लेखक होने की व्यथा !
- अंशुमाली रस्तोगी
मैं लेखक हूँ। सिर्फ लेखक। मुझे अब अपने लेखक होने पर शर्म आने लगी है। जी करता है कलम-कागज सब त्याग कर अभी चुल्लूभर पेप्सी में डूब मरूँ। ताउम्र कलम रगड़कर मिला क्या? न बंगला बना पाया, न कार जुटा पाया। एक स्कूटर है वो भी उधार की किस्तों पर। खुद को आईने में देखता हूँ तो सूरत बौड़म-सी नजर आती है। स्मार्टनेस को प्रगतिवादी विचारधारा ने खा मारा है। उनकी हँसी, उनका जश्न, उनकी मस्ती, उनका पैसा, उनका बाजार, उनका पूँजीवाद मुझे खुलेआम मुँह चिढ़ाता है। कहता है- 'तुम जितना विरोध करोगे, हम उतना ही मजबूत होंगे। तुम हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।' शायद वे सही कहते हैं। समय बदल चुका है। इस बदलाव ने सब कुछ बदलकर रख दिया है। मीडिया के रास्ते हमारे घरों में घर कर गया बाजार अब बहुत मजबूत हो गया है। इसकी मजबूती का एहसास मुझे टीम इंडिया के विश्व कप जीतने के बाद से और अधिक होने लगा है।
जरा देखिए कि किस तरह का मस्त माहौल है हर तरफ। फिजा में जश्न ही जश्न है। सड़कें भीड़ से अटी पड़ी हैं। लोग मस्ती में धमाल मचाने को बेकाबू हुए जा रहे हैं। पैसा लुटाया नहीं, बहाया जा रहा है। शराब और शबाब के जश्न में सब टल्ली हैं। यह नए तरह का बदलता हुआ इंडिया है। अब कोई भी भारत में नहीं रहना चाहता। सब की इच्छा है अब हम इंडिया में ही रहेंगे।पत्नी ने साफ कह दिया है कि 'तुम खुद को बदलो, नहीं तो एक दिन हाशिए पर फेंक दिए जाओगे।' बिटिया भगत सिंह को नहीं पहचानती, हाँ महेंद्र सिंह धोनी को बाखूबी जानती-पहचानती है। मुझे खुद पर क्रोध-सा आने लगा है कि मैं ऐसा क्यों हूँ, वैसा क्यों नहीं? वे मस्ती करते हैं, खिलाड़ियों पर नोट बरसाते हैं और मैं ठूँठ-सा बैठा उनके प्रति मन ही मन कुढ़ता रहता हूँ। मैं चालीस करोड़ भूखों के बारे में क्यों सोचता हूँ? कहीं मैं पागल तो नहीं?विश्व कप की जीत का कमाल देखिए। आज खिलाड़ियों पर हर तरफ से करोड़ों बरस रहे हैं। जमीनें दी जा रही हैं। घर-बंगले दिए जा रहे हैं। विज्ञापन कंपनियाँ उन्हें अपना ब्रांड-अंबेसडर बनाने को बेताब हैं। आज हर लड़की की तमन्ना है कि उसका पति धोनी, युवी, विराट, रैना जैसा ही हो। उन्हें अब इससे कम नहीं चलेगा। मीडिया के सहारे बाजार ने अपना काम कर दिया है। उसने बता-समझा दिया है कि कैसे उत्पाद या व्यक्ति को खास बनाकर बेचा जा सकता है। बस, पैसा आना चाहिए, किसी भी रास्ते आए। क्या यह बेहतर न होता कि मैंने कलम के बजाय गेंद-बल्ले का साथ पकड़ा होता। मैं भी आज करोड़ों में खेल रहा होता। टोने-टोटकों से दूर रहकर प्रगतिशीलता का मुलम्मा चढ़ाए यहाँ-वहाँ वैचारिक क्रांतिकारियाँ करता रहा। हाय! मैं कितना गलत था मगर अब पछताए क्या होत है, जब चिड़िया चुग गई खेत।