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Written By ND

तॉल्सतॉय और गाँधी

दो महात्मा : रूस के तॉल्सतॉय और भारत के गाँधी

तॉल्सतॉय और गाँधी -
- डॉ. वेदप्रताप वैदि

ND
तॉल्सतॉय ने 1893 में एक पुस्तक लिखी, जिसका नाम था 'ईश्वर का साम्राज्य तुम्हारे अंदर ही है।' यह पुस्तक गाँधी को एक मित्र ने 1894 में दी। गाँधी ने उसे पढ़ा लेकिन उसका बुखार गाँधी पर चढ़ा 1906 में। यह वह समय था, जब गाँधी दक्षिण अफ्रीका में एक सत्याग्रह के बाद दूसरा छेड़ रहे थे और बार-बार जेल जा रहे थे। हर जेल, हर अदालत, हर यात्रा में वे तॉल्सतॉय की यह पुस्तक साथ रखते थे। 1928 में गाँधीजी ने तॉल्सतॉय की जन्म-शताब्दी के अवसर पर कहा कि तॉल्सतॉय ने ही उनकी रक्षा की, वरना दक्षिण अफ्रीका के जन-संघर्षों के समय उनका मन हिंसा की तरफ झुकता रहता था।

लियो तॉल्सतॉय की एक प्रसिद्ध कहानी है- दो हुजार। रूसी भाषा में हुजार का अर्थ होता है फौजी घुड़सवार। इस कहानी में एक सराय की मालकिन अपने एक फौजी मेहमान पर प्रेमासक्त हो जाती है लेकिन उसे वह छोड़कर चला जाता है। सराय तो वह छोड़ देता है लेकिन मालकिन के दिल में वह हमेशा के लिए बस जाता है। लगभग दो-तीन दशक बाद फिर एक फौजी उसी सराय में ठहरता है। वही नैन-नक्श, वही चाल-ढाल, वही हाव-भाव, वही सैन-बैन, वही रंग-रूप। मालकिन चकित और मोहित! तॉल्सतॉय अपनी कहानी में बताते हैं कि यह फौजी (हुजार) उसी फौजी (हुजार) का बेटा था। क्या गाँधी और तॉल्सतॉय में ऐसा ही साम्य तो नहीं था?

दोनों महात्मा कभी नहीं मिले। दोनों ने एक-दूसरे को कभी देखा तक नहीं। तॉल्सतॉय रहते थे रूस में और गाँधी दक्षिण अफ्रीका में। तॉल्सतॉय गाँधी से पूरे 41 साल बड़े थे और उनका निधन 1910 में हो गया था। गाँधी और अहिंसा एक-दूसरे के पर्याय हैं। गाँधी और स्वाधीनता नहीं। स्वाधीनता संग्राम में तो क्रांतिकारियों का भी योगदान था। गाँधी नहीं होते तो भी देर-सवेर भारत स्वाधीन हो जाता। अनेक देश स्वाधीन हुए, वहाँ गाँधी जैसा कोई नहीं था। सिर्फ स्वाधीनता संग्राम या लोक-संघर्ष के कारण गाँधी जाने जाते तो उस श्रेणी में कई अन्य नाम भी आ सकते थे। लेनिन, माओ, होची मिन्ह, फिदेल कास्त्रो आदि। लेकिन गाँधी सारी दुनिया में जाने जाते हैं अपनी अहिंसा के लिए! अगर गाँधी नहीं होते तो अहिंसा को ब्रह्मास्त्र कौन बनाता? अहिंसा को ब्रह्मास्त्र बनाने वाला सारी मानव जाति में एक ही व्यक्ति हुआ है और उसका नाम है मोहनदास करमचंद गाँधी।
दोनों महात्मा कभी नहीं मिले। दोनों ने एक-दूसरे को कभी देखा तक नहीं। तॉल्सतॉय रहते थे रूस में और गाँधी दक्षिण अफ्रीका में। तॉल्सतॉय गाँधी से पूरे 41 साल बड़े थे और उनका निधन 1910 में हो गया था। गाँधी और अहिंसा एक-दूसरे के पर्याय हैं।


