मत कीजिए हिन्दी को विकृत
सरल और सस्ती भाषा में अंतर समझें
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सुरेश चिपलूनकर '
लफड़ा', 'हटेले', 'खाली-पीली', 'बोम मत मार'... क्या कहा, इन शब्दों का मतलब क्या है? मत पूछिए, क्योंकि यह एक नई भाषा है, जिसका विस्तार (?) तेजी से हो रहा है और इनका स्रोत है मायानगरी मुंबई। इसी प्रकार 'श्रीलंकन गवर्नमेंट ने इस बात से डिनाय किया है कि उसने जफना में अपने ट्रूप्स को डिप्लॉय करने का प्लान बनाया है', क्या कहा, समझ में नहीं आया, समझने की कोशिश कीजिए, वरना बदलते जमाने की दौड़ में आप पीछे छूट जाएँगे। इस भाषा का स्रोत है हमारी राजधानी दिल्ली के कुछ वातानुकूलित ऑफिस और उनमें काम करते 'चॉकलेटी युवक' जिन्हें न तो भाषा से कोई मतलब है, न ही इस बात से कि इस प्रकार की भाषा का संप्रेषण करके वे किसके दिल-दिमाग तक पहुँचना चाहते हैं। किसी भी भाषा का विस्तार, उसका लगातार समृद्ध होना एवं उस भाषा के शब्दकोष का विराटतर होते जाना एक सतत् प्रक्रिया है, जो वर्षों, सदियों तक चलती है। इसमें हिन्दी या अँगरेजी भी कोई अपवाद नहीं है, परंतु उपरोक्त उदाहरण हमारे सामने एक गंभीर प्रश्न खड़ा करते हैं कि आने वाले दस-बीस वर्षों में आम बोलचाल की भाषा क्या होगी, उसका स्वरूप कैसा होगा? क्या इस 'हिंग्लिश' को ही हम धीरे-धीरे मान्यता प्रदान कर देंगे? न सिर्फ 'हिंग्लिश', बल्कि मुंबइया बोलचाल की भाषा भी तेजी से फैल रही है और प्रचलित भाषा को भ्रष्ट किए दे रही है। आमतौर पर इस बात पर बहस चलती रहती है कि समाज में जो घटित होता है, उसका असर फिल्मों पर होता है, या फिल्मों/ टीवी में जो दिखाया जाता है, उसका असर समाज पर पड़ता है। दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं, परंतु जिस तेजी से 'पेटी' और 'खोके' को आम जनता समझने लगी है, वह निश्चित तौर पर फिल्मों का ही असर है। इस बहस में न पड़ते हुए यदि हम गहराई से सिर्फ भाषा के भ्रष्टाचार पर ही विचार करें, तो हम पाएँगे कि आम बोली को फिल्में और टीवी ही प्रभावित करते हैं, क्योंकि उक्त भाषा अभी सिर्फ शहरों तक ही सीमित है, लेकिन जाहिर है कि यह कस्बों और गाँवों तक भी जाएगी। आज भी कस्बे या गाँव का कोई युवक किसी महानगर में जाता है, तो उसे ऐसा लगता है कि वह फिनलैंड या विएतनाम पहुँच गया हो, जहाँ उसके आसपास के लोग अजीब-अजीब तरह की भाषाएँ बोलते हैं। जनमानस पर समाचार पत्र, फिल्में और टीवी गहरा प्रभाव डालते हैं, इसमें दो राय नहीं हो सकती। सीधी सी बात है कि भाषा के पुष्ट होने या उसके भ्रष्ट होने का दोष भी इन्हीं पर सर्वाधिक है। इसमें सर्वाधिक नुकसान हो रहा है उर्दू भाषा का। नुकसान तो हिन्दी का भी हो रहा है और कहीं न कहीं अँगरेजी का भी, परंतु उर्दू की तुलना में नहीं। आजकल फिल्मी गीत भी धीरे-धीरे 'शबनम', 'नूर', 'हुस्न' आदि से हटकर 'खल्लास', 'कमबख्त' और 'कमीना' पर आ गए हैं, वहीं डायलॉग भी 'मुलाहिजा', 'अदब' और 'तशरीफ' से हटकर 'कायको', 'निकल पड़ी' और 'चल बे' पर आ गए हैं। ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले कुछ वर्षों में उर्दू भाषा या तो शब्दकोश में रह जाएगी, या फिर चंद महफिलों में गजलों में सुनाई देगी। रही-सही कसर कम्प्यूटर के बढ़ते प्रचलन और ई-मेल ने पूरी कर दी है, जिसमें फिलहाल अँगरेजी की ही बहुतायात है। भाई लोगों ने यहाँ भी'हाउ आर यू' को 'एच आर यू' और 'रिस्पेक्टेड सर' को'आर सर' बना डाला है। पता नहीं इससे समय बच रहा है, या 'गलत आदत' पड़ रही है। हिन्दी में भी है, जहाँ 'ङ्' का प्रयोग लगभग समाप्त हो चुका है और 'ञ्' तथा 'ण्' का प्रयोग भी खात्मे की ओर है। अब हमें 'मयङ्क', या 'रञ्ज' या 'झण्डा', या 'मन्दिर' कम ही देखने को मिलते हैं, सीधे-सीधे 'मयंक, रंज, झंडा और मंदिर' हो गए हैं, सबकी सुविधा के अनुसार हमने भाषा को मोड़ दिया है। माना कि भाषा को लचीला होना ही चाहिए, लेकिन ग्रहण करने में और भ्रष्ट होने में फर्क है। ऑक्सफोर्ड की अँगरेजी ने भी हिन्दी से 'पराठा', 'अचार' और 'लस्सी' ले लिया है, क्योंकि यह बाजार की माँग है और हिन्दी ने स्टेशन ','पेन','ट्रेन' आदि अनेक शब्दों को लिया है, परंतु यह दो सौ वर्षों के अँगरेजी शासनकाल के कारण माना जा सकता है। लेकिन अभी जो आम बोलचाल की हिन्दी भाषा है, कम से कम उसे तो विकृत होने से बचाया जाना चाहिए।