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Written By WD

रिश्तों का सिरमौर दोस्ती

रिश्तों का सिरमौर दोस्ती -
साधना सुनील विवरेक

WDWD
सच्ची व निश्छल दोस्ती में हम जीवन का असीम सुख व शांति पा सकते हैं। जीवन संघर्ष में व्यस्त होने पर भी कुछ घड़ियाँ सब कुछ भूलकर हम मित्रों के साथ बिताकर ही जीवन का आनंद बटोर सकते हैं। यही मित्र जीवन पर्यंत हमारे लिए भावनात्मक सहारा व सुरक्षा का एहसास होते हैं। अतः हम सच्चे दोस्त बनाने का प्रयास करें व स्वयं भी अच्छे व सच्चे दोस्त साबित हों।

दोस्ती का दर्जा तमाम रिश्तों में ऊँचा कहा जा सकता है। तीन-चार वर्ष की उम्र में जब बच्चा माँ की गोद से उतर बाहरी दुनिया में प्रवेश करता है तब हमउम्र दोस्त ही उसके सुरक्षा-कवच होते हैं। उन्हीं में वह सुरक्षित अनुभव करते हुए सहज रूप से संसार में प्रवेश करता है। वह निश्चलदोस्त पड़ोसी हो सकता है या फिर विद्यालय का कोई साथी। बचपन की दोस्ती रबर, पेंसिल, चॉकलेट या खिलौने के आदान-प्रदान से प्रारंभ होती है व यहीं से व्यक्ति चीजों को 'शेयर' करने की, दूसरों के काम आ सकने की व दूसरों के लिए कुछ कर सकने की शिक्षा नैसर्गिक रूप से पाता है।

अच्छी संगत, अच्छे लोग जहाँ व्यक्ति का जीवन निखारते हैं, बुरी संगत व बुरे लोग जीवन को नर्क भी बना देते हैं। बचपन की मासूम दोस्ती पर माता-पिता व शिक्षकों का प्रभाव बहुत गहरा होता है। 'वह गंदा बच्चा है, उसके साथ नहीं खेलना' के शब्द मन पर गहरा असर डालते हैं व बच्चे दोस्ती हर दिन, हर पल बदल लेते हैं। फिर भी किसी बच्चे विशेष के पास बैठने में विशेष सुख व सुरक्षा अनुभव करते हैं व वहाँ से हटाए जाने पर विचलित होते हैं।

उम्र बढ़ने के साथ परिपक्वता आती है व 12-14 की उम्र तक बच्चे दोस्ती का महत्व समझने लगते हैं। यह दोस्ती हर उम्र में समान आदतों, पसंद-नापसंद व समान मानसिक स्तर होने पर गहराती है। बचपन में समय पड़ने पर एक-दूसरे को कॉपी देना, टीचर के समक्ष एक-दूसरे को बचाना व जन्मदिन पर घर जाना या उपहार देने तक ही दोस्ती की सीमाएँ होती हैं।

किशोर व युवा वर्ग की दोस्ती जीवन में विशेष महत्व रखती है। उम्र के इस नाजुक मोड़ पर वस्तुएँ यथार्थ के बजाए स्वप्न के धरातल पर अधिक होती हैं। उम्र तो नासमझी की, लेकिन दावा स्वयं को सबसे अधिक समझदार मानने का। शारीरिक परिवर्तनों के कारण कद व शरीर निखर आता है व दोस्ती अपना मूल भाव खोकर विपरीत लिंग की ओर आकर्षण में बदल जाती है। समान लिंग में भी यह भावुकतावश अधिक होती है।

इस उम्र में सच्चे हितैषी व मददगार माता-पिता से बढ़कर दोस्त लगने लगते हैं। उम्र के इस मोड़ पर अगर माता-पिता समझदार, सहनशील व जागरूक होकर किशोरों व युवाओं का मार्गदर्शन करें, थोड़ी स्वतंत्रता व थोड़ा अनुशासन का बंधन रखें व सही दोस्तों के साथ स्वतंत्र पहचान बनाने का मौका दें तो युवाओं के जीवन को अच्छी दिशा मिल सकती है।

अपने बच्चे पर हमेशा अच्छों के साथ ही रहकर उन्नाति करने की शिक्षा थोपने के बजाए यह भी प्रयास किया जा सकता है कि आपके बच्चे में ऐसे संस्कार व शिक्षा विकसित हो जिससे वह अपने से कमजोर या बुरे को अपने व्यक्तित्व व संगत से अपने जैसा अच्छा बना सके, तभी उसके इंसान होने का महत्व होगा व हम सब समाज में अच्छाई को स्थापित करने में कामयाब होंगे।