ND
गाँधी की यह अहिंसा, तॉल्सतॉय की अहिंसा थी। तॉल्सतॉय के पहले ईसा और ईसा के पहले बुद्ध ने भी अहिंसा की बात कही थी। दोनों की अहिंसा का आधार थी करुणा। लेकिन तॉल्सतॉय ने इस करुणा की भी नई व्याख्या की। उन्होंने कहा कि सारी मानवता को प्रेम करनेकी बात काल्पनिक है, वायव्य है, असंभव है।

असली बात है खुद को प्रेम करने की उस खुद को, जो खुदा बनकर अपने अंदर बैठा है। यह स्वार्थ नहीं, परमार्थ है। अपने इस दृष्टिकोण का प्रतिपादन करने के लिए तॉल्सतॉय ने 1893 में एक पुस्तक लिखी, जिसका नाम था 'ईश्वर का साम्राज्य तुम्हारे अंदर ही है।' यह पुस्तक गाँधी को एक मित्र ने 1894 में दी। गाँधी ने उसे पढ़ा लेकिन उसका बुखार गाँधी पर चढ़ा 1906 में। यह वह समय था, जब गाँधी दक्षिण अफ्रीका में एक सत्याग्रह के बाद दूसरा छेड़ रहे थे और बार-बार जेल जा रहे थे। हर जेल, हर अदालत, हर यात्रा में वे तॉल्सतॉय की यह पुस्तक साथ रखते थे। तब तक तॉल्सतॉय के दो अन्य भक्त हेनरी पोलक और हरमन कालनबाख भी गाँधीजी के घनिष्ठ मित्र बन चुके थे। इस दौर में गाँधीजी तॉल्सतॉय की लगभग आधा दर्जन पुस्तकें पढ़ चुके थे। 1928 में गाँधीजी ने तॉल्सतॉय की जन्म-शताब्दी के अवसर पर कहा कि तॉल्सतॉय ने ही उनकी रक्षा की, वरना दक्षिण अफ्रीका के जन-संघर्षों के समय उनका मन हिंसा की तरफ झुकता रहता था। तॉल्सतॉय के विचारों ने ही उनको पूर्ण अहिंसक बनाया।

तॉल्सतॉय के विचारों ने पश्चिमी समाज में तहलका मचा दिया था। आर्थोडॉक्स चर्च में भूकम्प आ गया था। तॉल्सतॉय को ईसाइयत-विरोधी घोषित करके चर्च निकाला दे दिया गया था। तॉल्सतॉय ईसाई राज्य-व्यवस्थाओं की घोर निंदा करते थे और वे यहाँ तक कहते थे किब्रह्म, अहुरमज्द, कृष्ण और क्राइस्ट में क्या रखा है। इन्हें छोड़ो और प्रेम की पूजा करो। अहंकार का पूर्ण विसर्जन करो। खुद को खाली करो ताकि आप में आकर परमात्मा रह सके। बाइबिल के 'पर्वतीय प्रवचन' को पाइथोगोरस के थ्योरम की तरह मानो। बाकी सब अनर्गल है।

