूँ और हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए आश्रय-गृह बनाने के प्रयासों का समर्थन करती हूँ। अत: मैं बहुत रूढ़ अर्थो में लड़ाकू नारीवादी नहीं हूँ। आखिरकार अब मैं तीस साल की नहीं रही। मैं अड़सठ वर्षीय एक बुद्धिजीवी स्त्री हूँ, जिसका असली हथियार उसके शब्द हैं। लेकिन मैं स्त्री-आंदोलनों की गतिविधियों में बहुत जोशो-खरोश से हिस्सा लेती हूँ, और मैं उसकी प्रबंध समिति में भी शामिल हूँ।
घरेलू हिंसा, मारपीट और अन्य यंत्रणाओं की शिकार औरतों के लिए मुझे यह योजना मुझे काफी महत्वपूर्ण लगती है क्योंकि गर्भपात की समस्या की तरह घरेलू हिंसा की समस्या से भी लगभग हर औरत जूझ रही है। इस मामले में उसका सामाजिक वर्ग कोई मायने नहीं रखता। हिंसा की समस्या किसी वर्ग विशेष तक सीमित नहीं है। स्त्रियाँ उन पतियों के द्वारा भी, जो सम्मानित जज और मजिस्ट्रेट हैं, बुरी तरह पीटी जाती हैं, जितना कि उनके द्वारा, जो साधारण मजदूर हैं। अत: हमने “SOS Battered Woman” की स्थापना की है और हम ऐसे आवास-गृह बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जहाँ पर बुरी तरह से मारी-पीटी गई, इतनी कि कभी-कभार मौत के करीब पहुँच चुकी औरतों और उनके बच्चों को एक रात या कुछ हफ्तों के लिए स्थाई शरण दी जा सके।एलिस : ‘द सेकेंड सेक्स’ आज भी नारीवाद की बाइबल है। अकेले अमरीका में ही लाखों की संख्या में बिकने वाली यह पुस्तक मूलत: और विशुद्ध रूप से एक बौद्धिक और सैद्धांतिक पुस्तक है। सन् 1949 में जब यह पहली बार प्रकाशित हुई, तब लोगों की क्या प्रतिक्रिया थी?सिमोन : बहुत आक्रामक, बहुत-बहुत कटु - किताब के प्रति भी और मेरे प्रति भी। कामू, जो उस समय तक हमारा अच्छा दोस्त था, ने गरजकर कहा ‘आप फ्राँस के पुरुषों के लिए उपहास का पात्र बन गई हैं।’ कुछ प्रोफेसरों ने तो किताब अपने आफिसों के बाहर फेंक दी, क्योंकि उन्हें उसे पढ़ना गँवारा नहीं था।और जब मैं औरतों जैसी वेषभूषा धारण करके, जो कि आमतौर पर मेरी स्टाइल है, ला कूपोल के एक रेस्टोरेंट में गई तो लोगों ने मुझे घूरती निगाहों से देखा और कहा कि ओह ये तो वही है..... मैं तो सोचता था कि... तब तो ये जरूर दोनों ही होंगी, क्योंकि उस समय मेरी छवि साधारणत: एक समलैंगिक स्त्री की थी। एक औरत, जो इस तरह की बातें करने का साहस करे, जाहिर-सी बात है कि वह सामान्य नहीं हो सकती। एलिस : कुछ पुरुषों ने तो यहाँ तक कहा कि आपकी किताबें आपने नहीं सार्त्र ने लिखी है। और किसी भी स्थिति में, जहाँ तक पुरुष वर्चस्व वाले जनसमुदाय की मानसिकता का सवाल है, आपको हमेशा ही एक संबंधित व्यक्ति के रूप में देखा गया - सार्त्र की जीवनसंगिनी के रूप में। ‘द सेकेंड सेक्स’ में आपने उन औरतों की आलोचना की, जिनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है और जो पुरुषों के साथ अपने संबंधों के कारण जानी जाती हैं। यह बिलकुल कल्पनातीत था कि सार्त्र को ‘द बोवुआर के जीवनसाथी’ के रूप में वर्णित किया जाता।सिमोन : बिलकुल ठीक, खासकर फ्राँस में। यहाँ के पुरुषों के क्रोध की तो सीमा ही नहीं थी। इस देश की सीमाओं के बाहर स्थितियाँ जरूर कुछ बेहतर थीं क्योंकि एक विदेशी को बर्दाश्त करना अपेक्षाकृत आसान होता है। तब से लेकर अब तक एक लंबा समय गुजर चुका है और धमकियाँ और आशंकाएँ भी कम हो चुकी हैं।
