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Last Updated : शनिवार, 4 मई 2024 (15:04 IST)

The 90's: मन की बगिया महकाने वाला यादों का सुनहरा सफर

Book review
मैंने देखा टेलिविजन पर दूरदर्शन लिखा हुआ और उसका वह  लोगो... अनायास ही मन में वह परिचित धुन बजनी लगी। फिर देखा कंचों से भरा बक्सा, रेडियो, टेप रिकॉर्डर, कैसेट्स, मैच बॉक्स, सीटी, चाबी, लूडो गेम, चंपक, चाचा चौधरी, चंदा मामा ये किताबें, छोटी सी गुडिया, रंगीन गेंद, इरेजर और कई ऐसी चीजें जो उसे जमाने में रोज के उपयोग में आने वाली थी।

उसके साथ-साथ ही एक सुंदर सा अबोध बालिका का चेहरा जो प्रतिनिधित्व कर रहा था उसे जमाने का और इस किताब में मेरी प्यारी ऋचा का… ऋचा दीपक कर्पे का।

इतने सुंदर मुखपृष्ठ की कल्पना जिनके जहन में आई, ऐसे प्रसिद्ध चित्रकार और ऋचा के मित्र सारंग क्षीरसागर जी की इस अभिव्यक्ति ने निश्चित ही मेरा मन मोह लिया।

अंदर की अर्पण पत्रिका मे ऋचा ने इसे समर्पित किया था, अपने शहर देवास को, जहा पर उसका बचपन बीता, उसके विद्यालय को, जहां पर उसने जीवन की, बुनियादी शिक्षा ली। इसी में और अपने सब दिल के करीब के लोगों के प्रति धन्यवाद लिखने में ऋचा के संवेदनशील मन की प्रतिमा मेरे सामने उभरने लगी।

इसके बाद जैसे ही मैंने एक एक लेख पढ़ने की शुरुआत की तब हर लेख पर मुझे अभिव्यक्त होने की इच्छा होती गई और मेरी लेखनी भी मुझे साथ देती गई। इसलिए गिने चुने कुछ ही भागों के बारे में ना लिखते हुए मैंने हर भाग पर मेरे मन में आई प्रतिक्रियाएं यहां पर व्यक्त की है। इतना ज्यादा मुझे ऋचा का लेखन भा गया है।

90 का जादूई समय बताते समय ऋचा ने उस समय की चीजें और तुलना में आज के जमाने की चीजें, बहुत ही अच्छे तरीके से बताई है जैसे की "हमने वे दिन भी जिए है, जब हम पोस्टकार्ड लिखते थे और महीनों जवाब का इंतजार करते थे, और अब ईमेल और व्हाट्सएप मैसेज से हमें तुरंत जवाब मिलते हैं। तब दूरदर्शन पर केवल रविवार को एलिस इन वंडरलैंड और मोगली आता था और आजकल कार्टून नेटवर्क पर 24 घंटे कार्टून देख सकते हैं। तब के जमाने में बिल्लू, पिंकी, नंदन चंपक ,नागराज इत्यादि कॉमिक्स की जादुई दुनिया थी और आज ई-बुक्स की दुनिया का भी मजा ले रहे हैं। तुलनात्मक परीक्षण ऋचा ने बहुत ही सुंदर तरीके से किया है। और आखिर की चार पंक्तियां तो बिल्कुल दिल को छूने वाली है।

गम किसे नहीं है, हंसने का कोई बहाना ढूंढ ले, खामोश सभी हैं ,कहने का कोई फसाना ढूंढ ले
वक्त कहां है,रुकने का कोई बहाना ढूंढ ले, उम्र गुजर रही है, बचपन का वह जमाना ढूंढ ले

