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आत्मकथा : वतन से दूरी ही मेरी साहित्य साधना की मूल प्रेरणा है!

आत्मकथा : वतन से दूरी ही मेरी साहित्य साधना की मूल प्रेरणा है! - literature autobiography
आत्म-कथ्य लिखना किसी भी लेखक के लिए चुनौती का काम है। कारण, अपने बारे में लिखना आसान तो लगता है किंतु तभी सहसा दिमाग में एक बात और आती है कि 'लिखने' और 'बखान' में यानी आत्म-कथ्य और आत्म-प्रचार में स्पष्ट सीमा रेखा खिंच जानी चाहिए और उस रेखा को साफ-साफ उजागर करना ही एक सुलझे हुए लेखक की असली परख/ पहचान है। अपने आत्म-कथ्य में मैं इस बात के प्रति विशेषतया सावधान रहा हूं। 
 
कश्मीर मेरी जन्मभूमि है। जन्म हुआ था श्रीनगर (कश्मीर) के पुरुषयार (हब्बाकदल) मुहल्ले में संवत 1999 में वैशाख शुक्ल पक्ष की सप्तमी को। ईस्वी सन् के हिसाब से यह तिथि 22 अप्रैल 1942 बैठती है। निम्न मध्यवर्गीय परिवार के तमाम अभावों और दबावों को विरासत में पाकर बचपन और किशोरावस्था के उद्दाम और बेफिक्री के दिनों को मैंने मन मारकर बिताया है। 
 
पिताजी की प्राइवेट नौकरी हमारे 7 सदस्यीय परिवार के लिए तन ढंकने और दो टाइम का साग-भात जुटाने के लिए काफी न थी। माताजी कहती थी कि दुर्दिनों के हमने कई-कई बार चावल का मांड पिया है और सत्तू खाया है। 'जबरी स्कूल' में ढाई आने फीस जमा कराने के लिए भी हमें कई बार उधार लेना पड़ता था। 
 
बड़ी मौसी की हैसियत हमसे कुछ ज्यादा ठीक थी, शायद सीमित परिवार के कारण। समय-असमय उसने हमारी बहुत मदद की है। कई बार माताजी ने मुझे उनके पास आलीकदल भेजा है और मैं 3 मील पैदल चलकर उनके यहां से कभी चावल, कभी आटा और कभी 5-7 रुपए चुपचाप लाया हूं। 
 
नौकरी के सिलसिले में पिताजी लंबे समय तक जम्मू में रहे। रेडक्रॉस के दफ्तर में उनकी नौकरी थी। सर्दियों में हम जम्मू चले जाते और गर्मियों में वापस श्रीनगर लौट आते। इस आवाजाही के कारण मेरी स्कूली शिक्षा दो जगह हुई। जम्मू में घास मंडी स्कूल में तथा श्रीनगर में जबरी स्कूल (टंकीपोरा) तथा श्रीप्रताप हाईस्कूल में। सरकारी स्कूलों में जैसी पढ़ाई और जैसा माहौल होता है, उसी को आत्मसात करता मैं 10वीं प्राप्त कर गया। यह बात 1956 की है। 10वीं में मुझे अच्छे अंक मिले थे- प्रथम श्रेणी में 7 या 8 ही घटते थे। कॉलेज में प्रवेश लेने के लिए विषयों का सही चयन करना अनिवार्य था। 
 
मुझे याद है कि प्रवेश फॉर्म भरते समय कॉलेज के एक अनुभवी प्रोफेसर साहब ने मेरे प्राप्तांक को ध्यान में रखते हुए मुझे विज्ञान संकाय में जाने की सलाह दी थी, क्योंकि आने वाले समय में रोजगार की दृष्टि से कला की तुलना में विज्ञान की संभावनाएं अच्छी थीं। 10वीं में यह विषय मेरे पास न होने पर भी वे मुझे विज्ञान दिलवाने के पक्ष में थे। घर पर दो दिनों तक इस बात पर खूब विचार होता रहा कि मैं विज्ञान लूं या आर्ट्स? 
 
चूंकि पिताजी ज्यादातर जम्मू में रहते थे अत: हमारे घर के सारे मुख्य निर्णय दादाजी लेते थे। दादाजी की अपनी विवशताएं, अपने पूर्वाग्रह तथा स्थितियों को समझने की अपनी दृष्टि थी। वे हिन्दी-संस्कृत के अध्यापक तथा एक धर्मपरायण/ कर्मकांडी ब्राह्मण थे। (कश्मीर ब्राह्मण मंडल के वे वर्षों तक प्रधान रहे।) विज्ञान जैसे पदार्थवादी विषय से उनका दूर का भी वास्ता न था। उन्होंने जोर/ तर्क देकर मुझे कला संकाय में जाने को कहा, क्योंकि उस स्थिति में हिन्दी-संस्कृत के विषयों को वे मुझे अच्छी तरह से पढ़ा सकते थे। 
 
