श्रीनगर में आतंकी हमला
अमन पर हमला
श्रीनगर में आज (बुधवार को) सीआरपीएफ के कैंप पर हुआ आतंकी हमला अमन के उन कबूतरों को घायल करने की कोशिश है, जो श्रीनगर की इमारतों के कंगूरों पर, घर के दालान में और लाल चौक के इर्द-गिर्द पिछले कुछ समय से गुटरगूँ कर रहे थे। अमन के परिंदों के परवाज को रोकने और घाटी के अमन चैन को गोलियों की आवाज से गुंजा देने के लिए ये ताकतें बहुत लंबे समय से लालायित थीं। अफजल गुरु के फाँसी के फंदे पर लटककर ये आतंकी फिर उसी दहशतगर्दी को कायम करना चाहते हैं, जिससे इनका आतंक का व्यापार चलता है। घाटी में दिखाई दे रही शांति पाकिस्तान को कभी रास नहीं आ रही थी।
यों भी घाटी पूरी तरह शांत कभी नहीं रही। ये जरूर है कि पर्यटक वहाँ आने लगे थे, डल झील फिर गुलजार होने लगी थी। स्कूल, कॉलेज की कक्षाएँ नियमित चल रही थीं। लेकिन दरअसल सेना की संगीनें दहशत के सीने पर तनी हुई थीं। आम जनता में शामिल होकर दहशत फैला देना अब पहले की तरह आसान नहीं रह गया था। और इसीलिए सैन्य बलों के लिए विशेष कानून (आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल प्रोटेक्शन एक्ट- अफ्स्पा) को हटा लेने की माँग भी ख़ूब जोर पकड़ने लगी। इसके लिए वार्ताकारों को भी घाटी में भी भेजा गया।इस बीच अब घाटी फिर दहल उठी है। ये बात सही है कि संगीनों के साये में मिलने वाली शांति सच्ची शांति भी नहीं है। सैन्य बूटों की आवाजें अमन में खलल डालती हैं। ये भी सही है कि विशेष कानून की आड़ में सेना की ज्यादतियों के मामले भी सामने आए हैं। ऐसे मामलों में तुरंत कड़ी कार्रवाई करते हुए सैनिकों के अनुशासन पर भी कड़ाई से मेहनत जरूरी है। सीआरपीएफ के उन जवानों कि शहादत को सलाम करते हुए यह उम्मीद करें कि घाटी में अब बर्फ का रंग लाल नहीं हो पाएगा।
लेकिन कश्मीर जैसे संवेदशील स्थान को जहाँ दुश्मन लगातार घात लगाए बैठा हो यों खुला नहीं छोड़ा जा सकता। ये दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि धरती के इस स्वर्ग में बर्फ की सुंदर सफेद चादर पर जब - तब ख़ून के लाल छींटे दिखाई देते हैं। कश्मीरी पंडितों का वहाँ से पलायन और धारा 377 के मसले महत्वपूर्ण और गंभीर विमर्श के साथ दूरगामी परिणामों वाले कदम उठाने कि माँग भी करते हैं।
बहरहाल, जिस डर के मारे अफजल गुरु को फाँसी देने में इतनी देर की गई, उस डर को सच करने की कोशिश की जा रही है। ये जताने के लिए कि वो जो डर था वो 'भेड़िया आया' वाला नहीं था। इसके सियासी नफे-नुकसान की बिसात भी बिछ चुकी है। सवाल ये है कि जब पता था कि इसको मुद्दा बनाकर फिर आतंकवाद की राख को चिंगारी देने की कोशिश की जाएगी तो फिर अतिरिक्त सतर्कता क्यों नहीं बरती गई? कैसे वो सीधे कैंप तक पहुँच गए? क्या हमारे सीआरपीएफ के पाँच जवानों के शहीद होने पर ही सबक सीखा जा सकता था? और क्या हमने वाकई अब भी कोई सबक सीखा है?
घाटी में अमन कायम रखना बड़ी चुनौती है। अफजल गुरु की मौत को बहाना बनाकर फिर वो ही खूनी खेल शुरू ना हो इसके लिए प्रबल राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए। सीआरपीएफ के उन जवानों कि शहादत को सलाम करते हुए यह उम्मीद करें कि घाटी में अब बर्फ का रंग लाल नहीं हो पाएगा।