उसके बाद ‘आखिरी पन्ना’ में ऋचा ने अपनी पाठशाला की यादें बताते बताते हमें भी अपने बच्चों के और अपने खुद के बचपन में झांकने पर मजबूर कर दिया। पाठशाला के दिन दोस्तों के साथ बेर खाना, नई कॉपियां और उनकी सुगंध, उन पर अलग-अलग कवर चढ़ाना, और कोई भी कवर देख कर अध्यापकों की डांट ना पड़ना, अपनी सूक्ष्म निरीक्षण बुद्धि का एक उदाहरण ऋचा ने यहां पर दिया है ये लिख के, की तब शिक्षा का व्यवसायीकरण नहीं हुआ था। और कॉपी का आखिरी पन्ना.... उसकी यादें... ऋचा सही में, हमे भी अपने बचपन में लेकर गई थी।
उसके बाद "पंछी बनूं उड़ती फिरूं" इस लेख में भी ऋचा का शब्द सौंदर्य बहुत ही बढ़िया है, जैसे के "चार दीवारें ही हमारे लिए पूरी दुनिया थी" और "शिक्षकों का, सिलेबस कंप्लीट करने की बजाय एक कंपलीट पर्सन तैयार करना ध्येय होता था... "और सही में इसमें दी हुई सभी बातें मन को एकदम से सही महसूस होती है, जैसे की हम दिन भर एक दूसरे के घर रहते थे, तब कोई फोन नहीं थे, लेकिन हमारे माता-पिता को कभी चिंता नहीं हुई कि बच्चे कहां हैं किसके घर है, क्या खा रहे हैं। सही में वह जमाना ऐसा ही था दोस्ती और विश्वास के संबल पे सब कुछ सही चलता था।

उसके बाद "रसना वाला बचपन" इसमें भी ऋचा, हमें उस जमाने में लेकर गई जब हम भी सब ऐसे ही रसना तैयार करते थे, घोलते थे बर्फ मिलाते थे और उसका मजा लेकर ,चुस्कियां भरकर पी जाते थे। और वह पेप्सी, प्लास्टिक की लंबी सी पतली सी थैली। उसको तो बच्चों के साथ-साथ हम बड़े भी बड़े शौक से चूसते थे। शादियों में टंकी में घोलकर बनाया हुआ रसना और उसके साथ-साथ बचपन के खेल– जैसे के अष्ट चंग, सांप सीढ़ी, घर-घर, लूडो। साथ में गटागट या संतरे की गोली, पारले-जी की चॉकलेट इन सबको ऋचा ने बहुत सुंदर तरीके से पिरोया है। पढ़ने में बहुत ही मजेदार लग रहा है।

"छत वाली छुट्टियां" यह लेख मुझे बहुत ही पसंद आया है। ऋचा ने न सिर्फ छत पर सबके साथ सोने की यादें बताई है, बल्कि उसे समय दिखने वाला आकाश, चांद, तारे इनका अनुपम शब्दों में बहुत ही सुंदरता से वर्णन किया है। खुला- खुला सा आसमान, छिटके तारे, अजीब सा सन्नाटा, हल्की सी हवा, दूधिया सफेदी में नहाया चांद.... इतने सुंदर शब्दों मे किया हुआ वर्णन पढ़कर आज भी इच्छा होती है कि फिर से एकाध रात सब अपनों के साथ छत पर बिताये.... हां दादा दादी और सब रिश्तेदार इन सबके साथ अपनत्व की, एकता की भावना, आधी आधी रात तक चलने वाली अंताक्षरी, ताश, हॉरर कहानियां यह सब एक्टिविटीज मुझे लगता है तब के हर घर में हुआ करती  थी। और वह नॉस्टैल्जिया ऋचा ने बहुत ही बढ़िया तरीके से प्रदर्शित किया है। इस लेखों की माला में ऋचा का साहित्यिक अंग हर लेख में दिख रहा है महसूस हो रहा है।

"खिलौने" में भी उस वक्त के सभी खिलौने ऋचा ने ज्यों का त्यों वर्णन करके बताए हैं। हमारी भी यादें ताजा कर दी है। दादी का मशीन पर कपड़े सिलना और उसी कपड़े का गुड़िया के लिए भी फ्रॉक सिलना और बाबा ने ग्वालियर से लाया हुआ छोटा सा चीनी मिट्टी का चाय का सेट, ऋचा ने छोटे-छोटे बर्तन में बनाया हुआ दाने,पोहे, परमल, गुड शक्कर बिस्कुट से बनाया हुआ खाना.... सब चीजें आंखों के सामने वैसे के वैसे आ रही थी और आखिर में जो कहा है उसने ,की तब अगर फोन होता तो घरकुल, गुड़िया यह भी नहीं होता ,ना समय होता, ना मासूमियत भी होती... बिल्कुल सही कहा…