आज सोचता हूं कि यदि विज्ञान संकाय में प्रवेश ले लिया होता तो एक दूसरे ही रसहीन संसार में विचरण कर रहा होता मैं, और साहित्य व कला के अनूठे, कालजयी, यशबहुल तथा रससिक्त संसार से एकात्म होकर आत्मविस्तार की अनमोल सुखानुभूति से वंचित रह जाता। इसे मैं दादाजी का पुण्य प्रताप ही मानूंगा कि उन्होंने मुझ में हिन्दी के प्रति प्रेम को बढ़ाया और यह उनकी ही दूरदृष्टि का परिणाम है कि मैं एमए तक पढ़ पाया अन्यथा मैट्रिक कर लेने के बाद पिताजी मुझे नौकरी पर लगवाने के पक्ष में थे। 
 
कश्मीर विश्वविधालय में एमए हिन्दी खुले संभवत: 2 ही वर्ष हो गए थे, जब मैंने 1960 में एमए में प्रवेश लिया। उस समय विभाग में 30 लड़के-लड़कियां तथा 3 प्रोफेसर थे। डॉ. हरिहरप्रसाद गुप्त विभाग के अध्यक्ष तथा डॉ. शशिभूषण सिंहल व डॉ. मोहिनी कौल प्राध्यापक हुआ करते थे। मैंने पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध दोनों में अधिकतम अंक प्राप्त कर 1962 में एमए हिन्दी प्रथम श्रेणी में प्रथम रहकर किया। 
 
मुझे याद है हिन्दी विभाग में साहित्य परिषद या हिन्दी सेमिनार जैसे एक मंच का निर्माण किया गया था जिसमें हर शनिवार को 'गोष्ठी' होती थी। इस गोष्ठी में छात्र-छात्राओं की स्वरचित कविताओं, गजलों, कहानियों, शोधपरक निबंधों का वाचन होता। समीक्षाएं भी होतीं और जमकर होतीं। 1 वर्ष तक मैं इस हिन्दी सेमिनार का छात्र सचिव रहा और संभवत: गोष्ठियों का संचालन करते-करते, गुरुजनों की समीक्षाएं सुनते-सुनते तथा छात्र लेखकों की रचनाएं सुनते-सुनते मेरे भीतर का छिपा लेखक इतना प्रभावित और विलोड़ित हुआ कि मैंने नियमित रूप से लिखने का अभ्यास करना प्रारंभ कर दिया। 
 
मैंने बहुत कुछ लिखा, पर वह छपा नहीं। कश्मीर जैसे अहिन्दी प्रांत में हिन्दी रचना का छपना-छपाना सरल कार्य न था। पूरे प्रांत से 'योजना' नाम की एकमात्र सरकारी पत्रिका निकलती थी और उस पर वरिष्ठ लेखकों का दबाव अधिक था। हम नए लेखकों को भला कौन जानता? मुझे याद है मेरी पहली रचना 'समाज और हम' (जिसे मैंने हिन्दी सेमिनार में पढ़ा था) 1960 में युवक (आगरा) में छपी थी मेरे फोटो के साथ। रचना छपवाने के लिए मेरे श्रद्धेय गुरुजी डॉ. शशिभूषण सिंहल ने मेरी मदद की थी। गुरुजी के सिफारिशी पत्र के साथ मैंने उक्त रचना संपादक को भेजी थी। 
 
यकीन मानिए, जब डाक से पत्रिका मेरे पास आई और मैंने अपनी रचना सचित्र उसमें देखी तो मैं इतना प्रसन्न हुआ, इतना प्रसन्न हुआ मानो कुले-जहां की खुदाई मिल गई हो। पूरे 7 दिनों तक मेरी प्रसन्नता का ज्वर नहीं टूटा। इन 7 दिनों के दौरान पत्रिका मेरे बगल में ही रही। उठते-बैठते, घूमते-फिरते, खाते-पीते हर बार पलट-पलटकर अपनी रचना को देख लेता, मित्रों को दिखाता और मन ही मन सुखामृत के घूंट पीता रहता। 
 
रचना छप तो गई। वाहवाही भी मिली किंतु गुरुदेव डॉ. हरिहर प्रसाद गुप्त की मंशा कुछ और ही थी। मुझमें वे संभवत: उन तमाम संभावनाओं का पता लगा चुके थे, जो आगे चलकर मुझे साहित्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठापित करतीं। उनका आग्रह था कि मैं शुद्ध साहित्यिक विषयों, जैसे सूर, तुलसी, नई कविता, छायावाद, रस निष्पत्ति, साहित्य और समाज आदि विषयों का अध्ययन तो कर लूं, मगर इन पर लिखने की जिद न पकडूं। इन विषयों के अधिकारी लेखक हिन्दी जगत में बहुत हैं और इन विषयों के माध्यम से आगे बढ़ने की संभावना भी उतनी नहीं है जितनी कश्मीर संबंधी विविध विषयों को आधार बनाने से है। इसमें उन्हें कश्मीर की सांस्कृतिक-साहित्यिक धरोहर को हिन्दी जगत तक पहुंचाने की आवश्यकता नजर आ रही थी और साथ ही संपर्क भाषा हिन्दी के माध्यम से देश की दो संस्कृतियों को मिलाने की वे बात सोच रहे थे। 
 
