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पागलपन और इलेक्ट्रो-कंवल्सिव थैरेपी का उपयोग

पागलपन और इलेक्ट्रो-कंवल्सिव थैरेपी का उपयोग - electroconvulsive Therapy
पागलपन अथवा किसी प्रकार की मानसिक व्याधियों में ईसीटी यानि इलेक्ट्रो-कंवल्सिव थैरेपी का प्रयोग एक आम बात है। यह पद्धति बेहद प्राचीन है और आज भी बहुत प्रासंगिक है। साधारण भाषा में इस पद्धति को बिजली के झटके द्वारा इलाज करना कहा जाता है। कहते हैं कि इस पद्धति में समय-समय पर काफी परवर्तन भी आए। शुरू में यह बिजली की रासायनिक सुई के जरिए दी जाती थी। 
 
 
ईसीटी पद्धत्ति के अविष्कारक इटली के एक चिकित्सक मेड्यूना थे, जिन्होंने इसकी बुनियाद रखी थी। वे स्किजोफ्रीनिया और मिर्गी को एक-दूसरे का विपरीत मर्ज  समझते थे, इसलिए उनके मन में यह विचार आया कि शायद स्किजोफ्रीनिया में मिर्गी जैसी स्थिति पैदा कर रोग का हल निकाला जा सकता है। किंतु यह धारणा  सैद्धांतिक तौर पर गलत थी, पर पाया गया कि इस प्रकार से इलाज करने पर मरीजों को फायदा पहुंच रहा था। उन दिनों यह पद्धति बेहद कष्टकारी होती थी और मरीजों को एक भीषण यातना के दौर से होकर गुजरना पड़ता था। मरीज को बेड पर लिटाकर कैंफर और ओएल का इंजेक्शन दिया जाता था, तब कहीं जाकर चार से छह घंटों के बाद दवा के असर से उसे दौरा पड़ता था। बाद के दिनों में दौरा पैदा न करने के लिए सर्कियोजोल नामक दवा दी जाने लगी। मरीज की नस में फुर्ती से दवा का इंजेक्शन लगाया जाता और कुछ पल बाद उसे 30 सेकंड से एक मिनट का दौरा पड़ता, पर शॉक थैरेपी कि यह विधि भी कम यातनापूर्ण नहीं थी। कुछ मरीज तो एक बार इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद दुबारा इससे गुजरने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते।
 
दिल्ली के ख्यातनाम चिकित्सक डॉक्टर यतीश अग्रवाल कहते हैं कि सन 1933 में ऑस्ट्रिया के दो चिकित्सकों सेरलेट और बेनी ने रोगियों को बिजली के झटके देने की शुरुआत की। इसमें दाईं और बाईं कनपटी पर इलेक्ट्रोड रखे जाते हैं और उनके जरिए बिजली की धारा प्रवाहित कर मस्तिष्क को उकसाया जाता है। बिजली कितनी मात्रा में और कितने समय के लिए देनी है, यह पूर्व निर्धारित रहता है।
 
धीरे-धीरे ईसीटी की इस पद्धति में सुधार आता गया और आजकल इस तरीके को 'मॉडिफाइड ईसीटी' कहते हैं.इससे पहले मरीज को नींद की दवाई दी जाती है, किंतु ईसीटी की यह विधि भी खतरे से खाली न थी। इसमें दौरे के दरम्यान कंधे या जबड़े के जोड़ों के अपनी जगह से हिल जाने का डर रहता था। पुराने फ्रैक्चर दुबारा ताजे हो जाते थे। कभी-कभी रीढ़ की हड्डी दरक जाती, अतः रोगी अपाहिज हो सकता था। इन दिनों प्रचलित 'मॉडिफाइड ईसीटी' में रोगी को नींद की दवा देकर चेतनाशून्य कर दिया जाता है। साथ ही ऐसी दवाएं भी दी जातीं हैं, जो दिल की स्थिति को बिगड़ने से रोकती हैं। इसके पश्चात उसे बेहोशी अथवा मांसपेशियों को शिथिल बनाने वाली औषधियां दी जातीं हैं। इसके पीछे मात्र एक ही कारण होता है कि मरीज को दौरे के समय अत्यधिक कष्ट न हो। इन तैयारियों के बाद दौरा पड़ने के लिए 0.3 सेकेंड का एक हल्का सा करेंट दिया जाता है, इससे रोगी अपने से एक मिनट के लिए दौरे की अवस्था में चला जाता है।
 
दौरा शांत हो जाने पर रोगी की श्वांस क्रिया सामान्य कर दी जाती है। इसके लिए ऑक्सीजन दिया जाता है, इसके बाद दो से तीन मिनट तक मरीज चक्कर सा महसूस करता है। फिर बिलकुल सामान्य हो जाता है। गौरतलब है कि मरीज को इसके बाद यह भी याद नहीं रहता कि उसे झटके दिए गए थे। हालांकि यह इलाज  सिर्फ अस्पताल में ही किए जाते हैं और इसे पूरी तरह सुरक्षित भी माना जाता है, लेकिन चिकित्सक कहते हैं कि इसके इलाज के बाद मरीज की याददाश्त थोड़े दिनों के लिए कमज़ोर हो जाती है। देखा गया है कि यह पद्धति कम उम्र के लोगों के लिए ज्यादा कारगर सिद्ध हुई है। डॉक्टर यतीश अग्रवाल कहते हैं - साधारणतः यह पद्धति हर तरह के मानसिक रोगों के लिए है। एन्डोजेनस डिप्रेशन की वह अवस्था, जब रोगियों के मन में बार-बार आत्महत्या अथवा आत्मघात के विचार आते हैं तथा केटाटॉनिक व स्किजोफ्रीनिया की वे अवस्थाएं जिनमें इतना गहरा अवसाद होता है कि साधारण दवाओं से नहीं संभल पाता है, ऐसे में ईसीटी पद्धत्ति बेहद कारगर सिद्ध होती है.मेनिया की कुछ विशेष अवस्थाओं में भी ईसीटी पद्धति लाभदायक सिद्ध होती है.आज भी इस पद्धति पर शोध कार्य चल रहे हैं और इससे भी सूक्ष्म व सरलतम विधि की तलाश जारी है।
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