एलिस : और घरेलू काम? उसका क्या होगा? क्या औरतों को पुरुषों की तुलना में अधिकाधिक घरेलू काम करने और बच्चे पालने की मजबूरी से इंकार कर देना चाहिए?सिमोन : हाँ, लेकिन इतना करना पर्याप्त नहीं होगा। हमें आगामी भविष्य के लिए इन कामों के नए-नए तरीके ईजाद करने होंगे। घरेलू काम सिर्फ औरतों के ही नहीं, बल्कि सबकी जिम्मेदारी हैं। सभी को मिल-जुलकर यह काम करना चाहिए। लेकिन इन सबसे भी पहले यह होना चाहिए कि घरेलू श्रम से जुड़ी अलगाव और एकाकीपन की परिस्थितियाँ खत्म हों। ऐसा न हो कि घरेलू काम में लगा व्यक्ति जीवन और विचारों से पूरी तरह कट जाए।चीन के कुछ हिस्से में स्पष्टत: जो हुआ, वो मुझे बहुत ही शानदार लगता है। जहाँ पर हर कोई स्त्री-पुरुष और बच्चे किसी निश्चित दिन इकट्ठे होते हैं और घरेलू कामों को एक सार्वजनिक क्रिया-कलाप की तरह करते हैं। इस काम में बहुत मजा आता है। अत: वे सब मिल-जुलकर कपड़े धोते हैं, साफ-सफाई करते या और भी काम करते हैं।कोई काम अपने आप में निम्न कोटि का नहीं होता। सभी कामों की उपयोगिता और उनका महत्व समान है। हीनतर वह परिस्थितियाँ हैं, वह सामाजिक समीकरण है, जिनमें कोई काम किया जा रहा है। खिड़कियाँ साफ करने में क्या बुराई है? यह काम उतना ही उपयोगी है, जितनी कि टाइपिंग। निम्न कोट की वह परिस्थितियाँ हैं, जिनमें कोई कोई व्यक्ति खिड़कियों की सफाई करने के लिए मजबूर होता है। श्रम के किसी भी स्वरूप में एकाकीपन, उबाऊपन, नीरसता और अनुत्पादकता बुरी है।
एलिस : स्त्री आंदोलन के कुछ सदस्य और दरअसल राजनीतिक पार्टियों से संबद्ध लोग, घरेलू श्रम के लिए वेतन की माँग कर रहे हैं।सिमोन : मैं इसके बिलकुल खिलाफ हूँ। एक छोटी अवधि में बहुत संभव है कि घरेलू पत्नियाँ, जिनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है, तंख्वाह पाकर खुश होंगी। लेकिन एक लंबे दौर में घरेलू कामों के लिए वेतन औरतों को यह मानने के लिए प्रेरित करेगा कि घरेलू पत्नी होना भी एक तरह का काम है और यह जिंदगी जीने का आसान तरीका हो सकता है। लेकिन यदि कोई औरत अपने मनुष्य होने के महत्व को चरितार्थ करना चाहती है तो उसे घरेलू सीमाओं के भीतर औरतों की निर्वासित-सी जिंदगी तथा स्त्री और पुरुष, व्यक्तिगत और सार्वजनिक के बीच अन्यायपूर्ण श्रम-विभाजन को अस्वीकार कर देना चाहिए। इसलिए मैं घरेलू कामों के लिए तंख्वाह दिए जाने के विरुद्ध हूँ।एलिस : कुछ महिलाओं का तर्क है कि घरेलू कामों के लिए वेतन की माँग से घरेलू कामों के महत्व के प्रति जागरूकता पैदा होगी।