मेरे लिए उन्होंने साहित्य साधना का नूतन मार्ग खोल दिया। मेहनत करके मैंने 'कश्मीर की झीलें' शीर्षक से एक सचित्र लेख 'सरिता' में प्रकाशनार्थ भेजा। 2-3 महीनों के बाद रचना छप गई नयनाभिराम गेटअप के साथ। 60 रुपए पारिश्रमिक भी मिला। गुरुजी ने ठीक ही कहा था कि कश्मीर संबंधी विषयों पर लिखने की बहुत जरूरत और गुंजाइश थी। 'कश्मीर के प्रसिद्ध खंडहर', 'कश्मीरी संगीत', 'कश्मीरी कहावतें और पहेलियां' आदि मैंने लेख लिखे। ये बातें 1960-61 की हैं। 
 
कश्मीर की सुरम्य घाटी को मैंने नवंबर 1963 में छोड़ा। नहीं जानता था कि मातृभूमि को सदा-सदा के लिए छोड़ना पड़ेगा। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से फैलोशिप मिली और पीएचडी करने मैं कुरुक्षेत्र आया। इस बीच हमारे प्रोफेसर डॉ. शशिभूषण सिंहल कश्मीर से कुरुक्षेत्र विश्वविधालय में चले आए थे। वे मेरे शोध कार्य के निदेशक नियुक्त हुए। शोध का विषय था- 'कश्मीरी तथा हिन्दी कहावतों का तुलनात्मक अध्ययन।' अपने पीछे मां-बाप की छत्रछाया, भाई-बहनों का प्यार तथा बंधु-बांधवों का सान्निध्य छोड़ अपनी राह स्वयं बनाने तथा अपनी मंजिल स्वयं तय करने के एकाकी अभियान पर चल पड़ा था मैं। घर और अपने परिवेश की सीमित-सी दुनिया को अलविदा कहकर मैंने एक नए परिवेश में प्रवेश किया था। 
 
मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं घर से चला था तो मात्र 50 रुपए लेकर चला था। दादाजी ने चुपचाप अलग से 10 का नोट मेरी जेब में डाल बालों पर हाथ फेरते हुए कहा था- 'हमसे दूर जा रहे हो। एक बात का हमेशा ध्यान रखना बेटा, परदेश में हम लोग तुम्हारे साथ तो होंगे नहीं, पर तुम्हारी मेहनत, लगन और मिलनसारिता हरदम तुम्हारा साथ देगी। औरों के सुख में सुखी और उनके दु:ख में दु:खी होना सीखना। सच्चा मानव धर्म यही है।' 
 
यहां पर इस बात का उल्लेख करना अनुचित न होगा कि एक समय में कश्मीर में हिन्दी के प्रचार तथा हिन्दी लेखन के प्रति लोगों में बड़ा उत्साह और आदरभाव था। क्रालखोड (हब्बाकदल) में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का कार्यालय हुआ करता था और प्राय: हर इतवार की शाम को वहां हिन्दी से प्रेम रखने वाले उत्साही युवकों एवं वरिष्ठ लेखकों का मजमा जुड़ जाता था। बहसें होतीं, कवि सम्मलेन आयोजित होते, साहित्यिक चर्चाएं होतीं, पुस्तकों के विमोचन होते, कहानियां पढ़ी जातीं आदि-आदि। 
 
यह बात इस शती के 5वें/ 6ठे दशक की है। मैं कोई 15 वर्ष का रहा होऊंगा। इन गोष्ठियों में सम्मिलित तो हो जाता किंतु पीछे वाली पंक्ति में बैठ (या बिठा दिया) जाता। उस वक्त के कुछ बड़े नामों में प्रो. काशीनाथ धर, प्रो. लक्ष्मीनारायण सपरू, श्रीकंठ तोषखानी, प्रो. पृथ्वीनाथ पुष्प, मोतीलाल चातक, द्वारिकानाथ गिगू, रतनलाल शांत, प्रेमनाथ प्रेमी, शशिशेखर तोषखानी, प्रो. लीलकंठ गुर्टू, हरिकृष्ण कौल, प्रो. चमनलाल सपरू, जानकीनाथ कौल 'कमल' आदि याद आ रहे हैं। 
 
कालांतर में समय ने करवट ली और इसी के साथ कश्मीर में हिन्दी के ये प्रहरी और प्रेमी भी इधर-उधर बिखर गए। हां, माननीय प्रो. चमनलाल सपरू साहब आज भी हिन्दी के लिए कृतसंकल्प हैं और मेरे कार्य की प्रशंसा करते नहीं अघाते। मेरी पहली पुस्तक 'कश्मीरी भाषा और साहित्य' (सन्मार्ग प्रकाशन, दिल्ली 1972) की विस्तृत भूमिका उन्हीं ने लिखी है। 
 
कुरुक्षेत्र विश्वविधालय में 2 वर्ष की अवधि बिताने के साथ ही नौकरी के लिए तलाश शुरू होने लगी और मैंने इधर-उधर प्रार्थना पत्र भेजे। 2 जगह मेरा चयन हुआ। दिल्ली के एक सांध्यकालीन कॉलेज में अस्थायी तौर तथा राजस्थान लोकसेवा आयोग, अजमेर द्वारा राजस्थान कॉलेज शिक्षा सेवा के लिए पक्के तौर पर। निर्णय मुझे लेना था। 
 