दोस्ती जीवन में बहुत महत्व रखती है, बशर्ते वह सच्ची व निस्वार्थ हो। ऐसा माना जाता है कि रिश्ता बराबरी वालों में कामयाब होता है लेकिन दोस्ती जातपाँत, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब कुछ नहीं समझती, अगर दोनों दोस्त एक-दूसरे का सम्मान दिल से करते हैं, निःस्वार्थ दोस्ती ही सफल व टिकाऊ हो सकती है, क्योंकि स्वार्थ तो एक न एक दिन सिद्ध होते ही खत्म हो जाता है। हर रिश्ते की तरह दोस्ती भी प्रयास माँगती है।

दोस्त हैं इसलिए दोस्ती आजीवन रहेगी, यह गलतफहमी दूर करना उचित होगा। सहपाठी, सहकर्मी, पड़ोसी होने भर से कोई किसी का दोस्त नहीं रह पाता। इस नाजुक रिश्ते को निभाने व टिकाए रखने के लिए प्रयास दोनों ओर से आवश्यक होते हैं। यह दोनों की बराबर कीजरूरत से ही संभव हो पाता है। जो स्नेह व प्रेम, सुरक्षा कवच, भावनात्मक आधार, सुख, दुःख बाँटने का वार्तालाप, मैत्री में संभव है वह किसी और रिश्ते में नहीं। चाहे फोन पर, चाहे पत्र से, चाहे साक्षात मिलकर संवाद से मैत्री को मजबूत किया जा सकता है।

सच्ची दोस्ती में औपचारिकता, दिखावा व छल-कपट की बिल्कुल गुंजाइश नहीं होती। जहाँ यह भाव हावी हुआ, दोस्ती में दरार पड़ते देर नहीं लगती तथा यह नाजुक काँच के बर्तन-सी टूट जाती है। मैत्री दुख या संकट के समय परखी जाती है। सुख में एक फोन पर एकत्र हो जाने वाले जो दोस्त दुख में अपनी सुविधानुसार व समय मिलने पर आते हैं, वे आपकी दोस्ती के लायक बिल्कुल नहीं होते।
अतः दोस्त का स्नेह व प्रेम चाहते हों तो दुख में उसके लिए दौड़कर जाना अपना प्रथम कर्तव्य मानिए।

जरूरत पड़ने पर अपने निज स्वार्थ को त्यागकर आपके कामआने वाला दोस्त ही सच्चा होता है। अतः उसकी आर्थिक व सामाजिक हैसियत चाहे जो हो, उसके प्रेमभाव का मूल्य करना सीखें। दोस्ती त्याग माँगती है, लेकिन यह दोनों तरफ से अपेक्षित है। एक अकेला हमेशा त्याग करें व दूसरा सिर्फ फायदा उठाए तो दोस्ती कच्चे धागे-सीकभी भी टूट सकती है।

दोस्ती बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि जहाँ तक हो, पैसा बीच में न आने दें और न ही ऐसा व्यवहार रखें जो आप सदा निभा न सकें। पति-पत्नी अगर आजीवन सच्चे दोस्त बने रह सकें तो इससे बढ़कर सुखद स्थिति कोई हो ही नहीं सकती, क्योंकि हर खुशहाल परिवार में पति-पत्नी के बीच दोस्ती का ही गहरा रिश्ता होता है।

जब वे आपस में हर सुख-दुख व विचार बाँट सकते हों तो उन्हें बाहरी दोस्त की आवश्यकता ही नहीं होती। प्रौढ़ावस्था हो या वृद्धावस्था, दोस्त हर पड़ाव की माँग होते हैं। दोस्ती की उम्र जितनी लंबी होती है उतनी ही वह परिपक्व व प्रेम से भरपूर, स्वार्थ रहित अनौपचारिक व सादगी भरी होती है, साथ ही सबसे अधिक सुख देती है।

सच्ची व निश्छल दोस्ती में हम जीवन का असीम सुख व शांति पा सकते हैं। जीवन संघर्ष में व्यस्त होने पर भी कुछ घड़ियाँ सब कुछ भूलकर हम मित्रों के साथ बिताकर ही जीवन का आनंद बटोर सकते हैं। यही मित्र जीवन पर्यंत हमारे लिए भावनात्मक सहारा व सुरक्षा का एहसास होते हैं। अतः हम सच्चे दोस्त बनाने का प्रयास करें व स्वयं भी अच्छे व सच्चे दोस्त साबित हों।

'फ्रेंडशिप डे' केवल खरीदे हुए 'बैंड' बाँधकर पूर्ण नहीं होगा। इसके लिए हमें अपने आपसे सर्वप्रथम वादा करना होगा कि 'जीवन में जिसे भी दोस्त बनाएँगे उसके साथ दोस्ती निभाने का, उसे टिकाने का पूर्ण प्रयास करेंगे व स्वार्थ त्यागकर दोस्त के लिए काम आ सकने का,उसका जीवन सुधारने का, उसे बेहतर बनाने का पूर्ण प्रयास करेंगे। केवल उससे अपेक्षाएँ रखने के बजाए उसकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने का प्रयास करेंगे। तभी इस दिन को मनाने की सार्थकता सिद्ध होगी।