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Written By WD

गौरैया, तुम कहाँ हो....!

गुम हो रही है आँगन की नन्ही चिड़िया

Environment Day | गौरैया, तुम कहाँ हो....!
कल्पना पालकीवाला (पसूका)
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हम लोगों में से बहुत से लोगों का बचपन सुबह-सुबह धूप में इधर-उधर फुदकती, चहकती एक छोटी से सुन्दर चिड़िया को देखते बीता है। कुछ साल पहले अमूमन हर घर-आँगन में दिखाई पड़ने वाली अपनी सी घरेलू गौरैया, अब ढूँढ़े से भी नहीं दिखती। पर्यावरण को होने वाली मानवजन्य क्षति की एक और मिसाल बनने जा रही यह नन्ही-सी चिड़िया सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में तेजी से दुर्लभ होती जा रही है।

पिछले कुछ सालों में गौरैया की संख्या में बड़ी कमी देखी गई है। लगभग पूरे यूरोप में सामान्य रूप से दिखाई पड़ने वाली इन चिड़ियों की संख्या अब घट रही है। हालात इतने खराब हो गए हैं कि नीदरलैंड (हॉलैंड) में इनकी घटती संख्या के कारण इन्हें रेड लिस्ट में रखा गया है। कमोबेश यही हालत ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चेक गणराज्य, बेल्जियम, इटली तथा फिनलैंड के शहरी इलाकों में दर्ज की गई है।

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विश्वभर की चहेती, लगभग पूरे विश्व में चहचहाने वाली इस चिड़िया का मूल स्थान एशिया-यूरोप का मध्य क्षेत्र माना जाता है। मानव के साथ रहने की आदी यह चिड़िया मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ विश्व के बाकी हिस्सों में जैसे उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड में भी पहुँच गई।

गौरैया को एक बुद्धिमान चिड़िया माना जाता है। इसकी खासियत है कि यह अपने को परिस्थिति के अनुरूप ढालकर अपना घोंसला, भोजन उनके अनुकूल बना लेती है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण यह विश्व में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली चहचहाती चिड़िया बन गई।

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गौरैया बहुत ही सामाजिक पक्षी है और ज्यादातर पूरे वर्ष झुंड में उड़ती है। एक झुंड 1.5-2 मील की दूरी तय करता है, लेकिन भोजन की तलाश में अकसर 2-5 मील भी उड़ लेती है। गौरैया का प्रमुख आहार अनाज के दाने, जमीन में बिखरे दाने तथा कीड़े-मकोड़े हैं। इसकी कीड़े खाने की आदत के चलते इसे किसानों की मित्र माना जाता है वहीं खेतों में डाले गए बीजों को चुगकर यह खेती को नुकसान भी नहीं पहुँचाती।

गौरैया घरों से बाहर फेंके गए कूड़े-करकट में भी अपना आहार ढूँढ लेती है। बसंत के मौसम में, फूलों की (खासकर पीले रंग के) क्रोकूसेस, प्राइमरोजेस तथा एकोनाइट्ज फूलों की प्रजातियाँ घरेलू गौरैया को ज्यादा आकर्षित करती हैं। ये तितलियों का भी शिकार करती हैं।

गौरैया अपना घोंसला बनाने के लिए साधारणतः वनों, मानव-निर्मित एकांत स्थानों या दरारों, पुराने मकानों का बरामदा, बगीचा इत्यादि की तलाश करती हैं। गौरैया अकसर अपना घर मानव आबादी के निकट ही बनाती हैं।

इनके अंडे अलग-अलग आकार और पहचान के होते हैं। अंडे को मादा गौरैया सेती है। गौरैया की अंडा सेने की अवधि 10-12 दिनों की होती है जो सारी चिड़ियों की अंडे सेने की अवधि में सबसे कम है।

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हर क्षेत्र में पाई जाती है- भारत के हिन्दीभाषी क्षेत्रों में यह गौरैया के नाम से लोकप्रिय है। तमिलनाडु तथा केरल में कूरूवी, तेलुगू में पिच्चूका, कन्नड़ में गुब्बाच्ची, गुजरात में चकली, मराठी में चिमानी, पंजाब में चिड़ी, जम्मू तथा कश्मीर में चेर, पश्चिम बंगाल में चराई पाखी, उडीसा में घरचटिया, उर्दू में चिड़िया तथा सिंधी में इसे झिरकी कहा जाता है।

क्या हैं कमी के कारण : मानव के साथ रहने की भारी कीमत इस नन्ही-सी जान को चुकाने पड़ी है। गौरैया की संख्या में आकस्मिक कमी के कई कारण हैं, जिनमें से सर्वाधिक मानवजन्य हैं जैसे सबसे चौंकाने वाला कारण है सीसारहित पेट्रोल का उपयोग, जिसके जलने पर मिथाइल नाइट्रेट नामक यौगिक तैयार होता है। यह यौगिक छोटे जन्तुओं के लिए काफी जहरीला है। साथ ही पनपते खरपतवार की कमी या गौरैया के आवासों को आश्रय देने वाले खुले वन क्षेत्रों की कमी।

पक्षीविज्ञानी एवं वन्यप्राणी विशेषज्ञों का यह मानना है कि पक्के मकानों का बढ़ता चलन, लुप्त होते बाग-बगीचे, खेतों में कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग तथा भोजन स्त्रोतों की उपलब्धता में कमी इत्यादि इनकी घटती आबादी के लिए जिम्मेवार हैं।

किसानों द्वारा फसलों पर कीटनाशकों के छिड़काव के कारण कीट मर जाते हैं जिनके ऊपर ये निर्भर हैं। कोयंबटूर स्थित सालिम अली पक्षी विज्ञान एवं प्राकृतिक विज्ञान केन्द्र के डॉ. वीएस विजयन के अनुसार यद्यपि अभी पृथ्वी के दो-तिहाई हिस्से की उड़ने वाली प्रजातियों का पता लगाया जाना बाकी है, फिर भी ये बड़ी ही विडंबना की बात है कि जो प्रजाति कभी बहुलता में यहाँ थी, कम हो रही है। जीवनशैली तथा इमारतों के आधुनिक रूप से आए परिवर्तन ने पक्षियों के आवासों तथा खाद्य स्रोतों को बर्बाद कर दिया है।

आज घर के बाहर चिड़ियों का झाडियों की डाली पर उछलना और उनका चहचहाना किसी को शायद ही दिखाई पड़ता हो। हम महादेवी वर्मा की कहानी गौरेया को याद कर सकते हैं जिसमें गौरैया उनके हाथ से दाना खाती है, उनके कंधों पर उछलती फिरती है और उनके साथ लुका-छिपी खेलती है। आज हर कोई चाहता है कि गौरेया अब सिर्फ कहानियों में ही सिमटकर न रह जाए बल्कि वह एक बार फिर हमारे घर-आँगन में पहले की तरह वापस आकर चहचहाए।

संपादन- संदीप सिसौदिया