राजस्थान सरकार की नौकरी ही मेरी नियति बनी, क्योंकि अस्थायी नौकरी स्वीकार करने का जोखिम उठाना मेरे बूते से बाहर था। जुलाई 1966 से मैं राजस्थान के विभिन्न सरकारी कॉलेजों में अध्यापनरत हो गया। राजकीय कॉलेज, भीलवाड़ा में मेरी प्रथम नियुक्ति हुई। 1 वर्ष तक वहां पर रह लेने के बाद लगभग 10 वर्षों तक राजकीय कॉलेज, नाथद्वारा (उदयपुर) में रहा। 1978 से राजकीय स्नातकोत्तर कला महाविद्यालय, अलवर में स्थानांतरित होकर आया। 
 
इस बीच 1975-76 में वर्ष के लिए भारत सरकार के पटियाला स्थित उत्तर क्षेत्रीय भाषा केंद्र में कश्मीरी भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन, उसके व्याकरण और उसकी पाठ्य साम्रगी का निकट से अनुशीलन करने का मुझे सुअवसर मिला। संत कवयित्री ललद्दद पर मैंने यहीं पर एक पुस्तक तैयार की, जो भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ से प्रकाशित हुई। इस पुस्तक की सुंदर प्रस्तावना प्रसिद्ध हिन्दी विद्वान और पत्रकार बनारसीदास चतुर्वेदी ने लिखी है। 
 
प्रभु श्रीनाथजी की प्रसिद्ध नगरी नाथद्वारा में बिताए गए 10 वर्ष मेरे जीवन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण और दिशासूचक वर्ष रहे हैं। यही वे वर्ष हैं जिन्होंने मेरे भीतर के लेखक (साहित्यसेवी) को एक सुनिश्चित आकार देना प्रारंभ किया और मेरे साहित्यिक भविष्य की एक पक्की नींव डल गई। 
 
ये तमाम वर्ष मेरे लिए कठोर परिश्रम के वर्ष थे। अपनी जम्भूमि से सैकड़ों मील दूर, डल झील और चिनारों की शीतल और पुलकनभरी दुनिया से विलग, नर्म-नर्म बर्फ की छुअन से सदा के लिए विमुख होकर मैं वीर वसुंधरा राजस्थान की प्रचंड गर्मी और लू से टक्कर लेता हुआ परदेस में लसने-बसने, अपने लिए एक जगह बनाने तथा अपने भविष्य को संवारने की चिंता में साधनारत था। 
 
अपनों से दूरी ने मन में जो रिक्तता और टीस पैदा की थी, वह मेरे लिए वरदान सिद्ध हुई। मैंने निश्चय किया कि मेरा प्रवास आजीविका जुटाने का प्रयास मात्र नहीं होना चाहिए किंतु मुझे कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे मेरे भीतर की वियोगजन्य पीड़ा की क्षतिपूर्ति हो। सच पूछा जाए तो मातृभूमि (वतन) से दूरी और तज्जन्य रिक्तता का भाव ही मेरी समस्त साहित्य साधना की मूल प्रेरणा हैं। 
 
कुछ-कुछ यही बात 1983 में पटना के सचिवालय सभागार में बिहार राजभाषा विभाग द्वारा आयोजित मेरे अभिनंदन समारोह में उस समय के बिहार के मुख्य सचिव ने कही थी। अपने समापन भाषण में सचिवजी ने शायद ठीक ही कहा था कि रैणाजी अगर कश्मीर में होते तो इतना महत्वपूर्ण और उपयोगी कार्य न करते। दरअसल, अपने वतन से दूरी ने ही उन्हें इतना ठोस कार्य करने की प्रेरणा दी है। 
 
इस बीच राजस्थान जैसे विशुद्ध हिन्दी प्रांत में कार्य करने से मेरे हिन्दी के व्यावहारिक ज्ञान की सीमाएं विस्तृत हो चुकी थीं। मैंने हिन्दी के रोजमर्रा के मुहावरे को आत्मसात कर लिया था, भाषा पर मेरी पकड़ मजबूत होती जा रही थी। हिन्दी भाषा और साहित्य के जानकारों/ विद्वानों से दिनोदिन मेरा संपर्क बढ़ता जा रहा था। सभा-गोष्ठियों में मेरी भागीदारी बढ़ती जा रही थी। कश्मीर छोड़कर राजस्थान को अपना कार्यक्षेत्र बनाने का एक जबरदस्त फायदा मुझे यह हुआ कि भाषा और अभिव्यक्ति शैली में बहुत परिष्कार हुआ। मेरी पहली पुस्तकाकार रचना 'कश्मीरी भाषा और साहित्य' 1972 में छपी। इसे मैंने लगभग 2 वर्षों की मेहनत के बाद नाथद्वारा में तैयार किया था। 
 
