दिल्ली गैंगरेप पीड़िता की मौत क्या नवजागरण की बुनियाद बनेगी?
अभी चंद रोज पहले ही इंदौर में हुए मुशायरे में वसीम बरेलवी शेर पढ़ रहे थे- 'जिस घर में बस एक कमाने वाला हो, मर जाए तो पूरा घर मर जाता है' ... उस लड़की के माँ-बाप ने भी नमक-रोटी खाकर बेटी को बड़ा किया और पढ़ाया... और आज वो मर गई। जिन कारणों से उसकी मौत हुई है उससे उसका पूरा घर ही नहीं, हमारे भीतर भी कहीं कुछ मर गया है।अपने माता-पिता के इस कठोर संघर्ष के बदले उनकी झोली में सुख भरने के लिए फिजियोथैरेपी की ये छात्रा जब दिल्ली की सड़कों पर घूम रही थी तो उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसके सपने यों चूर-चूर हो जाएँगे। अपनी बेटियों को बहुत हसरतों से इस समाज में बड़ा कर रहे माँ-बाप के मन में भी कहीं कुछ मर गया है। बिना आहट के मन का शीशमहल तिड़क गया है। उसमें गहरी दरार है। ....उसके टूटते समय भीतर बड़ी आवाज नहीं हुई ...इसीलिए हम और भी डरे हुए हैं और बाहर की तरफ जोर-जोर से चीख रहे हैं। बहुत दिनों से बहुत से लोग हैरान हैं कि इतना हंगामा क्यों बरपा है, इतने नौजवान इतनी हिम्मत से सड़कों पर क्यों आ गए? लाठी और आंसू गैस के गोले खाकर भी क्यों डटे रहे? गुस्सा लगातार बना ही रहा। और आज उसकी मौत के बाद अभिव्यक्ति का जो सैलाब उमड़ा है... उसे भी बहुत सारे लोगों के लिए समझना मुश्किल है। आक्रोशित अवाम के माथे पर जो चिंता की लकीरें हैं, उनके बीच लिखी इबारत को ध्यान से पढ़ना होगा। इनमें गुस्सा है, आक्रोश है, नाराजगी है, ...और हैं ढेर सारे सवाल
कई लोगों के लिए तो शायद यह भी बस फैशन ही है। वो इसे समझ भी नहीं पाएँगे। ...और सत्ता के लिए ...उसके लिए तो ख़ैर इसे समझ पाना हमेशा ही मुश्किल होगा। ऊँची अट्टालिकाओं के भीतर बैठे इन सत्ताधीशों और आम आदमी के बीच का फासला इतना बड़ा हो चुका है कि वो इस पर पुल बनाकर इसे तय करने की बजाय घबराहट में मेट्रो स्टेशन बंद करने और लाठियाँ भांजने में ही लगे हुए हैं। उस पीड़िता के बहाने दरअसल ये पूरा समाज और पूरी व्यवस्था ही अपने आप से लड़ रही है। इस विरोध प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतरे लोगों, लगातार ट्वीट कर रही, फेसबुक पर संदेश लिख रही जनता और टेलीविजन पर इसे देखकर आक्रोशित हो रहे अवाम के माथे पर जो चिंता की लकीरें हैं, उन लकीरों के बीच लिखी इबारत को ध्यान से पढ़ना होगा। इनमें गुस्सा है, आक्रोश है, नाराजगी है, अफसोस है, रंज है, चिंता है ...और हैं ढेर सारे सवाल।इनमें से बहुत सारे सवाल तो अपने आप से हैं। ये कैसा समाज बनाया हमने? क्या भूखे भेड़ियों के इस समाज में हम अपनी बेटियों को बड़ा करेंगे? ऐसा कब तक चलेगा? क्या हम कुछ नहीं कर सकते? क्या हम इतने असहाय हैं? क्या इसीलिए लोग अपनी बच्चियों को कोख में ही मार देते हैं? क्या ये सारा दोष सिर्फ व्यवस्था का है या हम भी इस सब में कहीं ना कहीं शामिल हैं? क्या केवल कड़े कानून बना देने भर से ये सब रुक जाएगा?दरअसल इस सब में हम दोनों ही स्तरों पर लड़ाई लड़ रहे हैं- व्यवस्था से भी और अपने आप से भी। बलात्कार एक गंभीर सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अपराध है और इससे निपटने के लिए लंबी लड़ाई लड़ना होगी।व्यवस्था चरमरा चुकी है। उसमें बहुत सड़ांध है। ये गंदगी अलग-अलग जख़्मों से अलग-अलग बहानों से बाहर झाँक रही है। ...और हम उसका इलाज नहीं कर पा रहे। क्योंकि व्यवस्था के इलाज के लिए दृढ़ संकल्प वाला नेतृत्व और प्रबल इच्छाशक्ति चाहिए..... और अफसोस की दोनों ही गैर-मौजूद हैं। व्यवस्था खुद नहीं बदली तो सामाजिक पुनर्जागरण के जोरदार थपेड़े इसे बदलने पर मजबूर कर देंगे। और शुभ संकेत यह है कि हिलोरें दिखाई देने लगी हैं
