बच्चन हिन्दी काव्य प्रेमियों के सबसे अधिक प्रिय कवि रहे हैं और उनकी 'मधुशाला' आज भी लोकप्रियता के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान है। सर्वप्रथम 1935 में प्रकाशित होने के बाद से अब तक इसके अनेक संस्करणों की कई लाख प्रतियाँ करोड़ों पाठकों तक पहुँच चुकी हैं। महाकवि पंत ने कहा था- 'मधुशाला की मादकता अक्षय है।'
'मधुशाला' में हाला, प्याला, मधुबाला और मधुशाला के चार प्रतीकों के माध्यम से कवि ने अनेक क्रांतिकारी, मर्मस्पर्शी, रागात्मक एवं रहस्यपूर्ण भावों को वाणी दी।
-हरिवंश राय बच्चन
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला, 'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला; अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ- 'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला'।
पौधे आज बने हैं साकी ले-ले फूलों का प्याला, भरी हुई है जिनके अंदर परिमल-मधु-सुरभित हाला, माँग-माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं, झूम-झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!
एक तरह से सबका स्वागत करती है साकीबाला, अज्ञ-विज्ञ में है क्या अंतर हो जाने पर मतवाला, रंक-राव में भेद हुआ है कभी नहीं मदिरालय में, साम्यवाद की प्रथम प्रचारक है यह मेरी मधुशाला।
छोटे-से जीवन में कितना प्यार करूँ, पी लूँ हाला, आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जानेवाला', स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी, बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला!