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Written By ND

बढ़ोतरी और विकास का फर्क

बढ़ोतरी और विकास का फर्क -
- विश्वनाथ त्रिपाठी
कहा जाता है कि आर्थिक उदारीकरण की नीति अपनाने के बाद भारत का आर्थिक विकास बहुत तेजी से हो रहा है। कभी-कभी तो अमेरिका जैसे देश यहाँ तक डरते हैं कि आर्थिक दृष्टि से भारत विकसित देशों के लिए भी चुनौती बनकर खड़ा हो रहा है। आर्थिक उदारता की नीति भूमंडलीकरण का ही दूसरा नाम है और इसके चलते भारत विश्व-बाजार की धारा में आ गया है। आर्थिक विकास का लक्षण यह है कि देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है। बाजार उपभोक्ता वस्तुओं से पटा है।

महानगरों, नगरों यहाँ तक कि सुदूरवर्ती इलाके में भी शॉपिंग मॉल्स की ऊँची अट्टालिकाएँ दिखलाई पड़ती हैं। दूरसंचार माध्यम के उपकरणों का प्रयोग आश्चर्यजनक गति से व्यापक तौर पर बढ़ा है। लोगों की, विशेष रूप से नई पीढ़ी के युवाओं की जीवनशैली अभूतपूर्व ढंग से और द्रुत गति से बदल रही है। पोशाक, खान-पान, प्रसाधन इन सब में नयापन आ रहा है और ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है, जो इस परिवर्तन को ही विकास का लक्षण मानते हैं।

कुछ बातें ऐसी भी हैं, जो तस्वीर का दूसरा रूप पेश करती हैं। कृषि योग्य भूमि कम हो रही है। बहुत बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। और ये आत्महत्याएँ पंजाब, विदर्भ, महाराष्ट्र और आंध्र जैसे उन प्रदेशों में हो रही हैं, जहाँ के किसान देश के समृद्घतम माने जाते थे। साफ है कि देश के किसान मौजूदा आर्थिक नीति से प्रसन्न और संतुष्ट नहीं हैं। 'सेज' का वे सर्वत्र विरोध कर रहे हैं।

यहाँ तक कि पश्चिमी बंगाल जैसे प्रदेश में भी जहाँ की वामपंथी सरकार ने भूमि वितरण करके किसानों को बहुत पहले संतुष्ट कर दिया था और जहाँ ग्रामीण क्षेत्रों के किसानों के समर्थन के बल पर वहाँ की वामपंथी सरकार लगभग तीस वर्षों से टिकी हुई है, वहाँ के किसान भी नई नीति का घोर विरोध कर रहे हैं। ये भूलने की बात नहीं है कि भारत कृषि प्रधान देश है। और यहाँ की आबादी का अधिकांश भाग खेती पर अपना पेट पालता है।

आर्थिक उदारीकरण के पूर्व खाद्यान्न के संकट को हमने हरित क्रांति के जरिए दूर किया था और हम इस क्षेत्र में स्वावलंबी हो गए थे। फिलहाल देश में खाद्यान्न संकट नहीं है और वर्षा अच्छी होने के कारण फसल अच्छी होने की उम्मीद है, लेकिन इससे खाद्यान्न की समस्या का समाधान नहीं होगा। विचित्र उलटबाँसी है कि देश में खाद्यान्न का और अन्य वस्तुओं का पर्याप्त भंडार है, लेकिन वह लोगों को नसीब नहीं।

महँगाई तो विकास की पहचान बन गई है। यह नहीं कहा जाता कि महँगाई के कारण इस देश की अधिकांश जनता को जीवन चलाने के लिए नितांत आवश्यक वस्तुओं से कितना वंचित रह जाना पड़ता है। मतलब यह है कि देश की अधिकांश जनता की अभावग्रस्तता की कोई यातना देश के कर्णधारों के वक्तव्यों में नहीं झलकती। महँगाई को विकास से जोड़कर वे सुखी ओर संतुष्ट लोगों को आँकड़ेबाजों की तरह आश्वस्त कर देते हैं, लेकिन अभावग्रस्त जनता के लिए अप्रासंगिक हो जाते हैं।