सिमोन : मैं सहमत हूँ। लेकिन मुझे नहीं लगता है कि यह जागरूकता पैदा करने का सही तरीका है। असल चीज तो है कि घरेलू श्रम की परिस्थितियों में बदलाव। वरना घरेलू कामों का महत्व तो बढ़ जाएगा, लेकिन उससे जुड़ी औरत के अलगाव और एकाकीपन की परिस्थितियाँ वैसी ही बनी रहेंगी। वह जीवन और ज्ञान के तमाम स्रोतों से कटकर घरेलू श्रम की चारदीवारी में ही कैद हो जाएगी, जिसका विरोध किया जाना मेरी समझ से बहुत जरूरी है। यह बहुत जरूरी है कि पुरुषों का निर्माण इस तरह से हो कि वे घरेलू कामों में हाथ बँटाए। यह काम सार्वजनिक रूप से होना चाहिए। ऐसे समुदाय और समूह संगठित किए जाने चाहिए, जहाँ पर सभी मिलजुलकर काम करें। कुछ आदिकालीन समाजों में ऐसा होता था, जहाँ एकल परिवार प्रथा नहीं थी।एलिस : सिमोन, आपने व्यक्तिगत स्तर पर तो इस समस्या का समाधान कर लिया। आपके कोई बच्चे नहीं हैं और आप और सार्त्र साथ-साथ नहीं रहते। दूसरे शब्दों में कहें तो आपने किसी परिवार या पुरुषों के लिए कभी कोई घरेलू काम नहीं किया। मातृत्व के संबंध में आपके विचारों पर अक्सर आघात होते रहते हैं, जितने पुरुषों के द्वारा, उतने ही महिलाओं के द्वारा भी। वे आप पर मातृत्व विरोधी होने का आरोप लगाते हैं।सिमोन : ओह, कतई नहीं। मैं मातृत्व विरोधी नहीं हूँ। मेरा कहना सिर्फ यह है कि आज की परिस्थितियों में मातृत्व एक भयानक कारा है। लेकिन मैं इसे एक मूल्य के रूप में प्रतिस्थापित नहीं कर रही हूँ। मैं माताओं के खिलाफ नहीं हूँ, बल्कि उस विचारधारा के खिलाफ हूँ, उस आचार संहिता के खिलाफ हूँ, जो हर औरत से माँ बनने की अपेक्षा करती है। मातृत्व को औरत के जीवन की महान अनिवार्यता के रूप में महिमामंडित करती है, और मैं उन परिस्थितियों के खिलाफ हूँ, जिनमें एक औरत बच्चे पैदा करने के लिए बाध्य होती है। इसके अलावा यह भी सच है कि माँ और बच्चे के रिश्ते को बहुत गूढ़ और रहस्यमय बनाने की कोशिश की गई है। मेरे ख्याल से लोग परिवार और बच्चों को बहुत अधिक महत्व इसलिए देते हैं, क्योंकि वे आमतौर पर बहुत एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे होते हैं। उनका कोई दोस्त नहीं होता है, उनके जीवन में प्रेम और आत्मीयता का अभाव होता है। वे बिलकुल अकेले होते हैं। सो जीवन में कुछ होने के लिए बच्चे होते हैं। और यह तो बच्चे के लिए भी बहुत भयानक बात है। माँ-बाप के जीवन में व्याप्त खालीपन को भरने के लिए उनके और बच्चों के बीच एक स्थाई दरार बन जाती है। और फिर जैसे ही बच्चा बड़ा होता है, वह हर हाल में घर छोड़कर चला जाता है। बच्चा भीतरी अकेलेपन से मुक्ति की कोई गारंटी नहीं है।
एलिस : मैं जानती हूँ कि आपको प्रतिदिन दुनिया के कोने-कोने से महिलाओं के पत्र मिलते रहे हैं। आप बहुत-सी स्त्रियों के लिए आदर्श रही हैं और आज भी हमारे संघर्ष, हमारी लड़ाइयों में साझेदार हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह औरतों की स्थिति पर आपके गहन विश्लेषण और आपके आत्मकथात्मक उपन्यासों का ही परिणाम है, जिनमें आपने ऐसी औरतों का चित्र खींचा है, जो जिंदगी से भरपूर हैं, हिम्मती हैं और जिनमें अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने का साहस है। क्या आपको भी इन पत्रों से कुछ नया सीखने को मिला?