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Written By विश्वनाथ सचदेव
Last Updated : सोमवार, 3 नवंबर 2014 (17:49 IST)

पार्टी को पीछे छोड़ता मोदी का कद

पार्टी को पीछे छोड़ता मोदी का कद -
नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति का एक ऐसा चेहरा हैं, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। आप या तो उन्हें प्यार कर सकते हैं, या फिर घृणा। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल, उनकी राजनीति, उनका सोच, उनका व्यक्तित्व, सब कुछ ऐसा है जो पक्ष या विपक्ष में तीव्र भावनाएँ ही जगाता है।

राज्य विधानसभा के लिए चुनाव प्रचार के दौरान ऐसी तीव्र भावनाओं का उद्रेक बार-बार दिखा है। जब नरेंद्र मोदी छाती ठोककर किसी पुलिस मुठभेड़ के बारे में बात करते हैं तो सभा में उपस्थित लोग उनकी जय-जयकार करते हैं। जन- समर्थन लेने की उनकी अपनी शैली है, लेकिन इस शैली का विरोध करने वाले भी हैं। उनके छाती ठोकने पर कइयों की छाती पर साँप लोटने लगते हैं। उन्हें मोदी हिटलर दिखाई देते हैं। अपने सोच को मोदी हिन्दुत्व की संज्ञा देते हैं। उनके विरोधी इसे साम्प्रदायिकता एवं क्रूरता का चेहरा बताते हैं।

गुजरात में मतदान हो चुका है। चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में भी मोदी का पलड़ा भारी बताया गया था और चुनाव के बाद होने वाले सर्वेक्षणों का मुख्य स्वर यही है कि गुजरात के मतदाता की पहली पसंद मोदी ही हैं। यह अवश्य कहा जा रहा है कि इस बार मोदी का समर्थन करनेवाले मतदाताओं की संख्या पिछली बार से कम होगी, लेकिन इतनी कम नहीं कि मोदी चुनाव हार जाएँ। उनका चुनाव जीतना तय माना जा रहा है।

लेकिन मोदी की हार-जीत से कहीं अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि इस बार गुजरात में चुनाव भले ही भाजपा के चिन्ह 'कमल' के नाम पर लड़ा गया हो, लेकिन लड़ाई मोदीत्व के नाम पर ही हुई है। आप चाहें तो इसे हिन्दुत्व कह सकते हैं, लेकिन मोदी का हिन्दुत्व अब भाजपा का हिन्दुत्व नहीं रहा, संघ परिवार का हिन्दुत्व भी नहीं। इस चुनाव के दौरान मोदी के हिन्दुत्व का विरोध सोनिया गाँधी ने ही नहीं किया था, किसी केशुभाई पटेल ने भी किया था और किसी प्रवीण तोगड़िया ने भी। इस दृष्टि से देखें तो गुजरात में चुनाव भले ही भाजपा के नाम पर लड़ा गया हो, लेकिन हार या जीत मोदी की ही होगी।

मोदी पिछले पाँच-छः साल में एक व्यक्ति नहीं रहे, एक सोच का प्रतीक बनकर उभरे हैं। इस सोच में नेता पार्टी से अधिक महत्वपूर्ण होता है, इस सोच में नेता पूरे प्रदेश की अस्मिता और अभिमान का पर्यायबन जाता है। यह बात कम महत्वपूर्ण नहीं है कि पूरे चुनाव प्रचार में नरेंद्र मोदी स्वयं को गुजरात बताते रहे हैं। उन्होंने गुजराती स्वाभिमान की रक्षा के नाम पर वोट माँगे। जब भी विरोधियों ने उनके खिलाफ कुछ कहा, मोदी ने इसे गुजरात की अस्मिता पर हमला बताया। उन्होंने हरसंभव अवसर पर इस बात को दोहराया कि मोदी गुजरात है।

जब जनतंत्र में कोई व्यक्ति स्वयं को पार्टी से बड़ा मानने लगे तो यह एक तरह से खतरे की घंटी मानी जानी चाहिए। ऐसे में खतरा सिर्फ पार्टी विशेष के लिए ही नहीं होता, पूरी व्यवस्था के लिए होता है। जब व्यक्ति विचारधारा के लिए काम करता है तो इसका अर्थ यह होताहै कि सपने एक व्यापक विचार के आधार पर बुने जा रहे हैं, लेकिन जब व्यक्ति विचारधारा पर हावी हो जाता है तो वैयक्तिक महत्वाकांक्षाएँ महत्वपूर्ण हो जाती हैं, जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह शुभ संकेत नहीं है। गलत नहीं होतीं वैयक्तिक महत्वाकांक्षाएँ, लेकिन जब वे सामूहिक निर्णयों और सामूहिक हितों को अँगूठा दिखाने लगती हैं तो वे सही नहीं रह जातीं।