सुप्रसिद्ध हिन्दी-संस्कृत विद्वान एवं सांसद ('राजतरंगिनी' के विख्यात भाष्यकार) डॉ. रघुनाथ सिंह ने लगभग 18 वर्ष पूर्व राजस्थान में रहकर कश्मीरी साहित्य-संस्कृति पर मेरे निष्ठापूर्ण लेखन को देखकर सुखद आश्चर्य प्रकट किया था। (डॉ. सिंह पं. नेहरू के समय कश्मीर मामलों की संसदीय समिति के सदस्य रहे हैं) अपने 18 नवंबर 1974 के हाथ से लिखे पत्र में उन्होंने मुझे लिखा था- 'आप साहित्य की जो सेवा कर रहे हैं उससे कश्मीर और भारत उऋण नहीं हो सकते। विचित्र विपर्यय है- कहां कश्मीर का तुषार मंडित देश और कहां राजस्थान की मरुभूमि किंतु दोनों हैं उज्ज्वल वर्ण। राजस्थान की ऊष्मा ने वीरों को उत्पन्न किया है और हिमालय भूमि में आसीन कश्मीर ने दार्शनिकों एवं महाकाव्यकारों को।' 
 
नाथद्वारा प्रवास के दौरान ही मैंने कश्मीरी भाषा की लोकप्रिय रामायण 'रामावतारचरित' का सानुवाद लिप्यांतरण किया। इस कार्य को पूरा करने में मुझे लगभग 5 वर्ष लगे। भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ से प्रकाशित इस सेतु ग्रंथ की सुंदर प्रस्तावना डॉ. कर्णसिंह ने लिखी है। मेरे प्रयास की भूरि-भूरि प्रसंशा करते हुए उन्होंने लिखा- 'डॉ. शिबन कृष्ण रैणा ने अपने कठोर परिश्रम से मूल कश्मीरी भाषा की इस अमोल निधि 'रामावतारचरित' का देवनागरी लिपि में लिप्यांतरण किया है और हिन्दी में इसका सुंदर अनुवाद भी, जो अपने आप में प्रशंसनीय कार्य है। यों भी तो डॉ. रैणा हिन्दी के माध्यम से कश्मीरी भाषा और साहित्य की सेवा में संलग्न हैं किंतु मुझे आशा है कि वे समय-समय पर कश्मीरी के अनेक अनमोल रत्नों की छटा को प्रतिबिम्बित करने का अपना प्रयास जारी रखेंगे। मैं उनकी सफलता एवं स्वास्थ्य की कामना करता हूं।'
 
मेरा जन्म चूंकि एक परंपरावादी हिन्दू ब्राह्मण परिवार में हुआ इसलिए ईश्वर के अस्तित्व में मेरा अविश्वास कभी नहीं रहा। पर मेरे मन ने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि ईश्वर, श्रम से बढ़कर है। श्रम के प्रति मेरे अटूट विश्वास ने ही मुझे 'भाग्यवादी' नहीं बनाया है। हां, जब मैं देखता हूं कि इस संसार में ऐसे भी अनेक लोग हैं, जो श्रम के प्रति उदासीन होते हुए भी सफलताएं अर्जित कर रहे हैं तो मन को बड़ी तकलीफ होती है। तब श्रम पर से मेरी आस्था हिल जाती है और मैं न चाहते हुए भी प्रारब्ध, भाग्य, नियति, कर्मों का फल, पूर्व जन्म के संस्कार आदि जैसी बातों पर विश्वास करने लग जाता हूं। इसे आप मेरे मन की कमजोरी कह सकते हैं, मगर सच्चाई यही है। 
 
'कश्मीरी भाषा और साहित्य' पुस्तक लिखते समय, कश्मीरी रामायण 'रामावतारचरित' का सानुवाद लिप्यांतरण करते समय, कश्मीरी की श्रेष्ठ कहानियों का अनुवाद करते समय, केंद्रीय साहित्य अकादमी के अंग्रेजी प्रकाशनों 'ललद्दद' और 'हब्बाखातून' का हिन्दी में अनुवाद करते समय, महजूर की कविताओं को हिन्दी में रूपांतरित करते समय या फिर भारतीय ज्ञानपीठ के लिए कश्मीरी का प्रतिनिधि संकलन तैयार करते समय मैंने सच में अपनी आंखों का रक्त पृष्ठों पर उतारा है। मन-मस्तिष्क के एक-एक तंतु को कठोर परिश्रम की यातना से गुजारा है, तब जाकर कहीं सृजन की पीड़ा झेलकर ये पुस्तकें सामने आ सकी हैं। 
 
'ललद्दद' के अंग्रेजी से हिन्दी में किए गए अनुवाद को मैं अपनी मेहनत का अनूठा प्रसाद मानता हूं। जिसने भी उसे पढ़ा, विभोर हो गया। एक समीक्षक ने तो यहां तक लिख दिया- 'अनुवाद गजब का है। भाषा-शैली पुष्ट एन प्रांजल। हिन्दी के पाठकों के लिए इस दुर्लभ सामग्री को सुलभ कराकर रैणाजी ने बड़ा पुनीत एवं सार्थक कार्य किया है। यह पुस्तक इतिहासविदों, साधकों एवं साहित्यकारों के लिए समान रूप से उपयोगी है।' (प्रकर, दिसंबर, 1981)
 
ऐसा ही कुछ परम आदरणीय विष्णु प्रभाकरजी ने मेरी अनुवादित/ संपादित पुस्तक 'कश्मीर की श्रेष्ठ कहानियां' (राजपाल एंड संस, दिल्ली) के बारे में लिखा- 'कश्मीर की श्रेष्ठ कहानियां' की अधिकांश रचनाएं पढ़ गया। कश्मीरी जीवन को नाना रूपों में रूपायित करती ये कहानियां बहुत सुंदर हैं। सबसे अच्छी बात तो यह है कि ये अनुवाद लगतीं ही नहीं। मूल भावना भी उतनी ही सुरक्षित रह सकी है। मेरी हार्दिक बधाई लें।'
 
