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Written By स्मृति आदित्य

उजाले की परछाईं : एक मार्मिक दस्तावेज

जब दो गाँधी हुए आमने-सामने

Gandhi Jayanti | उजाले की परछाईं : एक मार्मिक दस्तावेज
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एक अभागा प्राणी, जो कभी नहीं जान सका कि महान पिता की संतान होने का यह दंड क्यों किन्हीं नैसर्गिक अधिकारों की बलि चढ़ जाए और व्यक्तिगत उन्नति की आकांक्षा पाप बन जाए? प्रसंग है, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और उनके विद्रोही पुत्र हरिलाल का। शब्दों में इस रिश्ते को उकेरा है सुप्रसिद्ध गुजराती साहित्यकार दिनकर जोशी ने।

'उजाले की परछाई' एक उपन्यास नहीं, आत्मकथा भी नहीं बल्कि भीतर तक झकझोर देने वाला मर्मान्तक दस्तावेज है। उस 'उजाले' के लिए जिसके नाम से वैश्विक स्तर पर भारत रोशन है, हमें यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए ताकि हम जान सकें उनकी वह स्याह और लंबी 'परछाई', जो तमाम योग्यताओं, ऊर्जा और इच्छाशक्ति के बावजूद अँधेरे की भेंट चढ़ गई।

पुस्तक सिर्फ पिता-पुत्र के वैचारिक मतभेद की पीड़क कहानी बयाँ नहीं करती बल्कि एक 'कृशकाय' शरीर किंतु सुदृढ़ आत्मा और उसकी विलक्षण संकल्प शक्ति से भी परिचय कराती है। पुस्तक की प्रमुख विशेषता है पुत्र हरिलाल के प्रति उपजा हमारा करुण भाव, सहानुभूति और आकुलता भी हमें गाँधीजी के विरुद्ध खड़ा नहीं करतीएक संत, जो आज भी अपने आदर्शों की वजह से पूजा जाता है, जीवनभर ये न समझ सका कि उसकी अपनी संतान के लिए वे आदर्श विष क्यों बन गए?

एक अद्भुत प्रवाह के साथ पाठक आगे बढ़ता है और क्लैप-बाय-क्लैप उसकी स्तब्धता भी बढ़ती जाती है। दु:ख की स्याह परछाई चेहरे पर पड़ने लगती है। बीच-बीच में हम सहज आक्रोश से भर उठते हैं कि आखिर बापू ने अपने सिद्धांतों और मूल्यों को कायम रखने के लिए पत्नी तथा परिवार की आहुति क्यों दी? एक सहज नैसर्गिक जीवन जीने का अधिकार क्यों छीना?

लेकिन आज के दौर में जब राष्ट्र को खोखलाकर घर भरने की कुत्सित चेष्टाएँ घोटालों के रूप में उजागर हो रही हैं, नेतृत्व भ्रष्टाचार तक गले-गले डूबा दिखाई देता हो तब उस 'शख्स' की वह पवित्र आशंका कि 'लोग ये न कहें कि बापू ने देशसेवा का मूल्य हासिल कर लिया अपने बच्चों को लाभ पहुँचाकर! हमें उनकी महानता का गहरा अहसास कराती है।

बापू और हरिलाल दोनों अपनी जगह अच्छे थे, सच्चे थे, सही थे लेकिन परिस्थितियों के दंश ने एक सुयोग्य पुत्र को कँटीली राह पर धकेल दिया। जीवनभर पिता के प्रति पलते आक्रोश ने हरिलाल को पतन की राह पर धकेल दिया। जब सारा विश्व बापू को सम्मान के साथ अंतिम विदाई दे रहा था तब हरिलाल को भीड़ के रेले में फूल चढ़ाते देखा जाता है और बापू की बिदाई के कुछ ही दिनों बाद जब हरिलाल ने दुनिया छोड़ी तब हरिलाल के रिश्तेदार यह सुनते हैं 'ये आठ नं. का मुर्दा तुम्हारा है?'