सिमोन : उन पत्रों को पढ़कर मुझे यह समझ में आया कि औरतों का उत्पीड़न कितनी वृहत्तर सीमाओं में फैला हुआ है। कुछ औरतें हैं, जो वास्तव में कैदी हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि ये कैद एक असामान्य बात है या अपवाद है, जो सभी औरतों पर लागू नहीं होता। नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है। उन बंदी औरतों ने छिप-छिपकर, अपने पतियों के घर लौटने से पूर्व अपनी बातें मुझे लिखकर भेजी। सर्वाधिक दिलचस्प खत पैंतीस से पैंतालीस वर्ष तक की औरतों के थे, जो विवाहिता थीं और शुरू-शुरू में तो बहुत खुश रहा करती थीं, लेकिन आज मरणासन्न समाप्ति की कगार पर थीं....वे मुझसे पूछतीं, मैं क्या कर सकती हूँ? मेरे पास कोई व्यवसायिक योग्यता नहीं है, मेरे पास कुछ नहीं है। मेरा अस्तित्व कुछ भी नहीं।अठारह या बीस साल की उम्र में आप प्रेम की उम्मीद में विवाह बंधन में बँधते हैं और तीस तक आते-आते यह रिश्ता आपको चोट पहुँचाने, तोड़ने लगता है, और तब इस स्थिति से उबर पाना बहुत-बहुत मुश्किल हो जाता है। यह मेरे साथ भी हो सकता था और यही कारण है कि मैं चीज के प्रति मैं खुद को बहुत संवेदनशील महसूस करने लगती हूँ।एलिस : सलाह-मशविरा देना हमेशा ही बहुत नाजुक मामला होता है। फिर भी यदि कोई औरत आपसे पूछे तो?सिमोन : मेरी समझ में औरत को मातृत्व और विवाह की जकड़बंदी से मुक्ति पाने के लिए बहुत सतर्क और चौकन्ना रहना चाहिए। यदि किसी स्त्री को बच्चा बहुत प्रिय है तो उसे उन परिस्थितियों पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए, जिसमें उसे बच्चे का पालन-पोषण करना पड़ेगा, क्योंकि इस व्यवस्था में माँ होना वास्तव में गुलामी ही है। पिता और समाज, बच्चे का सारा दायित्व माँ पर ही डाल देते हैं। औरतों को छोटे-छोटे बच्चों की देखभाल करने के लिए अपनी नौकरियाँ छोड़नी पड़ती है। बच्चे को खसरा हो जाए तो उन्हें घर पर ही रहना पड़ता है। और यदि बच्चा जीवन में सफल न हो सके तो उसका आरोप भी माँ के ऊपर ही आता है।एलिस : लेकिन यदि औरत पहले से ही शादीशुदा और बाल-बच्चों वाली हो, तो?सिमोन : चार साल पहले आपके साथ एक साक्षात्कार में मैंने कहा था कि पैंतीस साल और उससे अधिक उम्र की घरेलू पत्नियों के लिए वास्तव में ज्यादा संभावनाएँ नहीं है। तदंतर मुझे औरतों के सैकड़ों पत्र मिले, जिसमें उन्होंने लिखा कि यह सच नहीं है। हम अभी भी मजबूत लड़ाई लड़ सकते हैं। यह अच्छी बात है, लेकिन जो भी हो, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने की कोशिश करनी चाहिए।एलिस : आपसे अकसर ये सवाल होता है कि क्या अब आपको बच्चे न होने का कोई पछतावा होता है?सिमोन : ओह, एकदम नहीं! मैं इसके लिए हर रोज खुद को मुबारकबाद देती हूँ। जब मैं उन दादियों को देखती हूँ, जो उम्र के इस पड़ाव पर अपने लिए थोड़ा भी समय नहीं निकाल पाती और छोटे-छोटे बच्चों की देखरेख में लगी रहती हैं, जबकि वास्तव में ऐसा करना हमेशा ही बहुत आनंददायक नहीं होता है।