मेरी रचना यात्रा के साक्षियों में मेरे गुरुजन, सुरुचि संपन्न मित्र तथा वे सब हितैषी शामिल हैं जिन्होंने सच्चे मन से मेरी साहित्यिक उपलब्धियों पर प्रसन्नता व्यक्त की है। गुरुदेव डॉ. हरिहरप्रसाद गुप्त ने अपने एक पत्र में मुझे इलाहाबाद से लिखा था- 'तुम्हारी उपलब्धियों पर मुझे गर्व है। शिष्य द्वारा गुरु को परास्त होते देख अपूर्व आनंद की प्राप्ति हो रही है। आगे बढ़ो और यशस्वी बनो।' 
 
मेरी जीवनसंगिनी हंसा का भी इस यात्रा में कम योगदान नहीं रहा है। हमारी शादी 14 जून 1967 को कश्मीर में हुई थी। एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में जन्मी मेरी धर्मपत्नी के दादाजी हरभट्ट शास्त्री अपने समय के जाने-माने कर्मकांडी, शैवाचार्य तथा संस्कृत के पंडित थे। अपने दादाजी से प्राप्त संस्कारों को अपने व्यक्तित्व में साकार करते हुए मेरी श्रीमती ने मेरे लेखन को मन ही मन आदर की दृष्टि से देखा है। स्वयं साहित्य की प्राध्यापिका होने की वजह से इस सारे कार्य की गुणवत्ता और महत्ता का उसे पूरा अंदाज है। कई-कई बार प्रेस में जाने से पहले मेरी रचनाएं उसने पढ़ी हैं और बहुमूल्य सुझाव भी दिए हैं। हां, मेरी पुस्तकों/ फाइलों/ कागजों की अस्त-व्यस्तता से वह तंग अवश्य हुई है और यही साहित्य के मामले में हमारे बीच छोटी-मोटी टकराहट का मुख्य मुद्दा रहा है। वह पुस्तकों को करीने से सजाने के पक्ष में रही है और मैं उन्हें 'घोटने' के पक्ष में। अधखुली किताबें, बेतरतीबी से बिखरे कागज, टेबल के दाएं-बाएं किताबों के छोटे-मोटे ढेर और उनके बीच में मैं। सच, मुझे यह सब बहुत अच्छा लगता है। कोई कागज या पत्र कहीं इधर-उधर चला जाए, फाइल कहीं दब जाए, किताब रैक में मिले नहीं- मुझे जाने क्यों उसे ढूंढ निकलने में बड़ा आनंद आता है। 
 
मेरा साहित्यिक अवदान मुख्य रूप से एक अनुवादक के रूप में अधिक है इसीलिए कई विज्ञ साथियों ने मेरी साहित्य सेवा को 'सेतुकरण' की संज्ञा दी है। 1990 में उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान ने लखनऊ में मुझे 'सौहार्द सम्मान' से अलंकृत करते हुए प्रशस्ति पत्र में कुछ ऐसा ही कहा था- 'डॉ. शिबनकृष्ण रैणा कश्मीर और हिन्दी भाषियों के बीच एक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्य प्रेमी, अनुवादक और लेखक के रूप में जाने जाते हैं। हिन्दी भाषियों को कश्मीरी साहित्य की ऊंचाइयों से परिचित करने के लिए आपने असाधारण मेहनत की और उसकी अनेक रचनाएं आज उन्हीं की सक्रियता से हिन्दी में उपलब्ध हैं। उनकी उल्लेखनीय, विशिष्ट और दीर्घकालीन हिन्दी सेवा और कश्मीरी जैसी आत्मीय भारतीय भाषा को राष्ट्रभाषियों के बीच पहुंचाने में अतुलनीय योगदान के लिए उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान उन्हें सौहार्द सम्मान से सम्मानित करते हुए 10,000 रुपए की धनराशि भेंट करता है।' 
 
यही बात 1983 में ताम्रपत्र प्रदान करते हुए बिहार सरकार के राजभाषा विभाग ने मेरे साहित्यिक अवदान के बारे में कही थी। 2014 में भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने मुझे सीनियर फैलोशिप (हिन्दी) प्रदान की और 2015 में भारत सरकार के विधि और न्याय मंत्रालय ने मुझे अपनी 'हिन्दी सलाहकार समिति' का गैरसरकारी सदस्य मनोनीत किया। केंद्रीय हिन्दी निदेशालय की कई समितियों आदि में भी मुझे काम करने का सुअवसर मिला है।
 
