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Written By ND

कार्य जिनका सार्वजनिक जीवन पर असर पड़ता हो निजी नहीं

कार्य जिनका सार्वजनिक जीवन पर असर पड़ता हो निजी नहीं -
खुशवंतसिंह से बातचीत

पिछले दिनों अदालत ने 86 वर्षीय खुशवंतसिंह की आत्मकथा 'ट्रुथ, लव एंड ए लिटिल मैलिस' के प्रकाशन की अनुमति दे दी। चार साल पहले एक समाचार-पत्रिका ने पुस्तक के कुछ अंश उद्धृत करते हुए मेनका गांधी के इंदिरा गांधी के निवास से बाहर जाने की बात प्रकाशित की थी। नाराज मेनका ने निजी जीवन में दखल व मानहानि का दावा करते हुए पुस्तक के प्रकाशन पर स्थगनादेश लगवा दिया था। अदालत के अब यह प्रतिबंध हटा देने से खुशवंतसिंह खुश हैं। प्रस्तुत है इस अवसर पर की गई बातचीत

* आपकी किताब कितनी ईमानदार है? दुर्भावना कहां है?
अगर किसी को मैंने चोट पहुंचाई है, तो वह है मेरा अपना परिवार। जिन्होंने पुस्तक पढ़ी है, उनका कहना है कि मैंने अपनी पत्नी के साथ न्याय नहीं किया, लेकिन ईमानदारी की बात यह है कि ऐसा करना जरूरी लगा। मेरी बेटी ने अपनी मां से पूछकर बताया कि जो कुछ भी लिखा गया है, वह सही है। मेरी दुर्भावना तोताचश्म, अंधविश्वासी और धर्मांधों के प्रति है, जिनमें बहुत से राजनेता शामिल हैं। अंत में जीवन और मृत्यु के बारे में राय दी है मैंने।

* क्या आप महत्वपूर्ण समय में रह रहे हैं?
नहीं, जब मैं संसद-सदस्य था, भिंडरांवाले का उदय हुआ और सिखों को कठिनाइयों का अनुभव करना पड़ा। मैंने उस मुद्दे पर समझौता नहीं किया। धर्मांधों और कट्टरवादियों की मुखालिफत करने के कारण मुझे 14 वर्ष सशस्त्र सैनिकों के साए में जीना पड़ा।

* किताब लिखने के बाद प्रकाशन के लिए लंबा इंतजार मुश्किल रहा होगा?
मैं इस फैसले से काफी निराश हुआ। मैं अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ गया ही नहीं। अगर मेनका गांंधी का खयाल था कि किताब में उनकी मानहानि की गई है तो वे जुर्माना ले लेतीं। उन्होंने उसके खिलाफ स्थगनादेश ला दिया। लोकतंत्र और आजाद कहे जाने वाले देश के इंसाफ की भारी गलती से पुस्तक पर स्थगनादेश लगा दिया गया।

* इस बारे में आप क्या कहेंगे कि सार्वजनिक जीवन जीने वालों को भी प्राइवेसी का अधिकार है?
यह सही है कि कोई किसी की प्राइवेसी पर हमला नहीं कर सकता। मेनका गांधी हमेशा से ही 'सार्वजनिक व्यक्तित्व' हैं। उन्होंने अपनी सास इंदिरा गांंधी की सार्वजनिक रूप से छानबीन के लिए मुझ समेत प्रेस के अन्य लोगों से बात की कि उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया है। उनका कहना था कि लोगों को ये बातें मालूम होनी चाहिए थीं।

'सूर्या' की संपादक के नाते मेनका ने जगजीवनराम के बेटे की किसी गैर-औरत के साथ तस्वीरें छापीं। इसमें सार्वजनिक हित की कोई बात नहीं थी, सिर्फ जगजीवनराम के परिवार से बदला लेने की भावना निहित थी। 'सूर्या' के सलाहकार के तौर पर मैंने श्रीमती गांधी से पूछा कि क्या छपना चाहिए या नहीं। मैंने उन्हें बताया कि जगजीवनराम की ओर से मुझसे कहा गया है कि अगर वे तस्वीरें नहीं छपीं तो वे मोरारजी देसाई को छोड़कर उनकी ओर आ जाएंंगे। इस पर श्रीमती गांधी ने कहा कि उन्हें पहले ऐसा करने दो, हम तभी प्रकाशन रोकेंगे। वे उन्हें छापने के पक्ष में थीं।

* इसका मतलब तो यह हुआ कि ऐसे निजी कार्य, जिनका सार्वजनिक तौर पर असर पड़ता हो, निजी नहीं माने जा सकते?
बिल्कुल! इस केस में ये फोटो प्राइवेट रहे ही नहीं थे, अन्य पत्रिकाओं में इसके बारे में छप चुका था। पुपुल जयकर ने श्रीमती गांधी की आत्मकथा में भी इसका जिक्र किया है। इनमें कुछ नया नहीं था, सिर्फ वही कुछ और था जो मुझे मेनका ने बताया। जैसे उनमें, उनकी बहन अम्बिका और श्रीमती गांधी के बीच जो वार्तालाप हुआ या शोर से उद्वेलित उनके कुत्ते ने आर.के. धवन को काट खाया।