"जिंदगी के सफर में" यह लेख भी इतना सुंदर हुआ है की कब शुरुआत हुई और कब खत्म हुआ यह समझ ही नहीं आया।  हमारी भी पुरानी यादों का सफर इसके साथ चल ही रहा था। बिल्कुल सही कहा है ऋचा ने की रेल में बैठकर अचार पूड़ी खाने का मजा कुछ और ही है। बिल्कुल ऐसे ही हमारी भी सफर रहते थे। जब मैं "हमारी" लिख रही हूं तब इसका मतलब की मैं मेरे बचपन की भी बात कर रही हूं और मेरे बच्चों के छुटपन के भी बात कर रही हूं। यानी के पुराने जमाने में भी ऐसा ही सब कुछ होता था और 90s क्या 2010 तक भी थोड़ा बहुत ऐसा ही माहौल था। मां के गांव जाना यह तो सबसे पसंदीदा चीज हमारे लिए भी रहती थी और स्टेशन पर लेने आए हुए लोगों के आंखों का आनंद हमारे भी दिल तक पहुंचता था और वह खुशी सचमुच अवर्णनीय थी। आज ना वैसे रेल का सफर रहा, ना अपने लोग रहे... सब अतीत में खो गए हैं, लेकिन हमेशा से ही अनमोल है।

"शादियों का मौसम" में भी उस जमाने की शादियों का यथोचित वर्णन किया है। मेहमानों से भरा हुआ घर,15-15 दिन पहले ही सबका आना, घर के पीछे का आंगन ही रसोई बनाना, हंसी मजाक, नहाना, धोना और सब का एक दूसरे के प्रति अपनत्व, इनके साथ ही ऋचा ने घर के दीवारों का नाम लेकर इस लेख को भावनापूर्ण बनाया है। सही बात है अब ना वैसे शादियां हैं ना इतने दिन पहले लोग रहने आ रहे हैं, इतना ही नहीं अगर मेहमानों के लिए बुक किए हुए रिजॉर्ट्स या होटल दूर हो तब तो उनका घर में आना संभव ही नहीं। शादी के हर चीज का बहुत अच्छा वर्णन ऋचा ने इसमें किया है। उसके विचारों को, कल्पना शक्ति को और हर बात को वर्णित करने की विशेषता को हमारा दिल से सलाम।

"बचपन वाला बर्थडे" भी बिल्कुल वही बर्थडे आंखों के सामने लाया गया, जो तब जैसे मनता था। और इसमें से ऋचा का संवेदनशील मन प्रतीत होता है, जिसे उन सब चीजों की अहमियत आज भी बहुत ज्यादा है, यह समझ आता है की बर्थडे गर्ल को ही कुर्सी पर बैठने मिलता था, सामने वाले गोलमेज पर कढ़ाई वाला टेबल क्लॉथ और उस पर केक.... यह सब पढ़ के बिल्कुल इसी तरह मनने वाला तब का बर्थडे आंखों के सामने आया। ऋचा के मनपसंद छोले पुरी पढ़कर अब ऋचा जब कभी मेरे घर आएगी तब मैं उसे छोले पूरी ही खिलाऊंगी ऐसा मैंने सोचा... कहने का मतलब ऋचा का लिखना या लिखने की स्टाइल बहुत ही परिणाम कारक होती है यह मुझे बताना है।

"बैठे-बैठे क्या करें.." इसमें ऋचा ने अंताक्षरी के साथ-साथ ही विष अमृत, लंगडी, घोड़ा बदाम छाई, नदी पहाड़ इत्यादि खेलों के बारे में बहुत अच्छी यादें बताई। ताश में सत्ती सेंटर, not at home, दहला पकड़, झब्बू, गुलामचोर आदि खेलों के बारे में सब भीनी भीनी यादें बताई।

उसके बाद "90 के समर कैंप" में ऋचा ने थोड़े व्यंग्यात्मक तरीके से यह बताया है कि आजकल के बच्चों के साथ खेलने वाले उनको कुछ नई चीज़ सिखाने वाले बुजुर्ग या रिश्तेदार अब उनके साथ नहीं रहते इसलिए उनको समर कैंप की जरूरत पड़ती है, वरना 90s में घर में मौसी, मामा के बच्चे, मौसी की ननंद, मामी की बहन, चाचा का भाई सब लोग इकट्ठा होते थे, और घर के गेहूं बिनने से लेकर विभिन्न कामों में और इन बड़ों से अलग-अलग चीज सीखने में गर्मी की छुट्टियां कब खत्म होती थी यह समझ भी नहीं आता था। ऋचा ने लिखा हुआ हर लेख भावनाओं से लबरेज है।