भारतीयों, तुमने खुद अपने आपको गुलाम बना रखा है अँगरेजों का, नकली ईसाइयत बघारने वालों का! ये हिंसा से नहीं भगाए जा सकते। इन्हें जिस दिन तुम अपने मन की खूँटी से उतार दोगे, ये भाग जाएँगे। हिंसा का निवारण हिंसा से नहीं, अहिंसा से, असहयोग से, अरुचि से होगा। तॉल्सतॉय के ये विचार रूसी जनता पर आँधी की तरह असर कर रहे थे। जार की दमनशाही के विरुद्ध फैल रही अराजकता की आग में वे घी का काम कर रहे थे। चर्च और सम्राट, दोनों ही तॉल्सतॉय को अपना शत्रु मानने लगे थे। लेकिन तॉल्सतॉय के अनन्य भक्तों में गाँधीजैसे लोग भी उठ खड़े हुए थे। तॉल्सतॉय ने अपने जीवन के अंतिम चरण में आत्मशोधन के लिए जैसे अद्भुत प्रयोग किए, वैसे गाँधी भरी जवानी में करने लगे थे। क्या गाँधी भी तॉल्सतॉय की तरह अंततोगत्वा राज्य और 'धर्म' के कोपभाजन नहीं बने?
वास्तव में गाँधी के मुकाबले तॉल्सतॉय कहीं अधिक आत्मकेंद्रित व्यक्ति थे। तॉल्सतॉय की तरह गाँधी भी अपने पिता की चौथी संतान थे। यदि तॉलस्तॉय के बाबा और नाना बड़े जागीरदार थे तो गाँधीजी के पिता, पितामह और प्रपितामह भी अपने राज्य के सर्वोच्च प्रशासनिक पदों पर रहने वाले लोग थे। जैसे तॉल्सतॉय के पूर्वज रूसी सम्राट की कदमबोसी नहीं करते थे, वैसे ही उत्तमचंद और उनके बेटे करमचंद 'प्रधानमंत्री' होते हुए भी अपने राजा या रानी से स्वायत्त रहते थे। यह ठीक है कि वयस्क तॉल्सतॉय को यास्नया पल्याना की लम्बी-चौड़ी जागीर हाथ लगी जबकि गाँधी को उधार लेकर लंदन की पढ़ाई करनी पड़ी, लेकिन स्वाभिमान और स्वायत्तता दोनों को विरासत में एक-जैसी मिली।

तॉल्सतॉय और गाँधी दोनों का बचपन कोई सीधा-सादा नहीं रहा। दोनों किशोर होते-होते वेश्याओं के कोठे तक पहुँच गए। दोनों ही भाग खड़े हुए, लेकिन गाँधी और तॉल्सतॉय में बुनियादी अंतर यह था कि गाँधी जिस द्वार से एक बार मुड़े, उस पर लौटकर कभी गएही नहीं जबकि तॉल्सतॉय विवाह के पहले ही एक पुत्र के पिता बन चुके थे और 60 साल की आयु में वे अपनी तेरहवीं संतान के पिता बने थे। उन्हें अपनी वासना से निरंतर लड़ते रहना पड़ा। परस्त्री संबंध और वासना ने उनकी पत्नी सोन्या को उनका सबसे बड़ा शत्रु बना दिया। तॉल्सतॉय कौन-से कुकर्म से बचे? व्यभिचार, शराब, जुआ, मारकाट, चोरी-उन्होंने वह सब कुछ किया, जो 19वीं सदी के रूस का कोई सामंत कर सकता था। लम्बी उम्र तक यास्नया पल्याना का महल और जागीर ही उनकी दुनिया थी। अपनी पत्नी और संतान से लड़ते-लड़ते उनकी सारी उम्र बीत गई। दुनिया को प्रेम का संदेश देने वाले तॉल्सतॉय अपनी पत्नी और बच्चों से न तो प्रेम पा सके, न ही उन्हें दे सके।

82 साल की आयु में पत्नी से पिंड छुड़ाने के लिए वे घर से भागे और एक रेलवे स्टेशन पर उन्हें दम तोड़ना पड़ा। गाँधीजी के जीवन में भी कुछ उतार-चढ़ाव आए। बाल विवाह, उद्दाम वासना और उग्र स्वभाव के कारण गाँधी को भी पारिवारिक कलह से गुजरना पड़ा।

लेकिन कस्तूरबा के त्याग और बच्चों के समर्पण भाव ने गाँधी को आत्मकेंद्रित होने से बचाया। गाँधी राजकोट में रहे या लंदन में, बंबई में, दक्षिण अफ्रीका में, अहमदाबाद, वर्धा, दिल्ली या नोआखली में- वे सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से सदा सक्रिय रहे। बड़े बेटे हरिलाल की बगावत ने गाँधी को कई बार विचलित किया लेकिन तॉल्सतॉय की तरह उनके पाँव कभी उखड़े नहीं। हरिलाल से अब्दुल्ला बनने, कोठों की सैर करने, शराब पीकर गटर विहार करने और गाँधीजी को खुलेआम गालियाँ देने के बावजूद हरिलाल वापस लौटे, लेकिन गाँधीजी अपने बड़े बेटे को गाँधीवादी नहीं बना पाए।

