विपश्यना साधना : जादू के पिटारे के समान
- कैप्टन आरके मरवाहा
मैंने जयपुर विपश्यना केंद्र द्वारा आयोजित 24 मई 1991 के शिविर में भाग लिया था। मैं पूर्ण विश्वास के साथ कहता हूँ कि दस दिनों का यह समय मेरे जीवन का सर्वोत्तम समय रहा। उस अल्पावधि में मुझे जो अनुभव प्राप्त हुआ वह बड़ा विशाल, बड़ा समृद्ध एवं मूल्यवान है। उसे शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। उसने मेरे जीवन में एक नया दर्शन प्रकट किया है। उसके द्वारा जीवन के रहस्य को अनुभव करने की एक नई दृष्टि मिली है। राग-द्वेष नामक अपने प्रमुख शत्रुओं से कोई व्यक्ति कैसे मुक्ति पा सकता है, इसका उत्तर ऊपर से जितना सरल लगता है, अभ्यास की प्रक्रिया उतनी ही बोझिल भी है। इसमें मात्र गहरे ज्ञान और वैज्ञानिक पकड़ की ही दरकार नहीं, बल्कि व्यवहार-कुशलता एवं निपुण संचालन की भी है।
विपश्यना साधना आम लोगों के लिए एक जादू के पिटारे के समान खुली है, जिसमें सभी प्रकार के प्रश्नों का शत-प्रतिशत समाधान सुनिश्चित रूप में सुरक्षित है। जो हर किसी को आनंदपूर्ण, सुखी और अर्थपूर्ण जीवन की ओर अग्रसर करती है। इसने मुझे गहरी नींद से जगाकर स्वानुभूति और मुक्ति की राह दिखाई है। हमें केंद्र पर जो प्रक्रिया सिखाई गई वह अत्यंत सहज, क्रमबद्ध और वैज्ञानिक है। इसके प्रभाव का सही अंदाज शिविर करने के पश्चात ही लगाया जा सकता है। अंत में, श्रद्धेय गुरुदेव सत्यनारायण गोयन्काजी के प्रति अपनी सच्ची कृतज्ञता प्रकट करता हूँ, जो दो हजार वर्षों से अधिक अंतराल के पश्चात इस अमूल्य विद्या- 'मृत्यु की कला' और 'जीवन की कला' को इसकी अपनी मातृभूमि पर कठोर तप से पुनः फैला रहे हैं। वहाँ तक पहुँचने का मेरा सौभाग्य नहीं है। सत्र-संचालक सहायक आचार्य का भी आदर के साथ अभिनंदन करता हूँ, जिन्होंने प्रसन्न और परोपकारी अभिव्यक्ति तथा धैर्य द्वारा अपने विस्तृत ज्ञान और अत्यधिक नियंत्रित भाषा से शंकाओं का समाधान किया।