एलिस : आपको क्या लगता है कि स्त्रियों की यौनिकता और उसे जिस तरह से परिभाषित और किया गया है, औरतों के उत्पीड़न में क्या भूमिका अदा करती हैं?सिमोन : मेरे ख्याल से यह आरोपित नैतिकता एक भीषण कारा है। यौनिकता के इस दबाव में कुछ औरतें एकदम भावशून्य हो जाती है। स्त्रियों पर लादी गई यौनिकता बाहर से आरोपित है, सहज और प्राकृतिक नहीं। उसके बोझ तले दबकर बहुत-सी स्त्रियाँ बिलकुल संवेदनहीन और ठंडी पड़ जाती हैं। लेकिन यह शायद उतनी बदतर स्थिति नहीं है, क्योंकि इससे भी ज्यादा बदतर स्थिति संभव है। सबसे बदतरीन दशा तो वह है, जबकि औरत उस आरोपित यौनिकता का आनंद लेने लगे। उसी में खुद को खुश और मुतमईन महसूस करने लगे। ऐसा करके वह खुद ही गुलामी का रास्ता चुनती हैं। यौनिकता का यह आनंद स्त्री को पुरुष के साथ बाँधने वाली जंजीर की एक अतिरिक्त कड़ी बन सकता है।
एलिस : अगर मैं ठीक-ठीक समझ रही हूँ तो आपकी दृष्टि में स्त्रियों की भावशून्यता और रुग्णता, इस समाज-व्यवस्था में स्त्री-पुरुष के बीच शक्ति आधारित संबंधों की उपज है। यह स्त्रियों पर अप्राकृतिक रूप से थोपी गई यौनिकता के खिलाफ सचेत और सटीक प्रतिक्रिया है, जो उनकी बैचेनी और असंतोष को व्यक्त करती है।सिमोन : बिलकुल ठीक।एलिस : आपका सबसे मशहूर कथन है, ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि बना दी जाती है’। आज लैंगिक निर्माण की इस प्रक्रिया को प्रमाणित किया जा सकता है। इस प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि स्त्री और पुरुष बिलकुल असमान होते हैं। वे अलग-अलग ढंग से सोचते हैं, उनकी भावनाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं और वे बिलकुल अलग-अलग ढंग से व्यवहार करते हैं । वे ऐसे पैदा नहीं होते, बल्कि ऐसे बन जाते हैं। यह उनकी शिक्षा-दीक्षा और दैनिक जीवन के पालन-पोषण का परिणाम होता है।लगभग हर व्यक्ति इससे सहमत है कि यह विभेदीकरण सिर्फ अलग-अलग होना ही नहीं है। पुरुष की श्रेष्ठता और औरत की हीनता व इसकी अधीनस्थ स्थिति इस विभेद में अंतर्निहित है। इस संदर्भ में यह बात विशेष रूप से चिन्हित करने योग्य है। स्त्री को रहस्यवाद के आवरण में लपेटने की कोशिश यानि की नारीत्व के पुनर्जागरण का अभियान इस समय जोरों पर है, और यह उस समय दिखाई पड़ रहा है, जबकि आधुनिक स्त्री-विद्रोह ने आवाज उठाई है। सिमोन : मेरी समझ में पुरुषों की तमाम कमियाँ आज औरतों में मौजूद नहीं है। जैसे कि खुद को बहुत संजीदगी से लेने का घटिया पुरुषवादी तरीका, उनकी अहम्मन्यता, उनका अहंकार। यह सच है कि पुरुषों जैसा जीवन जीने वाली औरत के भीतर यह कमियाँ आसानी से घर कर सकती है। लेकिन बावजूद इसके औरतों में एक सहजता, विनोद का भाव और सत्ता की उठापटक से एक स्वस्थ दूरी बनाए रखने की प्रवृत्ति बची रहती है।