इसी प्रकार 51 साल की आयु में लाहौर की सरलादेवी चौधरी पर आसक्त हुए गाँधी तॉल्सतॉय की तरह फिसले नहीं। उनके अंदर बैठे भगवान ने और उनके इर्द-गिर्द रहने वाले उनके अनुयायियों ने उन्हें बचा लिया। इस गाँधी-सरला प्रेम प्रसंग का मार्मिक वर्णन गाँधीजी के पौत्र और प्रसिद्ध विद्वान श्री राजमोहन गाँधी ने अपनी पुस्तक 'गुड बोटमेन' में विस्तार से किया है। यह प्रसंग गाँधी को महात्माओं का महात्मा बनाता है।

तॉल्सतॉय और गाँधी, दोनों को वासना अंत तक झुलाती रही। तॉल्सतॉय ने अपने अंतिम वर्षों में वासना के विरुद्ध जैसा मोर्चा खोला था, शायद उसका असर गाँधी पर भी पड़ा। तॉल्सतॉय ने 34 साल की उम्र में शादी की और गाँधी ने 37 साल की उम्र में ब्रह्मचर्य का व्रत लिया। गाँधी अंत तक ब्रह्मचारी रहे लेकिन यह अब किसे पता नहीं है कि 79 वर्ष की आयु में भी गाँधी ब्रह्मचर्य के प्रयोग करते रहे। 82 वर्ष के तॉल्सतॉय पर जैसे अश्लील आरोप उनकी पत्नी सोन्या लगाती थी, उनके पीछे ईर्ष्या के अलावा कुछ नहीं था। लेकिन यह तो सत्य है कि अहिंसा और यौन के मामले में इन दोनों महात्माओं को अंत तक सजग रहना पड़ा।

हिंसा ने भी दोनों का पीछा नहीं छोड़ा। यद्यपि गोड़से की तरह तॉल्सतॉय को किसी ने गोली नहीं मारी लेकिन सोन्या कई बार अपने बूढ़े पति को पागल घोषित कर चुकी थी और उन्हें हत्या की धमकी भी दे चुकी थी। नवंबर की ठंडी रूसी रात में स्टेशन पर दम तोड़ना हत्या से क्या कम है? वह मरना नहीं, मारा जाना है। यों भी गाँधी के विरोधियों और तॉल्सतॉय के विरोधियों में बड़ी एकरूपता दिखाई देती है। जैसे श्यामजीकृष्ण वर्मा, सावरकर, एम.एन. रॉय, तारकनाथ दास वगैरह सशस्त्र क्रांति में विश्वास करते थे, वैसे ही क्रोपाटकिन, बाकुनिन वगैरह भी जार को आतंक से उलटाना चाहते थे। उनकी नजर में तॉल्सतॉय एक शांतिवादी नपुंसकता के प्रवक्ता थे।

भारत के क्रांतिकारी बम बनाने, सुरंग बिछाने और रेलें उड़ाने की कला रूसी आतंकवादियों से सीखना चाहते थे। हिंसावादियों ने ताशकंद में एक प्रशिक्षणशाला ही खोल दी थी। तॉल्सतॉय और गाँधी, दोनों को अपने जीवन की संध्या हिंसा की बेला में ही गुजारनी पड़ी। भारत विभाजन में खून की नदियाँ बहीं और रूस में 1905 में खूनी बगावत के साक्षी स्वयं तॉल्सतॉय भी रहे। यदि वे सात-आठ साल और जीवित रहते तो 1917 केरूस में भारत- जैसा दृश्य देखते। इस पृथ्वी से प्रयाण करते समय दोनों महात्माओं की हताशा पराकाष्ठा पर पहुँच चुकी थी।