"सबसे प्यारे दोस्त" में किताबों की खूबसूरत दुनिया में ऋचा हमें लेकर जाती है। और बचपन में पढी हुई सब किताबें आंखों के सामने नाचने लगती है। ऋचा, तुम अगर मुझसे मिलने आओगे तो क्या मैं तुम्हें फिर से रूसी लोक कथाएं भेंट में दे दूं? और इन सब के साथ ही लेख के आखिर में ऋचा ने जो सुझाव दिया है वह बड़ी आवश्यक चीज है कि आज के जमाने में भी बच्चों को उपहार में किताबें देकर देखिए। उनको जरूर पसंद आएगी।

"सत्यम् शिवम सुंदरम" में ऋचा ने कोरोना के समय की यादों का वर्णन किया है। और उसी के साथ-साथ रामायण, महाभारत, रंगोली और बच्चों के लिए एलिस इन वंडरलैंड, पंचतंत्र, कथा पोटली बाबा की, मोगली यह सब 90 के दशक के टेलिविजन प्रोग्राम्स के बारे में रुचि पूर्ण बातें लिखी है जिसमें हम लोग नुक्कड़, बुनियाद और बच्चों के लिए एलिस इन वंडरलैंड वगैरह सीरियल्स की बहुत ही अच्छी याद हमें दिलाई है।

"दिल है के मानता नहीं" में ऋचा ने 90 की फिल्मों की बहुत ही सुनहरी यादें बताई है। 90 की फिल्में जो आज भी सदाबहार है, उनके बारे में और उसे वक्त के फिल्म के कलाकार जो आज भी बहुत ही प्रसिद्ध है उनके बारे में बता कर हमारी यादें ताजा कर दी है। धक धक गर्ल माधुरी दीक्षित (तुम्हे पता है ऋचा, ये माधुरी, मेरे कॉलेज में मेरे साथ पढी है) श्रीदेवी, जूही चावला, रवीना टंडन, मनीषा कोईराला, करिश्मा कपूर, शिल्पा शेट्टी, काजोल, शाहरुख खान, आमिर खान, सलमान खान, सुनील शेट्टी, अनिल कपूर ,जैकी श्रॉफ, चंकी पांडे ऋषि कपूर, विनोद खन्ना और उनकी सदाबहार फिल्में इनके नाम पढ़ के ही हम उसे जमाने में खो गए... फिल्मों के साथ-साथ संगीतकार और उसे वक्त के गायक इन सब के नाम बिना भूले ऋचा ने लिखे है। उसी के साथ-साथ उसे वक्त बने एल्बम के बारे में और अलीशा चिनॉय, फाल्गुनी पाठक, सुचित्रा कृष्णमूर्ति इत्यादि नॉन फिल्मी गीत गाने वाले गायकों को भी याद से उपस्थित किया है। इसमें ऋचा ने जितने भी गाने दिए हैं हर की एक-एक लाइन तो मैंने गुनगुनायी है.... और यह सब पढ़ कर मन को एक अनोखा आनंद प्राप्त हुआ है। और आज इन soft and romantic फिल्मों का दौर खत्म हुआ इसका मन में दुख जरुर महसूस हुआ।

"जादू का चिराग" में ऋचा ने 90 के जमाने में हम चाहे चाट भंडार हो या स्कूल की टंकी के नल से पानी पीना हो तो भी कभी इतना सोचते नहीं थे जितना आज अगर हमें साफ सुथरा स्वच्छ पानी मिल रहा है कि नहीं इस बारे में सोचते हैं इस तरह की यादों को ताजा किया है। इसमें उसने बर्फ का गोला गन्ने का रस उसमें डालने वाला बर्फ और बगैर चिंता किए खायी हुई हर चीज की याद बताई है। हमने मन में तब कभी वायरस के बारे में सोचा ही नहीं था और हमें इतनी जल्दी ऐसा कुछ होता भी नहीं था, यह बताया है। हां बीमार हुए, बुखार आया, पेट दुखना कान दुखना यह तो होता था... पर यह बातें आम थी और बस फैमिली डॉक्टर पर पूरा भरोसा था यह बताया है। और सही में बात यह है कि यही सब उन दिनों होता था बिल्कुल यही.... बर्फ का गोला, पानी पुरी, भेल, गन्ने का रस यह सब चीजें हमने भी बिना सोचे समझे बहुत बार बाहर खाई है और स्कूल की टंकी के नल से तो 90 के दशक क्या हमारे जमाने में भी हमने यही सब मजे किए हैं। इन बातों को पुनः पढ़कर बहुत ही मजा आया। इसी मैं ऋचा ने फैमिली डॉक्टर और कोरोना के कठिन काल में दिन-रात सेवा में लगे चिकित्सकों को बिना भूले धन्यवाद भी दिया है। हर लेख लिखने के पहले उसने कितनी तैयारी की होगी यह पढ़ते हुए समझता है।