* इन्हीं दिनों श्रीमती गांधी ने मेनका को एक पत्र लिखा था। क्या वह पत्र आपने पढ़ा?
पत्र तो मैंने नहीं देखा, लेकिन उसके बारे में मुझे मालूम जरूर है, क्योंकि मेनका मुझसे अपने टकराव वाले दिनों में जरूर मिलती रहती थीं। घर से निकाले जाने के बारे में भी उन्होंने ही मुझे बताया था। श्रीमती गांधी की विदेश यात्रा के समय मेनका ने अपनी और जरूरत की सभी चीजें वहां से हटा ली थीं। 'सूर्या' भाजपा के डॉ. जे.के. जैन को बेच दी। तैयारी पहले ही कर ली थी उन्होंने और जब 'लड़ाई' शुरू हुई तो मेनका की बहन ने फोन करके मुझसे कहा कि उन्हें घर से निकाला जा रहा है और पूछा कि क्या मैं विदेशी प्रेस को इसकी सूचना दे सकता हूं।

* लोग श्रीमती गांधी की तानाशाही को भूलते जा रहे हैं। आप भी एक समय था, उनके प्रशंसक थे। उनकी शख्सियत के बारे में अब आपका क्या कहना है?
दुबारा सोचने पर लगता है कि उन्होंने लोकतंत्र की हर संस्था का सत्यानाश कर दिया। मुझे उनके बदला लेने की भावना के बारे में जानकारी नहीं थी। इसके बारे में मुझे बाद में ही पता चला। लेकिन फिर भी वे मोरारजी देसाई और चौधरी चरणसिंह से तो बेहतर ही थीं। इस बात का तो सवाल ही नहीं उठता कि वह मेनका के साथ गांव की सास वाला व्यवहार करती थी और हमेशा उसको नीचे दिखाने की कोशिश करती थीं। दो बार मुझसे ही मेनका की शिकायत की थी।

मेनका ने मुझसे जो कुछ कहा था, उससे तो लगता था कि उनका व्यवहार मेनका के साथ अच्छा नहीं था। वह मेनका को सोनिया के सामने जरूर नीचा दिखाने की कोशिश करती थीं। मेनका के सामने सोनिया को पंडितजी की घड़ी और पेन देते हुए कहा था, 'मैं चाहती हूं कि तुम इन्हें रखो।' संजय की मृत्यु के बाद तो उनका व्यवहार और भी खराब हो गया था। उस हादसे के बाद उनका पहला सार्वजनिक समारोह मिसेज थैचर का भोज था। राजीव और सोनिया मुख्य टेबल पर बैठे थे और मेनका आर.के. धवन जैसे कर्मचारियों के साथ।

*क्या आप सोचते हैं कि यह राजनीतिक जीवन जारी रखने के लिए किया गया था?
जी हां, श्रीमती गांधी ने तय कर लिया था कि उनकी प्राथमिकता पहले संजय होगी। संजय की मृत्यु के बाद राजीव के बारे में सोचा गया। ये सोच-समझकर किया गया था और लोकतंत्र को ताक पर रखने के लिए काफी था। वे वंश उत्तराधिकारी रखना चाहती थीं। मैंने लिखा था कि राजनीति के लिए मेनका का हक पहला है, क्योंकि दुख की घड़ी में वह परिवार के साथ थीं और फिर राजीव तो राजनीति में दिलचस्पी ही नहीं रखते थे। मेरी इस बात के लिए श्रीमती गांधी ने मुझे कभी माफ नहीं किया।

* क्या वजह है कि सोनिया के बारे में ऐसा रुख नहीं रहा?
परिवार का रुख उसकी ओर औपचारिक रहा था। जब श्रीमती गांधी कमरे में आईं तो लड़के खड़े हो गए। मेनका कुछ अलग तरह की थीं। वह बहुत ढीठ थी और अंधाधुंध बोलती थी। लेकिन सोनिया गांधी श्रीमती गांधी को खुश रखती थीं। श्रीमती गांधी योरपीय तौर-तरीकों से जवाब देती थी और शिष्टाचार निभाती थीं। हालांकि सोनिया गांधी एक छोटे से गांव तूरीन की रहने वाली और मामूली से परिवार की थीं, पर उनके तौर-तरीके योरपीयन थे।

* तो मेनका और श्रीमती गांधी की जोड़ी टीवी के लिए सास-बहू का सीरियल हो सकता है?
टीवी पर यह बखूबी दिखाया जा सकता है, एक राजनीतिक 'तू-तू, मैं-मैं'।