गुरुवार, 28 नवंबर 2024
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पार्थ...तुम्हें जीना होगा : वर्तमान की विडंबनाओं का प्रभावी दस्तावेज़

पार्थ...तुम्हें जीना होगा : वर्तमान की विडंबनाओं का प्रभावी दस्तावेज़ - Parth, Tumhe jeena hoga
"पार्थ ...तुम्हें जीना होगा" से प्रतिष्ठित साहित्यकार ज्योति जैन ने उपन्यास विधा में कदम रखा है, और अपने पहले ही प्रयास में उन्होंने राजनीति जैसे स्त्रियों द्वारा अपेक्षाकृत कम लिखे जाने विषय पर अपनी गहरी समझ और दृष्टि साबित की है। 

 
यह एक लघुउपन्यास है और आपको अपने आप से जोड़ने में सर्वथा सक्षम है। एक लेखक की अनुभूति और विचार जब पाठक की अनुभूति और विचार से तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं वहीं लेखक की सफलता सुनिश्चित हो जाती है। अपने आसपास फैले निराशा के आवरण में लिपटी सत्ता को परिवर्तित करने का सपना हर जागरूक और संवेदनशील व्यक्ति देखता है। उठाए गए मुद्दों से लेखिका गहरे सामाजिक सरोकारों, राष्ट्र की स्थिति से उपजी चिंता और उसके हल के लिए उनकी तड़प से हमें गहरे तक प्रभावित करती है।
 
यह उपन्यास कहने को तो लघु है किंतू विराट विषयों को उठाता है और प्रभाव में दीर्घ है। पार्थ,पृथा, अनुराधा, अशोक, जनार्दन और युवा कार्यकर्ताओं के साथ यह एक साथ कई विषयों को साथ लेकर चलता है। पृथा के माध्यम से नारी विमर्श, पुरुष दंभ, स्त्री की सामाजिक स्थिति व आदिवासी कल्याण का भाव है, तो दूसरी तरफ अनुराधा के माध्यम से वे युवा पीढ़ी की अपने को साबित करने की ज़िद और आरक्षण जैसे मुद्दे पर प्रकाश डालती हैं। 
 
अशोक पुरोहित और जनार्दन अंधकार में प्रकाश की किरण की भांति आदर्शवादी, नैतिक और मूल्यपरक राजनीति की आवश्यकता व उनकी कठोर राह को बताया गया है और उपन्यास का केंद्रीय पात्र पार्थ जिसके नाम से उपन्यास का शीर्षक है, ठीक पार्थ की ही तरह कई तरह के भावनात्मक द्वंद्व से घिरे हुए अर्जुन की याद दिलाता है। युवा जोश, देश को बदलने का जज़्बा और जल्दबाज लेकिन स्वार्थी राजनीतिज्ञों व षड्यंत्रों के चक्रव्यूह को न समझ पाने की स्वाभाविक दूरदृष्टि व अनुभव का अभाव,  पीढ़ियों की सोच का अंतर सहजता से प्रस्तुत हुआ है। लेकिन एक ईमानदार कोशिश के रूप में पार्थ अपने समान युवाओं का आह्वान सा करता नज़र आता है। जब वह कहता है "मुझे बस कर्मठ ईमानदार युवा मिल जाएं... वहीं उपन्यास में युवाओं की ऊर्जा का नकारात्मक दिशा में प्रवाह देख पार्थ की लाचारी हमें हमारी बेबसी भी लगती है। 
 
युवा ही देश का भविष्य हैं और अपने बुजुर्गों से अनुभव का लाभ लें वे राष्ट्र निर्माण की नई इबारत लिख सकते हैं,  यदि उनकी ऊर्जा को सकारात्मक दिशा दी जा सके, किन्तु प्रारंभ  पूर्ववर्ती पीढ़ियों को करना होगा क्योंकि युवाओं को विकृत विरासत अपने पूर्वजों से ही मिली है,अपने हर चरित्र के माध्यम से लेखिका का यह स्वर हर बार गूंजता रहता है। जनार्दन अंकल, पृथा और अनुराधा का पार्थ से निस्वार्थ जुड़ाव एक आशा की किरण भी जगाता है कि सबकुछ बुरा नहीं है और अच्छे लोगों का संगठित होना समय की मांग है।
 
संवादों का अधिक प्रयोग उपन्यास को गति प्रदान करता है। चूंकि लेखिका लघुकथाकार है और इस लघु उपन्यास में बड़े जटिल विषयों को लेकर वे आईं हैं अत: बहुत विस्तार किसी भी विषय को नहीं दिया ताकि उपन्यास का केंद्रीय भाव तिरोहित न हो। यही उपन्यास की ताकत है और उनकी गागर में सागर वाली लेखनी को सिद्ध करता है। पढ़ते समय केवल एक बात हमें थोड़ी सी खटक सकती है कि कहानी बेहद सीधे सपाट ढंग से आगे बढ़ती है, कभी कभी थोड़ा उलझाव, थोड़ा घुमाव रास्ते को और रोमांचक बना देता है, आखिरी के कुछ पन्नों में हमें वह रोमांच महसूस होता है। 
 
साहित्यकार पंकज सुबीर के शब्दों में कहें तो 'चमत्कार गढ़ने की कोशिश में कईं बार कहानी की सहजता ख़त्म हो जाती है' शायद यही कारण रहा हो कि लेखिका ने किसी तरह के उलझाव में न पड़ते हुए अपनी बात सीधे-सीधे कही है। शिल्प के टोटके, शाब्दिक आडंबर, भाषा के चमत्कार इसमें नहीं है पर कथानक की कसावट विद्यमान है। 
 
उपन्यास प्रभावित करता है किंतु अंत में कोई हल प्रस्तुत नहीं करता। लेकिन यह उपन्यास की कमी नहीं है बल्कि उसकी स्वाभाविकता है, क्योंकि जिन मुद्दों को लेखिका ने उठाया है उनका कोई त्वरित हल है ही नहीं,केवल प्रयास और समय ही इनके उत्तर दे सकते हैं। बस एक उम्मीद और आह्वान के साथ लेखिका उपन्यास का अंत कर देती हैं। हर युग में हर पार्थ को तमाम विषमताओं से संघर्ष कर जीना होगा, क्योंकि मृत्यु और पलायन कभी कोई हल नहीं दे सकते।
 
उपन्यास शिल्प और प्रभाव में उत्कृष्ट है।पठनीयता से भरपूर उपन्यास के लिए लेखिका बधाई की पात्र हैं।