योग : स्वस्थ जीवन की सहज पद्धति
हर मनुष्य का कर्तव्य है योगाभ्यास करना
महर्षि पतंजलि ने स्वस्थ जीवन हेतु अष्टांग मार्ग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि बताए हैं। इसी का तीसरा अंग है आसन। अक्सर हम देखते हैं कि हर मनुष्य किसी न किसी प्रकार के तनाव में जीता है और उसके मन का यह तनाव उसके शरीर पर, चेहरे के भाव या हाथ-पांव की गतिविधियों के माध्यम से देखने को मिलता है। जैसे कुछ मनुष्यों की आदत होती है कि वे अपनी बात को प्रस्तुत करने के लिए हाथ हिला-हिलाकर समझाने की कोशिश करते हैं। कभी हम देखते हैं कि कुछ व्यक्ति समूह में बैठे होने पर भी स्थिर ना बैठते हुए हिलते-डुलते रहते हैं या यूं कहें कि सबके बीच असुविधाजनक महसूस करते हैं तो कभी किसी के चेहरे से हमेशा तनाव दिखाई देता है। मनुष्य की इन कमजोरियों को दूर करने के लिए यदि वह आसनों का अभ्यास प्रतिदिन करे तो शरीर में स्थिरता आती है और प्राणायाम का प्रतिदिन अभ्यास कर मन की चंचलता समाप्त होती है। इससे मन शांत, स्थिर व एकाग्र होता है। जब शरीर और मन शांत व स्थिर होते हैं तो अपने आप ही आत्मविश्वास बढ़ता है तथा विपरीत परिस्थितियों को समझने में सहायता मिलती है। आसन, प्राणायाम के अभ्यास से दृष्टिकोण में बदलाव आकर सकारात्मकता बढ़ती है, जिससे मनुष्य अपने उद्देश्य में सफलता की ओर अग्रसर होता है।
महर्षि पतंजलि ने इसे 'योगःश्चित वृत्ति निरोधः' के रूप में परिभाषित किया है। अर्थात मन का, चित्त का, वृत्तियों का अर्थात चंचलता का निरोध करना अर्थात उसे नियंत्रित करना ही योग है।इसी प्रकार धारणा और ध्यान, धारणा मतलब किसी विषय या वस्तु पर मन को एकाग्र करना। ध्यान मतलब मन का इतना एकाग्र हो जाना कि साधक का बाहरी जगत से संपर्क टूट जाए व वह अंतर्मुखी/आत्मलीन हो जाए। यह अवस्था ध्यान से प्राप्त होती है।इस प्रकार योग को 'योगः कर्मसुकौशलम्' इस रूप में भी परिभाषित किया गया है, जिसका अर्थ है हम जो भी कार्य कर रहे हैं उसे पूरी तन्मयता, एकाग्रता व कुशलता के साथ करें।