मिस्र : जम्हूरियत के लिए तड़पती एक ज़िंदा कौम
वो तड़प रहे हैं और वो मचल रहे हैं। वो अब केवल बदलाव से शांत हो जाने वाले नहीं। उन्हें काग़ज़ पर मिली हुई आज़ादी नहीं चाहिए। उन्हें आजादी के नाम पर एक शोषक के बदले दूसरा शोषक नहीं चाहिए। उन्हें ऐसा नेता नहीं चाहिए जो उन्हें फिर उसी राह पर ले जाए जहाँ से वो लौटे हैं, चाहे फिर उस नेता को जनता ने खुद वोट देकर क्यों ना चुना हो।
दो साल पहले हुई तहरीर चौक की क्रांति से हुस्नी मुबारक का तख़्ता पलट लेने भर से मिस्र की अवाम हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ गई। ये ही उनके ज़िंदा होने की निशानी है। मुर्सी को भगाकर उन्होंने साफ संदेश दे दिया है कि ना हम पुरानी ग़लती दोहराएँगे और ना हम अब तीस साल तक इंतजार करेंगे। 11
फरवरी 2011 को हुस्नी मुबारक सत्ता से हटाए गए। 30 जून 2012 को मोहम्मद मुर्सी ने राष्ट्रपति पद की शपथ ली। वो जनता द्वारा ही चुने गए थे और जनता खुश थी कि अब मिस्र में जम्हूरियत की बयार बह रही है। नवंबर 2012 में राष्ट्रपति मुर्सी ने वो ग़लती की जिसका ख़ामियाजा उन्हें आज सत्ता गंवाकर उठाना पड़ रहा है।उन्होंने नवंबर 2012 में एक ऐसा आदेश पारित करवाया जो उन्हें असीमित शक्तियाँ प्रदान करता है। ये ही चूक उनके लिए बहुत भारी पड़ी। हुस्नी मुबारक के हश्र से उन्होंने कोई सबक नहीं लिया। सत्ता पाते ही मुर्सी ने अमर हो जाना चाहा, निरंकुश हो जाना चाहा। उन्होंने साबित किया कि सत्ता की शक्ति आपको भ्रष्ट करती है और संपूर्ण सत्ता आपको संपूर्ण रूप से भ्रष्ट करती है (Power corrupts and Absolute Power corrupts absolutely)। उनके इस कदम का तगड़ा विरोध हुआ और उन्हें अपना आदेश वापस लेना पड़ा। लेकिन, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वो यह भूल गए कि वो अब सोई हुई अवाम के नहीं, जाग चुकी जनता के नेता हैं। वो राज नहीं कर रहे, नेतृत्व कर रहे हैं। विरोध की जो चिंगारी नवंबर 2012 में भड़की थी वो आग बनकर पूरे मिस्र में पसर चुकी थी। और 3 जुलाई 2013 को इस आग ने मुर्सी को कुर्सी छोड़कर भागने पर मजबूर कर दिया। लगता है कि मिस्र के पिरामिडों में बरसों से सो रही पुरखों की आत्माएँ जाग गई हैं और वो अवाम को ताकत दे रही हैं कि वो लड़े, अपनी आजादी के लिए, पूरी आजादी के लिए
इसमें कोई शक नहीं कि इस पूरे तख़्ता पलट में सेना ने बड़ी भूमिका निभाई। अगर सेना साथ नहीं देती तो तोपों के मुँह जनता की तरफ हो जाते और इस आंदोलन को कुचलने की पूरी कोशिश की जाती जैसा कि तुर्की में हो भी रहा है। लेकिन, सेना का रुख हुस्नी मुबारक से लेकर अब तक जनता के साथ ही रहा है। इसी वजह से वहाँ इतनी बड़ी क्रांति के बाद भी बहुत ज्यादा ख़ून-ख़राबा नहीं हुआ। इसीलिए 2011 में हुई क्रांति को "जैस्मिन रिवोल्युशन" भी कहा गया।सेना द्वारा जनता के साथ खड़े रहना सबसे अहम पहलू है। इसके बावजूद सेना वहाँ खुद सत्ता नहीं संभाल रही। वहाँ इस वक्त तो सैन्य शासन का कोई ख़तरा नजर नहीं आ रहा। सेना ने मिस्र के मुख्य न्यायाधीश अल मंसूर को अंतरिम राष्ट्रपति बनाया है और जल्द चुनाव करवाने का वादा किया है। मिस्र के लिए यह बड़ी उपलब्धि है और वहाँ जम्हुरियत की कामयाबी के लिए एक आवश्यक शर्त भी। लगता है कि मिस्र के पिरामिडों में बरसों से सो रही पुरखों की आत्माएँ जाग गई हैं और वो अवाम को ताकत दे रही हैं कि वो लड़े, अपनी आजादी के लिए, पूरी आजादी के लिए। पिरामिडों से निकलने वाली ऊर्जा उन्हें बेचैन करती रहेगी कि वो चुप न बैठें, शांत ना रहें तब तक, जब तक पूर्ण स्वराज्य नहीं मिल जाता.... वही "पूर्ण स्वराज" जिसकी कल्पना लोकमान्य तिलक ने की थी। ... हमें भी कहाँ मिला है अब तक..... क्या हम जागेंगे?