इन दिनों शायद हमने जिस वस्तु का सबसे अधिक निर्यात किया है, वह है 'किडनी' जिसका सीधा संबंध निठारी जैसे कांडों से है। और हमारे देश में ऐसे जघन्य हत्याकांडों के अपराधियों की न शिनाख्त हो पाती है और न उन्हें दंडित किया जा सकता है। जिस विकास की बात हम लोग इतने जोर-शोर से करते हैं, वो शायद मोबाइल, शॉपिंग मॉल्स, लंबी चमचमाती कारों, ऊँची से ऊँची अट्टालिकाओं, महानगरों में दुर्गम टै्रफिक जामों से ज्यादा संबंध रखती है।

हिन्दी के महान कवि 'निराला' ने ऊँची अट्टालिकाओं को 'आतंक भवन' कहा था। निराला के समय में ये आतंक भवन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रतीक थे। ऊँचे भवन अब भी किसी न किसी साम्राज्यवाद से ही संबंध रखते हैं। यह विकास है तो इस विकास की परीक्षा करनी चाहिए। कबीरदास 'कागजलेखी' पर नहीं 'आँखिन देखी' पर यकीन करते थे। कागजलेखी आज के युग में वे आँकड़े हैं जो वस्तुस्थिति कम, सुखी और संतुष्ट लोगों के भ्रामक विज्ञापन ज्यादा होते हैं। और विज्ञापन का इस अर्थतंत्र में वही स्थान है, जो वेदांत में माया का है। माया के दो काम हैं।

'आवरण' यानी सत्य को ढँकना और निक्षेप यानी जो नहीं है, असत्‌ है उसे सत्य की तरह स्थापित करना। आप अखबारों, टीवी चैनलों में जो विज्ञापन देखते हैं और जिन विज्ञापनों ने लगभग सारे सांस्कृतिक कार्यक्रमों को ग्रस्त कर रखा है वे कितना सच बोलते हैं, कितना अंधाधुँध पैसा कमाने के साधन हैं। विज्ञापन कितनी तेजी से हमारे आस्वाद और हमारी रुचियों को भ्रष्ट कर रहा है। संगीत अब सुनने की नहीं, देखने की चीज हो गया है।

वस्तुतः दलित चेतना और नारी शिक्षा का प्रसार भारत की सर्वाधिक स्वागतयोग्य उपलब्धियाँ हैं। दलित चेतना तो अब दलित शक्ति बन चुकी है और नारी शिक्षा का असर हमारे पारिवारिक ढाँचे में क्रांतिकारी प्रगतिशील परिवर्तन ला रहा है। जरूरत इस बात की है कि हम विकास को बढ़ोतरी का समानार्थक न समझें। बढ़ोतरी अपने-आप में विकास नहीं, बढ़ोतरी का वितरण उचित विकास है। हमारे देश में समृद्घि आई है किंतु वह कुछ केंद्रों में ठहर गई है या जमा हो गई है। इसीलिए देश में तेजी से दो देश साफ दिखलाई पड़ते हैं।

बढ़ोतरी अगर किसी एक ही अंग या कुछ ही अंगों की होती रहे तो पूरा शरीर विकृत और विकलांग हो जाएगा। शरीर के कुछ ही अंगों की निरंतर बढ़ोतरी स्वास्थ्य नहीं भयंकर रोग कैंसर का लक्षण है। आप देश के एक हिस्से को समृद्घ बना दें, उनकी आकांक्षाओं को आसमान पर पहुँचा दें और पैसे के जोर से उन्हीं के प्रतिनिधि बन जाएँ। सामान्य जनता की आवाज सुनाई ही न पड़े तो आप प्रतिनिधि तो बन जाएँगे, नेता नहीं बन पाएँगे। नेता का काम जनता को आगे ले जाना भी होता है। वह कुछ लोगों या कुछ समुदायों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने से इंकार भी कर सकता है। (लेखक प्रसिद्ध समालोचक और चिंतक हैं।)