वर्जित बाग़ की गाथा
जीवित शब्दों से धड़कती किताब
ये समीक्षा नहीं है, सचमुच समीक्षा नहीं है। समीक्षा तो पुस्तक की होती है, जीवित गाथाओं की नहीं। अच्छा बुरा पहलू तो लिखे हुए हर्फ़ों का देखा जाता है, उन हर्फ़ों का नहीं, जो रूह बनकर गाथाओं के शरीर में बसते हों। कुछ हर्फ़ आँखों से गुज़र कर चेतना बन कर हमारे अचेतन मन में ज़िंदा रहते हैं, जैसे इन गाथाओं के वर्जित करार दिए गए चरित्र ज़िंदा है अब तक मेरे मानस पटल पर। मैं अक्सर लोगों से एक सवाल करती हूँ, यदि ज़िंदगी को किसी इन्सानी रिश्ते का नाम दिया जाए, तो आपको कौन-सा रिश्ता सबसे ज्यादा ज़िंदा लगता है? मेरे इस सवाल का जवाब मुझे इस पुस्तक में अमृता प्रीतम के शब्दों में मिला- ' आशिक़ और दरवेश मन की एक ही अवस्था का नाम है, एक ही क्रांति का नाम है। जिसने उस तलब के कई क़दम उठा लिए होते हैं, मदहोशी से होशमन्दी की ओर उठाए क़दम जो बदन की सीमा से गुज़रकर असीम की ओर जाते हुए राह की होशमन्दी होते हैं।' इस पुस्तक के हर उस चरित्र को मैं सबसे ज्यादा ज़िंदा कहूँगी, जिसने कहीं न कहीं, कभी न कभी अदन बाग़ के वर्जित क़रार दिए गए फल को चखा, उसकी सोई हुई आत्मा जागकर उसकी छाती में धड़की और ख़ुदाई रोशनी के कण को धारण कर लिया। और वो आशिक के बदन से गुज़रकर दरवेश हो गए। खुद अमृता प्रीतम द्वारा लिखित ' वर्जित बाग़ की गाथा को लेकर कुछ हर्फ़' को यदि आप गौर से पढ़ेंगे, तो इस पुस्तक में समाहित बाकी 22 गाथाओं के उलझे धागों के सिरे इसी भूमिका पर आकर खुलेंगे। इसकी शुरुआत होती है ' छठा तत्व' (सुधांशु द्वारा लिखी गाथा) से फिर ' सपनों के बीज' (जसबीर भुल्लर की गाथा) की सुगंधित नज़्म से होते हुए आप ' प्रेतनी' (प्रबोध कुमार सान्याल की गाथा) तक पहुँचते हैं, तब तक वर्जित शब्द के मायने बदल चुके होते हैं, जो ' कन्यादान' (राजेश चन्द्रा की गाथा) तक पहुँचते-पहुँचते 'सुपर-नेचुरालिज़्म' तक आ जाते हैं, जिसे यदि अलौकिक कहेंगे तो बाकि सारी गाथाओं के साथ नाइंसाफी होगी, क्योंकि आपको बाकी सारी गाथाओं में हर भावना अलौकिक ही नज़र आएँगी, जिसका सुरूर अंतिम कृति 'ऋत आए ऋत जाए' (देविन्दर द्वारा लिखित गाथा) तक बना रहता है। |
किसी पुस्तक की सफलता इससे नहीं नापी जा सकती कि उसकी कितनी प्रतियाँ बिकी है, बल्कि इससे नापी जा सकती है कि एक ही व्यक्ति ने उस पुस्तक को कितनी बार पढ़ा है!
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यदि यहाँ इन सारी 22 गाथाओं को कोई समझने या समझाने का प्रयास करें, तो ऐसी और 22 पुस्तकों की रचना हो सकती है, क्योंकि कुछ विचार, कुछ लोग और कुछ रिश्ते दुनियावी तौर पर वर्जित क़रार दिए जाते हैं, लेकिन कायनाती तौर पर ख़ुदाई रोशनी को धारण किए हुए होते हैं। और उस खुदा को चंद लफ्ज़ों में बाँधना, हवा को मुट्ठी में बाँधने जैसा होगा।इस पुस्तक के हर्फ़ों ने यदि आपके हृदय के वर्जित स्थान पर बिना आपकी अनुमति के अतिक्रमण नहीं किया, तो समझिएगा आप अब भी उस वर्जित क़रार दी गई ऊँचाई को छू नहीं सके हैं, जहाँ तक अमृता प्रीतम ने पहुँचकर आदम और हव्वा के हर गुनाह को अपने नाम कर उन्हें दोषमुक्त किया है। सूरज देवता दरवाज़े पर आ गया किसी किरण ने उठकर उसका स्वागत नहीं किया मेरे इश्क़ ने एक सवाल किया था जवाब किसी भी ख़ुदा से दिया न गया....... इस पुस्तक के अंत में यह पंक्तियाँ बिखरी हुई मिली...' ऋत आए ऋत जाए' को पढ़ने के बाद का ज़हनी सुकून अचानक इन पंक्तियों से गुजरकर बिखर जाता है, और फिर इन पंक्तियों का रहस्य जानने के लिए आप दोबारा पुस्तक के पहले पन्ने पर पहुँच जाते हैं। किसी पुस्तक की सफलता इससे नहीं नापी जा सकती कि उसकी कितनी प्रतियाँ बिकी है, बल्कि इससे नापी जा सकती है कि एक ही व्यक्ति ने उस पुस्तक को कितनी बार पढ़ा है!पुस्तक : वर्जित बाग की गाथा लेखिका : अमृता प्रीतम प्रकाशक : हिन्द पाकेट बुक्स मूल्य : 75 रु.