"रंगों के गुब्बारे" में ऋचा ने कोरोना के समय लिखे हुए एक लेख यहां पर ऊर्ध्रित किया है। हर लेख की शुरुआत बहुत ही आकर्षक ढंग से ऋचा ने की है। इसमें होली और रंग पंचमी की यादें बहुत ही सुंदर तरीके से दी है। और यह बताते हुए हमारी भी वह यादें ताजा कर दी है। यादों के इस बिखरे हुए रंगों को एक करके एक सुंदर सी रंगीन मुस्कान हमारे चेहरे पर ऋचा की वजह से आई है।

"मेरा कुछ सामान" इसमें ऋचा ने साफ सफाई करते हुए मिली हुई पुरानी चीजों की यादें हमारे साथ साझा की है। खत, पेन डायरी अलार्म घड़ी पापा ने दिया हुआ वॉकमैन, कागज से कटे हुए हीरो हीरोइन के फोटो, पोस्टर्स, आर्चीज गैलरी के ग्रीटिंग कार्ड्स इनकी सुनहरी यादें पढ़ने की कब शुरुआत की और कब खत्म हुआ यह समझ भी नहीं आया।

और आखिर में "hello millennium" इसमें हम पढ़ते हैं, मिलेनियम का खुशी से किया हुआ स्वागत और उसी समय 90 के दिसंबर महीने की भावभीनी यादें बताई है, जिसमें 31 दिसंबर की रात टीवी पर देखा फिल्म फेयर अवार्ड कार्यक्रम, नये साल की शुरुआत में कॉपियों पर तारीख लिखते समय हुए अवर्णनीय आनंद की बात, समाचार पत्रों के रंगीन पन्ने का वो इंतजार और मुहल्ले में होनेवाले कार्यक्रम की यादों के साथ ही 90 को विदा कर के 2000 के हायटेक युग में प्रवेश करते ही नए जमाने का आगाज, कलम की जगह कंप्यूटर, लेपटॉप, iphone, स्मार्ट फोन कब जीवन में आए उसका पता ही नहीं चला। पत्र की जगह  एसएमएस, मेल, व्हाट्सएप, नेट ले ली। आखिर में उसने कहा की इस तकनीकी प्रगति का आनंद लेते-लेते मन कृत्रिम होता जा रहा है सूखता जा रहा है, ऐसा अगर लगे तो 90 का यह बक्सा खोलिए और कर दीजिए अपने मन के आंगन में यादों की बौछार....

जब पूरी किताब पढ़ ली तब मन ही नहीं हो रहा था की पुस्तक बंद करु... लग रहा था फिर से पन्ने पलटा दूं... और ऋचा ने दिए हुए कल्पना के पंख लगा के 90 के दशक में ही रह जाऊं… इतनी सुंदर निर्मिती के लिए ऋचा तुम्हारा बहुत-बहुत अभिनंदन. यह विषय तुम्हारे मन में कैसे आया इसका मैं अब तक आश्चर्य  कर रही हूं। तुम्हारे यादों की बगिया में से इतने अलग-अलग रंग के, ढंग के खूबसूरत फूल... उनका आनंद हमने भी ले लिया, और हमारे मन की बगिया भी सच कहती हूं, महक उठी। मैं निश्चित ही मेरे बच्चों को यह किताब पढ़ के जरुर दिखाऊंगी या पढ़ने के लिए दे दूंगी। उन्हें भी पता चलेगा 90s के अनोखे आनंद का।
पुस्तक : शॉपिज़न, एमेजॉन और फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध है।
समीक्षा : सुषमा ठाकुर।
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