बंद मुट्ठी खुली तो खाक की
-
विनोद अग्निहोत्रीमाननीय नेताजी (मुलायमसिंह यादव)सादर अभिवादनस्वतंत्रता संग्राम में सुभाषचंद्र बोस को नेताजी कहा जाता था, बाद में समाजवादियों ने राजनारायण को यह संबोधन दिया। फिर समाजवादी पार्टी में आपको नेताजी कहा जाने लगा। आपको भी यह बेहद पसंद है।
फिरोजाबाद संसदीय उपचुनाव में आपकी पुत्रवधू डिम्पल यादव समेत उत्तरप्रदेश विधानसभा की 11 सीटों पर समाजवादी पार्टी की हार से निस्संदेह आप और आपके परिवार को दुःख पहुँचा होगा। हालाँकि पार्टी में कुछ नेताओं के खिले चेहरे भी मैंने देखे हैं। समाजवादी आंदोलन का गढ़ रहा आगरा-इटावा का यह क्षेत्र आपकी ऐसी गुफा जहाँ आपसे भिड़ने की हिम्मत भी कोई नहीं करता था। अयोध्या में कार सेवकों पर गोलीबारी और विश्वनाथ प्रतापसिंह की सरकार के पतन के समय चन्द्रशेखर का दामन थामने के आपके विरोधाभासी फैसलों के बाद राजनीतिक जीवन के सबसे कठिन दौर में हुए 1991 के चुनावों में भी आप इस पट्टी में अपनी सियासी जमीन बचा ले गए थे, लेकिन इन उपचुनावों में आप भरथना और इटावा की अपनी सीटें भी हार गए। शायद यह राजनीतिक असफलता आपको उस आत्मावलोकन का मौका देगी, जिसकी आवश्यकता हर राजनेता को होती है, क्योंकि बंद मुट्ठी लाख की खुली तो प्यारे खाक की। आपका राजनीतिक अतीत समाजवादी विचारों और किसान संघर्षों का रहा है और धारा के विपरीत फैसले लेकर जोखिम उठाने की राजनीतिक शैली आपकी पहचान रही है। आपकी छवि दोस्तों के दोस्त और जुझारू जमीनी नेता की रही है। जमीनी राजनीति, राजनीतिक कार्यकर्ताओं से निरंतर संपर्क और संवाद, जनता की नब्ज और जातीय समीकरणों के आप महारथी माने जाते रहे हैं। समाजवादी आंदोलन से अपना राजनीतिक जीवन शुरू करते हुए आप चौधरी चरणसिंह की लोकदलीय राजनीति के महारथी भी हैं। अँगरेजी हटाओ, दाम बाँधों आंदोलनों में युवा मुलायमसिंह की सक्रियता, किसानों के संघर्ष में भागीदारी, आपातकाल में जेल और जनता पार्टी की सरकार में सहकारिता मंत्री बनने के बाद लगातार गाँव और किसानों में आपकी लोकप्रियता बढ़ी। अस्सी के दशक में आपने तत्कालीन विश्वनाथ प्रतापसिंह की प्रदेश सरकार को फर्जी पुलिस मुठभेड़ों के लिए सड़क से सदन तक कठघरे में खड़ा किया। क्रांति रथ से उत्तरप्रदेश को मथा। 1989 में पहली बार मुख्यमंत्री बनकर आपने अपनी खाँटी देहाती राजनीतिक शैली की अलग छाप छोड़ी और धरती पुत्र कहलाए जाने लगे। अयोध्या को लेकर विश्वनाथ प्रतापसिंह और संघ परिवार की आँख-मिचौली के बीच बाबरी मस्जिद की हिफाजत के लिए मुलायम के कठोर फैसले ने सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष को नई धार दी।संघ परिवार ने आपको मौलाना और मुल्ला मुलायम कहकर हिन्दुओं में खलनायक बनाना चाहा तो विश्वनाथ प्रतापसिंह और उनके जनता दल के नेताओं ने भी आपको मिटाने की कम कोशिश नहीं की। इस चुनौती का जवाब आपने समाजवादी पार्टी बनाकर दिया। आपके सामाजिक आधार, अथक मेहनत करने की क्षमता और जुझारूपन ने जनेश्वर मिश्र, बेनीप्रसाद वर्मा, मोहम्मद आजम खान, रामशरण दास, बृजभूषण तिवारी, भगवतीसिंह, रमाशंकर कौशिक, मधुकर दिघे, रघु ठाकुर, केसी त्यागी, सत्यपाल मलिक, मोहन प्रकाश, मोहनसिंह जैसे तमाम समाजवादियों को आपके साथ खड़ा कर दिया।