मैंने अनुवाद को हमेशा मूल के बराबर का ही प्रयास माना है। यह मौलिक सृजन से भी बढ़कर कष्टसाध्य कार्य है। अपनी पुस्तक 'कश्मीर की प्रतिनिधि कहानियां' (देवदार प्रकाशन, दिल्ली) में 'पूर्व निवेदन' के अंतर्गत मैंने इसी बात को रेखांकित करते हुए लिखा है- 'अनुवाद, मौलिक सृजन से भी बढ़कर एक दुष्कर कार्य है। यह काम इतना जटिल, श्रमसाध्य और विरस है कि इससे होने वाली कोफ्त (यातना) का अंदाज वही लगा सकते हैं जिन्होंने अनुवाद का कार्य किया हो। अनुवाद तो एक तरह से योगी का परकाया प्रवेश है। वह पुनर्जन्म है, रचना का पुनर्सृजन! वह द्वितीय श्रेणी का लेखन नहीं, मूल के बराबर का ही प्रयास है। 
 
सुंदर, प्रभावशाली तथा पठनीय अनुवाद के लिए यह आवश्यक है कि अनुवाद भाषा प्रवाह को कायम रखने के लिए, स्थानीय बिम्बों तथा अन्य रूठ प्रयोगों को बोधगम्य बनाने और वर्ण्य विषय को अधिक हृदयग्राही बनाने के लिए मूल रचना में आए में नाम को समान फेरबदल कर वह ऐसा लंबे-लंबे वाक्यों को तोड़कर, उनमें संगति बिठाने के लिए अपनी ओर से दो-एक शब्द जोड़कर तथा अर्थ के बदले आशय पर ध्यान देकर, कर सकता है। इस संकलन की कहानियों का अनुवाद करते समय मैंने यही किया है। ऐसा न करता तो अनुवाद 'अनुवाद' न होकर 'सरलार्थ' बन जाता। मैंने प्रयत्न किया है कि प्रत्येक अनुवादित रचना अपने आप में एक 'रचना' का दर्जा प्राप्त करे।
 
पूर्व में कहा जा चुका है कि अनुवाद पिछले लगभग 30-35 वर्षों से मेरी रुचि का विषय रहा है। अध्यापन कार्य के साथ-साथ कश्मीरी, अंग्रेजी, उर्दू आदि भाषाओं से मैंने अनुवाद का काम खूब किया है। चूंकि मेरा कार्य अपनी तरह का पहला कार्य था इसलिए साहित्य, विशेषकर अनुवाद के क्षेत्र में मुझे प्रतिष्ठा भी यथोचित प्राप्त हुई। 
 
अनुवाद कार्य के दौरान मुझे लगा कि अनुवाद विधा मौलिक लेखन से भी ज्यादा दुष्कर एवं श्रमसाध्य विधा है। (मैंने कुछ मौलिक कहानियां, नाटक आदि भी लिखे हैं) अनुवाद संबंधी अपनी दीर्घकालीन सृजन यात्रा के दौरान मेरा वास्ता कई तरह की कठिनाइयों/ समस्याओं से पड़ा जिनसे प्राय: हर अच्छे अनुवादक को जूझना पड़ता है। अनुवाद कार्य के दौरान मुझे लगा कि अपने अनुभवों को साक्षी बनाकर मुझे ऐसी कोई परियोजना हाथ में ले लेनी चाहिए जिसमें अनुवाद के सैद्धांतिक पक्षों की सम्यक् विवेचना हो तथा अनुवाद कार्य में आने वाली कठिनाइयों/ समस्याओं का विवेचन कर उनके निदान आदि पर भी सार्थक विचार हो।
 
1997 के प्रारंभ में मैंने गंभीरतापूर्वक इस परियोजना के प्रारूप पर विचार करना शुरू किया तथा इसी वर्ष के अंत में विधिवत इस परियोजना को आवश्यक पत्र/ प्रपत्रों के साथ 'भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान' शिमला को विचारार्थ भिजवा दिया। सभी भारतीय भाषाओं का ज्ञान चूंकि मुझे नहीं था इसलिए मैंने विषय सीमित कर परियोजना का शीर्षक रखा- 'भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद की समस्याएं : एक तुलनात्मक अध्ययन, कश्मीरी-हिन्दी के विशेष संदर्भ में'। 1 मई 1999 को मैंने संस्थान में प्रवेश किया। एक नए, सुखद एवं पूर्णतया शांत/ अकादमिक वातावरण में कार्य करने का यह मेरा पहला अवसर था जिसकी अनुभूति अपने आप में अद्भुत थी। लगभग ढाई वर्षों की अवधि में मैंने यह कार्य पूरा किया जिसका मुझे परम संतोष है। मेरा यह शोध कार्य संस्थान से प्रकाशित हो चुका है।
 
मित्रों का कई बार आग्रह रहा कि मुझे अनुवाद के अलावा कुछ मौलिक भी लिखना चाहिए। यह बात शायद वे इसलिए कह रहे थे कि मेरी कार्यित्री प्रतिभा में कितनी ऊर्जा और दम है, वे यह देखना चाहते थे। यों कश्मीरी भाषा, साहित्य, कला, संस्कृति आदि पर मैंने बीसियों शोधपरक/ समीक्षात्मक लेख लिखे होंगे, जो समय-समय पर देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं यथा- 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान', 'सन्मार्ग' (कलकत्ता), 'जनसत्ता', 'परिषद पत्रिका', (पटना), 'शीराजा', 'आजकल' आदि में छपे हैं, पर शायद यह मौलिक लेखन न था। मित्र चाहते थे कि मैं भी कहानियां/ कविताएं/ नाटक लिखूं और मात्र 'अनुवादक' बनकर न रह जाऊं। 
 
