व्यासं ज्ञानप्रदं नित्यं गणेशं सिद्धिदं शुभम्।
प्रणम्य प्रारंभे गीताश्लोकसंक्षेपसंग्रहम्।।
भारतीय परंपरा के अनुसार लेखन के विशेषज्ञ गणेशजी माने जाते हैं। महाभारत के आदिपर्व में व्यासजी द्वारा लेखन के लिए गणेशजी के विवरण का उल्लेख है। उसी आदिपर्व में व्यासजी गणेशजी से अनुरोध करते हैं कि वे 'भारत' ग्रंथ के लेखक बनें, 'लेखको भारतस्याय भव गणनायक।' अत: यह स्पष्ट है कि गणेश, गणनायक या गणपति महाभारत की रचना के समय तक मूर्धन्य लिपिकार के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। गणपति परंपरा वैदिक है। ऋग्वेद में ब्रह्मणस्पति सूवत में भी गणपति का उल्लेख है :
गणनां त्वां गणपति हवामहे
कविं कवीनामुपं श्रवस्तम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत्।
आनशृण्वं नूतिभि: सीडू नादनम्।।
प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यह ऋचा जिस गणपति का स्तवन है, वह कौन है? कहीं इसका संबंध उसी परंपरा से तो नहीं, जिसके प्रतिनिधि गणनायक गणेश महाभारत के लेखक बने? प्रसिद्ध पुरालेखविद् स्व. अर्जुनबाजी वालावलकर एवं लिपिकार एल.एस. वाकणकर के अभिमत में यह ऋचा लिपिशास्त्र ज्ञातागणपति (प्रथम) को समर्पित है।
गण का सामान्य अर्थ होता है- समूह, एक श्रेणी, एक वर्ग विशेष। व्याकरण में गण का तात्पर्य धातुओं और शब्दों की उस श्रेणी से होता है, जो किसी विशेष नियम के अनुसार व्यवहार करते हो। गण शिव के अनुचरों को भी कहते हैं, जो गणेश के अधीन रहते हैं। अब यदि गण का अर्थ व्यक्तियों का समूह माना जाए, तब यह ऋचा किसी राजा या शासनाध्यक्ष की स्तुति होनी चाहिए। पर यह तो कहती है- 'हे गणपति, तू विद्वानों का विद्वान है, ब्रह्म से भी ज्येष्ठ है। इस नई रचना को सुन।'
अत: ब्रह्मणस्पति सूक्त का गणपति मात्र व्यक्तियों के समूह का अध्यक्ष नहीं है, अपितु विद्वत गणों का अधिष्ठाता है। शब्दों, धातुओं आदि के गणों (समूहों) का अधिपति गणेश की कवींना कवि कहा जा सकेगा। इस अर्थ में गणपति ब्रह्म से ज्येष्ठ हो सकता है। वाणी (शब्द) एवं अक्षर, नाम एवं रूप दोनों का अधिपति महाज्ञानी ब्रह्मज्ञान कराने में समर्थ ब्रह्म से श्रेष्ठ माना जा सकता है। अत: इस दृष्टि से ब्रह्मणस्पति सूक्त के गणपति की परिकल्पना शब्द समूह के अधिष्ठाता के रूप में करना संगत है।
पणिनीय शिक्षा में लिखा है कि शंभूमत के आधार पर लिपि में 63 या 64 वर्ण होते हैं। पुरालेखविद् श्री वालावलकर एवं लिपिकार श्री वाकणकर ने इस संबंध में जो महत्वपूर्ण तथ्य सामने रखे हैं, उससे भारतीय लिपि के मूल एवं गणपति के वास्तविक अर्थ समझे जा सकते हैं। इस दृष्टि से अथर्व परंपरा के एक अन्य अभिलेख की चर्चा परमावश्यक है। 'गणपति अथर्व शीर्षम्' के नाम से प्रचलित इस पाठ का मुख्य अंश निम्नवत् है :
गणादि पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं।।
अनुस्वार: परतर:।। अर्धेंदुलसितं, तारेण रिद्धं एतत्तव मनुस्वरूपं, गकार पूर्व रूपम अकारो मध्यम रूपम अनुस्वार: श्चांत्यरूपम बिंदूरुत्तर रुपम नाद: संधानं सैषा: गणेश विद्या।। गणक ऋषि:।। नि:चृद्गायत्री छंद: गणपतिर्देवता।। ॐ गं गणपतये नम:।।
दक्षिण भारत में इसे गणपत्युनिषद के रूप में महत्वपूर्ण उपदेश माना जाता है। श्री वाकणकर के अनुसार उपरोक्त अथर्व शीर्ष में ही भारतीय लेखन की प्रक्रिया का वर्णन है।
गणपति अथर्व शीर्ष कहता है- 'सैषा गणेश विद्या।' इस विद्या में गणादि (शब्द समूह) तथा वर्णादि (लिखित स्वर व्यंजन) को परस्पर संबंधित किया गया है अर्थात लेखन की विधि समझाई गई है।
जीवन और मृत्यु के चक्र का रहस्य समझा सकने वाली विद्या जिन स्वर, व्यंजनों और अक्षरों के समूह से सीखी जाती है, उनके भी अधिष्ठाता गणपति ही है। जो आदि बीज 'ॐ' है, वही गणेश है, वही गजानन भी है।
आज भी भारत की सभी भाषाओं और लिपियों के मूल आधार के रूप में माहेश्वरी सूत्र और गणपति अथर्वशीर्ष के अर्धेन्दु सिद्धांत ही चले आ रहे हैं। सभी भारतीय लिपियों का आधारभूत मंत्र गणपति अथर्वशीर्ष ही है। भारतीय व्याकरण इस प्रकार राष्ट्रीय एकात्मकता का कालजयी प्रतीक है।