संजय डालमिया जैसे उद्योगपति व अमिताभ आधार जैसे गाँधीवादी व्यवसायी परिवार के वारिस, राजनीतिक कार्यकर्ता से फिल्म स्टार बने राज बब्बर जैसे तमाम लोगों ने आपका झंडा उठाया। मधु लिमये, सुरेंद्र मोहन, रवि राय जैसे समाजवादी चिंतकों ने भी आपमें संभावनाएँ देखीं। बसपा से सपा के गठबंधन के आपके राजनीतिक प्रयोग ने भाजपा के हिन्दुत्व को चित कर दिया। भाजपा से बसपा की साठगाँठ का मुकाबला भी आपने किया और 1996 में राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण धुरी बन गए। आपके धुर विरोधी रहे नेताओं ने भी आपको नेता माना। वाम मोर्चे को भी आपमें ही धर्मनिरपेक्ष राजनीति की संभावनाएँ दिखाई दीं। लेकिन आपकी सियासी कामयाबी सत्ता की जोड़तोड़ में उलझ गई। उद्योग जगत ने आप पर डोरे डाल दिए। चुनावी जीत के लिए मजबूत नेता के नाम पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं की जगह बाहुबलियों, धनपतियों और विचारहीनों को तरजीह मिलने लगी। आप लखनऊ, दिल्ली और मुंबई में व्यस्त हो गए और एटा, इटावा, आजमगढ़ आपसे दूर होने लगे।
अस्सी के दशक में मुलायम ने तत्कालीन विश्वनाथ प्रतापसिंह की प्रदेश सरकार को फर्जी पुलिस मुठभेड़ों के लिए सड़क से सदन तक कठघरे में खड़ा किया। 1989 में पहली बार मुख्यमंत्री बनकर अपनी खाँटी देहाती राजनीतिक शैली की अलग छाप छोड़ी।
धूल से सने रहने वाले आपके कुर्ते-सदरी की जगह डिजाइनर कोट ने ले ली। कार्यकर्ताओं और मेरे जैसे तमाम पत्रकार मित्रों के लिए हमेशा सुलभ रहने वाले मुलायमसिंह यादव से मिलना दुर्लभ हो गया। मीडिया हो या रैली, नेताओं के नाम पर सिर्फ एक ही चेहरा आपसे भी ज्यादा दिखाई देने लगा। आप कार्यकर्ताओं और अपनों से दूर कर दिए गए। पार्टी के फैसले बंद कमरों में होने लगे। उन पर मुंबई के बड़े घरानों का असर दिखने लगा। सवाल उठाने वाले किनारे किए जाने लगे। पुराने राजनीतिक साथी दूर होने लगे। रघु ठाकुर, केसी त्यागी, सत्यपाल मलिक, मोहन प्रकाश, अमिताभ आधार, राज बब्बर, बेनीप्रसाद वर्मा और मोहम्मद आजम खान जैसे लोग बाहर हो गए। पर आपने परवाह नहीं की। कार्यकर्ताओं से ज्यादा आपका समय निजी मित्रों के साथ ज्यादा बीतने लगा। सियासी फैसले मुद्दों के हिसाब से नहीं मौके के हिसाब से होने लगे। जातीय समीकरण बनाने के लिए बाबरी मस्जिद गिराने के जिम्मेदार ठहराए गए कल्याणसिंह आपके हमकदम हो गए और धर्मनिरपेक्षता की आपकी साख पर सवाल उठने लगे। राजनीतिक कार्यकर्ताओं से ज्यादा भरोसा आपको अपने परिवार पर इस कदर हो गया कि फिरोजाबाद में किसी पार्टी कार्यकर्ता की जगह अपनी बहू को मैदान में उतारकर अपनी प्रतिष्ठा दाँव पर लगा दी। जनेश्वर मिश्र से लेकर रामगोपाल यादव तक की सलाहों पर आपने ध्यान नहीं दिया। आप भूल गए कि अगर कमांडर अर्जुनसिंह भदौरिया, रामसेवक यादव, नत्थीसिंह जैसे समाजवादी नेताओं ने अपने परिवार को प्राथमिकता दी होती तो मुलायमसिंह यादव इतनी ऊँचाई तक नहीं पहुँचते।यूँ तो इंदिरा गाँधी, चरणसिंह, अटलबिहारी वाजपेयी, संजय गाँधी, देवीलाल, ओमप्रकाश चौटाला, लालूप्रसाद यादव और रामविलास पासवान जैसे कई दिग्गज चुनाव हार चुके हैं। आपकी बहू किसी ऐरे गैरे नहीं, बल्कि उन राज बब्बर के हाथों चुनाव हारी जिन्हें राजनीतिक पहचान आपने ही दी है। राज ने भी आपके लिए शहरों, गाँवों और कस्बों में भीड़ जुटाने में अपनी जान लगा दी। आखिर वही राज आपसे इतना दूर क्यों हो गए कि आपके खिलाफ ही कांग्रेस का हथियार बन गए। दंगल जीतने में माहिर रहे आप सियासी कुश्ती में भी चित नहीं होते, गिरकर खड़े होते हैं। शुभकामनाएँ हैं कि फिर ऐसा ही हो। जरूरत है देश में फिर एक मजबूत धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राजनीतिक विपक्ष खड़ा हो जो गाँव, गरीब, किसान, मजदूर, अल्पसंख्यकों , आदिवासियों महिलाओं व पिछड़ों व दलितों की आवाज को दबने न दे, ऐसा तभी होगा जब आप धरती पुत्र बनेंगे। क्या आप बन सकेंगे? (नईदुनिया)