महान पिता की महान विरासत का अधिकार 'आठ नं.' से पहले 'छोटे गाँधी', 'अब्दुल्ला' और 'हरिलाल' के रूप में अपनी पहचान तलाशता रहा, पर 'उजाले' के सामने सदैव 'परछाई' ही बना रहा।

हरिलाल का भोला मन अपने पिता के प्रति असीम सम्मान से भरा था। उसका 'दोष' सिर्फ और सिर्फ इतना था कि उसने सपना देखा विलायत जाकर बेरिस्टर बनना है फिर बापू की तरह देशसेवा में लग जाना है। सबसे पहले उसका सपना चटकता है जब बापू के मित्र डॉ. मेहता उसकी विलायत शिक्षा का खर्च उठाने को तैयार होते हैं लेकिन बापू इस पेशकश को ठुकरा देते हैं। यह कहकर कि मेरी सेवा के बदले मेरे परिवार को लाभ नहीं मिलना चाहिए।

किशोर आँखें तब और सुर्ख हो जाती हैं जब आश्रमवासी सोराबजी और छगनलाल को यह मौका मिलता है और उसे सिर्फ इसलिए नहीं कि वह एक महान पिता की संतान है! यही नहीं सामान्य शिक्षा से भी हरिलाल और उसके भाइयों मणिलाल, रामदास, देवदास को इसलिए वंचित रखा जाता है क्योंकि बापू की नजर में चरित्र की रक्षा और जीवन मूल्य बनाए रखने की शिक्षा के समक्ष वह शिक्षा निरर्थक है जो विदेशियों ने निर्धारित की है। हरिलाल की आँखों का उजला सपना कसैले विद्रोह में तब्दील होने लगता है।

पुस्तक हर गाँधीवादी पढ़ें और गाँधी विरोधी भी। इसलिए कि आदर्श और सिद्धांत छपवा लेने से ज्यादा जरूरी है, अपने हितों की ‍बलि चढ़ाकर उन पर कायम रहना। गाँधी विरोधी, इसलिए कि किसी को आधा-अधूरा जानकर विरोध का आधार तय करना सरासर अपराध है। उपन्यास के अंत में चाहे आप हरिलाल के पक्ष में खड़े हों या चाहे बापू के। एक बार आपकी अंतरात्मा निष्पक्ष विश्लेषण के लिए अवश्य बाध्य करती है।

पुस्तक के केंद्र में हरिलाल हैं, उनकी पीड़ा है, उनकी ही छटपटाहट है पर शब्दों की गुंथन इतनी प्रभावी है कि हम अनजाने ही बापू के प्रति भी करुण हो उठते हैं। इस सबके बीच 'बा' है जो पति और पुत्र के बीच जर्रा-जर्रा बिखरती हैं।

हरिलाल की मासूम पत्नी गुलाब है जो सीधे-सच्चे पति को बर्बाद होते देखती ही रह जाती है और एक दिन खत्म हो जाती है। हरिलाल यह सोचकर बर्बाद होता रहा कि बापू को हरा रहा है और खुद हार जाता है लड़ते-लड़ते। जब भी कोई छोटा काम करना चाहा उसने तो वह 'बड़ा' था और बड़े काम के लिए उसकी शिक्षा 'छोटी' थी, बस इसी विडंबना ने जीवनभर उसे असफलताएँ और विषाद की गठरी 'उपहार' में दी। इतिहास और इतिहास के सत्य को उद्‍घाटित करता एक अत्यंत पठनीय उपन्यास है 'उजाले की परछाई'।

पुस्तक : उजाले की परछाई
लेखक : दिनकर जोशी
गुजराती से अनुवाद : सूरजप्रकाश
मूल्य : दो सौ पचास रुपए
प्रकाशक : ज्ञानगंगा, 205-सी, चावड़ी बाजार, दिल्ली-110006