इस तरह से औरतों में प्रतिद्वंदिता और एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति नहीं होती। और सहनशीलता और धैर्य, जो एक सीमा तक तो खूबी होते हैं, लेकिन उसके बाद कमजोरियों में तब्दील हो जाते हैं, भी औरतों का एक खास गुण है। साथ ही औरतों में अपनी विडंबनाओं की समझ भी होती है। और एक तरह का सीधापन और सरलता, जो उनकी रोजमर्रा की जिंदगी से तय होती है, क्योंकि उसके पाँव जमीन पर टिके होते हैं और उन्हें अपनी वास्तविक हैसियत का पता होती है। ये स्त्रियोचित गुण हमारे लैंगिक अनुकूलन और उत्पीड़न की उपज होता है, लेकिन ये हमारी मुक्ति के बाद भी बरकरार रहने चाहिए। पुरुषों को ये गुण अर्जित करने के प्रयास करने होंगे, लेकिन हमें एक दूसरे चरम पर जाकर यह नहीं कहना चाहिए कि स्त्री की धरती के साथ कुछ खास घनिष्टता है कि वह चंद्रमा की लय को महसूस करती है, कि वह काल के ह्रास और प्रवाह का स्पर्श कर सकती है..... या वह अधिक संवेदनशील होती है, या वह प्राकृतिक रूप से ही कम विध्वंसक होती है, आदि-आदि। यदि इन बातों में सच्चाई का कुछ अंश है भी तो भी यह हमारा प्राकृतिक स्वभाव नहीं है, बल्कि यह हमारे दिमागी अनुकूलन और हमारी जीवन स्थितियों का परिणाम हैवह छोटी-छोटी लड़कियाँ, जो बिलकुल स्त्रीनुमा होती हैं, वो ऐसी बना दी जाती हैं, न कि जन्म से ही ऐसी होती हैं। सभी अध्ययनों ने इस बात को प्रमाणित कर दिया है। किसी औरत में सिर्फ इसी वजह से कुछ खास गु्ण नहीं होते, क्योंकि वह औरत है। मेरी समझ से यह एक जैविक तथ्य को घटिया ढंग से तोड़- मरोड़कर पेश करना है।एलिस : तब शाश्वत स्त्रीत्व के पुनर्जागरण से वास्तव में क्या ध्वनित होता है?सिमोन : जब पुरुष हमसे कहते हैं, एक अच्छी और सभ्य स्त्री बनने के रास्ते पर चलो, सारी भारी और कठिन चीजें, जैसे ताकत, प्रतिष्ठा और करियर हमारे लिए छोड़ दो...... तुम जैसी हो उसी में खुश रहो, पृथ्वी की लय में निमग्न, अपने मानवीय सरोकारों में तल्लीन......’ दरअसल यह बहुत खतरनाक है। एक तरह से यह ठीक है कि औरत अपने शरीर को लेकर लज्जित न महसूस करे, गर्भावस्था या रजस्त्राव के प्रति काफी सहज हो। मेरी समझ से यह बहुत अच्छा है कि एक औरत को अपने शरीर के बारे में पूरी जानकारी हो। लेकिन औरत के शरीर को अपने आप में ही बहुत महान और गरिमामय नहीं बना देना चाहिए। यह नहीं मान लेना चाहिए कि औरत का शरीर इस दुनिया की कोई नई तस्वीर दिखाता है। यह बहुत ही बेतुकी और हास्यास्पद बात होगी। इसका मतलब होगा कि लिंग विरोधी हो जाना। जो स्त्रियाँ इस तरह के रहस्यवाद में यकीन रखती हैं, वे विवेकहीन और तर्कहीन होती हैं। वह पुरुषों के ही बनाए खेल खेल रही होती हैं, जो उन्हें ज्यादा दक्षता के साथ स्त्रियों को ज्ञान और सत्ता से दूर रखने और उनका शोषण करने की इजाजत देता है।शाश्वत नारीत्व का विचार मिथ्या है क्योंकि मनुष्य के निर्माण में प्रकृति की भूमिका बिलकुल नगण्य होती है। हम सामाजिक प्राणी हैं। इसके अलावा मैं ये नहीं मानती कि स्त्रियाँ प्राकृतिक रूप से पुरुषों से हीन होती हैं और न ही ये मानती हूँ कि वो पुरुषों से श्रेष्ठ और बेहतर होती हैं।(
संवाद प्रकाशन से प्रकाशित सिमोन द बोवुआर के इंटरव्यू की पुस्तक ‘स्त्री के पास खोने के लिए कुछ नहीं है’ से साभार)