मात्र पत्रों के जरिए रहा संपर्क : सन्‌ 1908 में तॉल्सतॉय 80 साल के हुए। गाँधी ने उन्हें पत्र लिखा। दक्षिण अफ्रीका में अपने अहिंसा के प्रयोगों की चर्चा की। तॉल्सतॉय के लिए गाँधी अपरिचित थे। उसी समय भारतीय क्रांतिकारी तारकनाथ दास ने भी पत्र भेजा। इस पत्र में हिंसा की वकालत थी। जवाब में तॉल्सतॉयने लगभग 400 पृष्ठ लिख डाले और वह पत्र गाँधीजी के पते पर भेज दिया। दास कहीं कनाडा में रहते थे। गाँधीजी ने तॉल्सतॉय को पत्र लिखकर इस लंबे पत्र को छापने की अनुमति माँगी। वह मिली। गाँधी ने 'एक हिन्दू के नाम पाती' गुजराती अनुवाद किया और अनुवाद की भूमिका में लिखा कि इस 'पाती' का मूल सिद्धांत वही है, जो उनका है। इस 'पाती' का अनुवाद और 'हिन्द स्वराज' की रचना एक साथ हुई। 'हिन्द स्वराज' गाँधी-गीता है, स्वयं गाँधी है, गाँधी के विचारों की आत्मा है। लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए गाँधीजी ने दिसंबर 1909 में 'किल्डोनान केसल' नामक जहाज पर ये दोनों पुस्तिकाएँ तैयार कीं। 'हिन्द स्वराज' के अंत में गाँधी ने तॉल्सतॉय की छः पुस्तकों के नाम दिए और पाठकों को सुझाया कि वे उन्हें पढ़ें। जोहान्सबर्ग के पास गाँधीजी ने आश्रम भी स्थापित किया, जिसका नाम उन्होंने 'तॉल्सतॉय फार्म' रखा।

तॉल्सतॉय और गाँधी के बीच सीधा संपर्क मुश्किल से तीन साल का रहा, वह भी पत्रों के जरिए। यदि तॉल्सतॉय 1910 के बाद भी जीवित रहते तो कोई आश्चर्य नहीं कि दोनों महापुरुषों में गहरे मतभेद हो जाते। मतभेद का पहला मुद्दा तो राष्ट्रवाद ही होता। तॉल्सतॉय को गाँधी का राष्ट्रवाद कतई पसंद नहीं था। उन्होंने ट्रांसवाल में गाँधी के काम को 'सर्वाधिक महत्वपूर्ण और मूलभूत' तथा अहिंसा का 'प्रत्यक्ष प्रमाण' कहा और अपनी डायरी में यह भी दर्ज किया कि वे गाँधी की हर बात खूब पसंद करते हैं, सिवाय 'हिन्दू देशभक्ति के जिसके कारण सब कुछ चौपट हो जाता है।' तॉल्सतॉय किसी भी प्रकार की देशभक्ति के विरुद्ध थे, चाहे वह रूसी हो या भारतीय! उन्होंने अपने महान उपन्यास 'युद्ध और शांति' में देशभक्ति का मजाक उड़ाया है।

वास्तव में तॉल्सतॉय गाँधी की तरह योद्धा तो थे नहीं। वे केवल लेखक थे। अंतिम दिनों में वे साहित्यिक कम और मसीहा अधिक हो गए। मसीहाई के दौर में उन्होंने धर्म, राज्य और चर्च-विरोधी कई विचार पुस्तकें लिखीं और थोड़ी-बहुत समाजसेवा भी की। यदि गाँधी की तरह उन्हें देश के लिए लड़ना पड़ता तो देशभक्ति के बारे में शायद उनके विचार कुछ और होते। इसी प्रकार सभी धर्मों और परम्पराओं पर वाल्तेयर और नीत्से की तरह तॉल्सतॉय ने भी आँख मींचकर प्रहार किया। गाँधी इससे सहमत नहीं हो सकते थे। उन्होंने सभी धर्मों को न्यूनाधिक स्वीकार किया, क्योंकि धार्मिकों के बिना स्वराज्य की गाड़ी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती थी।