मैं कौन हूं?
एक आत्यंतिक प्रश्न
अज्ञेय से ज्ञेय तक
सृष्टि निर्माण से ही गूंजता है।
बाहर के भूताकाश से लेकर
अंदर के चिदाकाश तक
चेतना की शून्यता से लेकर
ज्वलंत ऊर्जा तक
यह यक्षप्रश्न तैरता है।
अनुप्रस्थ से क्षैतिज
अनुलंब से ऊर्ध्वाधर
अतल गहराई से असीम ऊंचाई तक
मैं कौन हूं? का उत्तर
'मैं' पर जाकर रुक जाता है।
'कौन हूं' रहा है हमेशा अनुत्तरित
स्व 'हमेशा अज्ञेय रहा है
'स्व' 'मैं' के रूप में अवस्थित रहा।
'स्व' कौन? एक पहुंचा ही नहीं
'मैं' में समाहित हमारा 'स्व'
आज भी 'कौन हूं' को ढूंढ रहा है।
जब 'मैं' होगा तिरोहित तभी
'स्व' को 'कौन हूं' का उत्तर मिलेगा।
तब स्वधार चैतन्य का परिचय
ज्ञेय होकर बनेगा 'कौन हूं' का उत्तर
'स्व' के अस्तित्व से अनभिज्ञ
सब कुछ होता है संयोग
जन्म, जीवन, मृत्यु।
'स्व' के अस्तित्व से विज्ञ
कौन हूं' की पहचान है
उसके लिए
विशिष्ट है जन्म।
विशद है ये जीवन।
और मृत्यु उत्सव है।
जब भी 'मैं' के अंदर झांका
तो देखा शून्य है
घबराकर उस शून्य से जब
बाहर आया तो
सारे संसार को भर लिया अपने अंदर
बाहर भी संसार, अंदर भी संसार।
'कौन हूं' हमेशा रहा अनुत्तरित
और मौत ने धकेल दिया
फिर उसी शून्य में
जिससे 'मैं' हमेशा डरता है।
'मैं' के अंदर शून्य है
'मैं' में समाहित ज्ञान, विज्ञान
धर्म, मीमांशा, तत्व, ब्रह्मांड
जब सब तिरोहित होंगे
तब उदय होगा 'स्व'
जिसका न नाम है, न धर्म है और न जाति।
जो न शरीर है न कोई प्रजाति।
जिसकी न कोई अवस्था है, न नाश है
जिसकी न कोई वृद्धि है, न विनाश है
जिसमें न मन है, न चित्त है
जिसमें न बुद्धि है, न वित्त है।
जिसका न अतीत है, न वर्तमान
जो न कभी खोया है, न कभी विद्यमान
जिसका स्वरूप निर्विकार परमात्मा है
वह 'कौन हूं?' चिदानंद शुद्ध आत्मा है।