मैंने चुनौती स्वीकार कर ली। भीतर मन में छटपटाहट तो थी ही, रचना की भाषा से भी मैंने साक्षात्कार कर लिया था और फिर साहित्य शास्त्र का अध्येता/ प्राध्यापक होने के कारण रचना की सृजन प्रक्रिया के मूल एवं आवश्यक तत्वों की जानकारी भी मुझे थी। मैंने कहानी लिखने का प्रयास किया। 'शतरंज का खेल', 'मोहपाश', 'अंतराल', 'रिश्ते' आदि मेरी ऐसी स्वरचित कहानियां हैं जिन्होंने मुझे और मेरे मित्रों को आश्वस्त कर दिया कि मौलिक सृजन करने की मेरी संभावनाएं कम नहीं हैं। ये सभी कहानियां आकाशवाणी के जयपुर केंद्र से प्रसारित हो चुकी हैं तथा कुछेक तो 'जनसत्ता', 'राजस्थान पत्रिका', 'शीराजा' आदि में छपी हैं। पाठकों ने इन कहानियों को खूब सराहा। 
 
आकाशवाणी जयपुर केंद्र के लिए लिखे मेरे नाटक 'हब्बाखातून', 'प्रेम और प्रतिशोध', 'खानखानां रहीम' आदि भी कम लोकप्रिय सिद्ध न हुए। 'हब्बाखातून' लिखने और उसके प्रसारित होने के बाद मुझे खुद लगा कि मैं अच्छे संवाद लिख सकता हूं। जिन्होंने भी इस नाटक को सुना, मुझे बधाई दी। मेरी स्वरचित कहानियों का एक संग्रह 'मौन संभाषण तथा अन्य कहानियां' राजस्थान साहित्य अकादमी के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित हो चुका है। 'दिनन के फेर' से एक नाटक संकलन भी प्रकाशित हुआ है। 
 
साहित्य सेवाओं के लिए मुझे केंद्रीय हिन्दी निदेशालय (भारत सरकार), राजभाषा विभाग (पटना), उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, सिन्ध राष्ट्रभाषा प्रचार समिति (जयपुर), भारतीय साहित्य संगम (दिल्ली), राष्ट्रभाषा प्रचार समिति श्रीडूंगरगढ़ (बीकानेर), भारतीय अनुवाद परिषद दिल्ली आदि संस्थाओं ने ताम्रपत्रों, प्रशस्तिपत्रों तथा अभिनंदन पत्रों आदि से समय-समय पर सम्मानित किया है। दो-एक संस्थाओं ने 'साहित्यश्री' तथा 'साहित्य-वागीश' जैसी मानद उपाधियां भी प्रदान की हैं। 
 
सम्मान प्राप्ति के इन हर्षदायक अवसरों के पीछे मेरे मन में अपूर्व आनंद का भाव अवश्य व्याप्त रहा है। दरअसल, सम्मान/ पुरस्कार जड़ता (शैथिल्य) को मिटाता है, मन में नव्य कर्मोत्साह का उदय/ संचार करता है। यों सम्मान या पुरस्कार लेखक के लिए साध्य नहीं होते और होने भी नहीं चाहिए। उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान के 'सौहार्द सम्मान' की सूचना मेरी श्रीमतीजी ने मुझे अलसुबह स्थानीय दैनिक पढ़कर दी थी, तब मैं शायद सो ही रहा था। 
 
कई साहित्यिक गोष्ठियों एवं सम्मेलनों में भाग लेने के लिए मैंने पिछले 4 दशकों में देश के दूरस्थ अंचलों/ स्थानों यथा इम्फाल, वास्को-डि-गामा, जगन्नाथपुरी, एर्नाकुलम, मद्रास, पयनूर, कटक, बेंगलुरु, गुवाहाटी, शिलांग, पटना, लखनऊ, उदयपुर, कन्याकुमारी, जलपाईगुड़ी, शांति निकेतन, अमृतसर, हरिद्वार आदि जाने कितनी ही जगहों की यात्राएं की हैं। इन यात्राओं से मेरा दृष्टिकोण व्यापक और चिंतन पुष्ट हुआ है। इसी के साथ अपने देश की वैविध्यपूर्ण संस्कृति और देशवासियों के स्वभाव को भी निकट से देखने का अवसर मिला है। 
 
स्व. डॉ. प्रभाकर माचवेजी ने बहुत पहले मुझे एक पत्र लिखा था- 'आप सशक्त लेखनी और उद्यमशील शोध-बुद्धि के मेधावी स्कॉलर हैं। आप अवश्य कश्मीरी के लिए हिन्दी में बहुत अच्छा काम करेंगे।' 
 
माचवेजी की ये पंक्तियां मुझे याद दिलाती हैं कि मुझे कश्मीरी के लिए बहुत अच्छा काम करने के अपने प्रयास में कमजोरी नहीं लानी है। आयु बढ़ने के साथ-साथ घर-परिवार तथा अंदर-बाहर की जिम्मेदारियां भी बढ़ती जाती हैं और लेखन के लिए समय निकाल पाना मुश्किल हो जाता है। फिर भी अपने जीवट पर मुझे विश्वास है।