आप इसी मामले में देखें तो जिस बस में यह सब हुआ उसके पास परमिट ही नहीं था और उसका आठ बार चालान बन चुका था। उस पर गहरे काले शीशे थे और पर्दे भी लगे थे।.... हिंदुस्तान के तमाम शहरों में ऐसी बसें अब भी धड़ल्ले से चल रही हैं, हम सब को मुँह चिढ़ाती हुईं। पुलिस कमिश्नर तक भी बस अपनी कुर्सी बचाने में लगे रहे, लड़की के बयान में अड़चनें डालीं।अपने आप को जनप्रतिनिधि मानने वाले एक भी नेता में दम नहीं था, जो उन युवाओं कि आँख में आँख डालकर बात कर सके.... पूरी हिम्मत के साथ। उस यादव ट्रैवल्स की बसें अब भी सड़कों पर हैं। उसके खिलाफ कोई मुकदमा कायम नहीं हुआ है।... व्यवस्था चौकस हो तो बहुत कुछ रोका जा सकता है। अगर व्यवस्था खुद नहीं बदली तो सामाजिक पुनर्जागरण के जोरदार थपेड़े इसे बदलने पर मजबूर कर देंगे। और शुभ संकेत यह है कि हिलोरें दिखाई देने लगी हैं। इन्हें तूफान में बदलने के लिए हमें और लहरें उठानी होंगी, अपने आक्रोश को जिंदा रखना होगा। एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि दिल्ली की इस घटना और उससे उपजे आक्रोश के बाद भी देश भर से बलात्कार की ख़बरें आती रहीं। सिलसिला कहीं थमा नहीं। इसीलिए हमें इस लड़ाई को, सामाजिक परिवर्तन की इस बयार को और गहराई तक ले जाना होगा। ... हमें लड़ना होगा अपने भीतर के आदमी से और लड़ना होगा अपने भीतर के पाखंड से। हम जानते हैं कि कमियाँ कहाँ हैं? हम कैसे अपने बच्चों को बड़ा कर रहे हैं। शॉपिंग मॉल्स, मल्टीप्लेक्स, विदेश में छुट्टी, बेहतरीन तनख़्वाह के साथ आलीशान गाड़ियों में तेजी से दौड़ रहे हिंदुस्तान के पास अपने ही मोहल्ले के पीछे की तंग बस्ती में छाए घुप्प अंधेरे की ओर झाँकने की फुरसत नहीं है। चमचमाते हिंदुस्तान को देखकर उनमें उपज रही कुंठा को समझने का समय भी हमारे पास नहीं है। ...पर जब उन घुप्प अंधेरों से निकलकर कोई कालिख हमारे मुँह से चिपक जाती है तो हम बिलबिला उठते हैं....??इंटरनेट, फेसबुक और अंग्रेजियत के साये में बड़ी हो रही हमारी नई नस्ल के नए सरोकारों के लिए भी हमारे पास समय नहीं है। समय से पहले उन तक पहुँच रही जानकारियाँ और दृश्य कैसे उनकी जैव रासायनिक संरचना को आंदोलित कर रहे हैं, कैसे उनका केमिकल कंपोजिशन बदल रहा है और उससे कैसे निपटा जाए ये समझाने वाला भी कोई नहीं है। इस सबके चलते अचानक अपने भीतर जाग जाने वाले जानवर से कैसे निपटा जाए, इसके लिए किस तरह कि शिक्षा और सामाजिक परिवेश की आवश्यकता है, उस पर भी सोच को कोई सिरा नजर नहीं आता। ... इसीलिए हम लड़ रहे हैं, इस व्यवस्था से भी और अपने आप से भी। ...
और इस लड़ाई को हमें जारी रखना होगा हर स्तर पर। इसे एक बड़े सामाजिक आंदोलन में तब्दील करने के लिए। परिवर्तन हर स्तर पर। उस पीड़िता की मौत ने जागरण का जो दीपक जलाया है उसमें हमारे आक्रोश का तेल सतत पड़ते रहना चाहिए..... पूरा उजाला फैलने तक .... सुबह होने तक... यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।