शनिवार, 27 अप्रैल 2024
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Written By अजय बोकिल

धुकधुकी ओर गुदगुदी में भीगा मंतरी बनने का ख्वाब

धुकधुकी ओर गुदगुदी में भीगा मंतरी बनने का ख्वाब -
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को खां, चुनाव तो जीत लिया। जीत क्या लिया, बस जीत गए समझ लो। अपने काम के कारण जीते या शिवराज के नाम के कारण जीते, लोगों ने मजबूरी में जिताया या वोटरों की मोहब्बत ने जिताया, ओरतों के वोट ने जिताया या मर्दों के वोट ने जिताया, अगले के वोट काट के जीते या बस्तियों में नोट बांट के जीते, पर जीत गए। कोई इलेक्शन क्यों ओर केसे जीत जाता हे, इसका राज तो ऊपरवाले को भी ठीक से पता नई रेता। क्योंके जन्नात में चुनाव नई होते।

मगर अब चुनाव जीतने के बाद दिल की धड़कनें ओर बढ़ गई हें। कान भोपाल पे लग गए हें। मन में हिलोरें उठ रई हें के खां, मंतरी बनेंगे के नई? बनेंगे तो मलाईदार महकमा मिलेगा के नई? महकमा मिला तो दुकान चलेगी के नई? सवाल इत्ते के रातों की नींद हराम हुई जा रई हे।

मियां, चुनाव तक लड़ाई का एक ई मकसद था के कोई भी तरीके से जीतना। दूध देने के वास्ते भेंस गाभन तो हो। सो सारी ताकत उसी में झोंकी हुई थी। जो मुद्दा चले, उसे आजमाया। जो टोटका चले, उसे चलवाया। जहां जेसी गरज हो, अदाकारी करी। हंसते-हंसते रोए ओर रोते-रोते हंसे। वोटरों के हाथ जोड़े, पेर पड़े। माफियां मांगी, वादे करे। रिश्तेदारियां याद दिलाईं। अगले की बातो ओर लातों को फूलों की माफिक लिया। मंदिर-मस्जिद, गुरुद्वारा जिधर टिकवाया, वहां मत्था टेका। माहोल यूं बनाया के लोग एक बार घरवालों को निकाल कर दे पर अपन को रख ले।

खां, फिर भी वोटर के दिल की किताब का ककहरा पढ़ाई में नई आ रिया था। हर केंडीडेट को वोटर से बराबरी का आशीरवाद मिल रिया था। वोट का हर भिखारी ई सिकंदर लग रिया था। आलम ये था के खुदा भी बंदा से पूछता के तेरी रजा क्या हे तो बंदा वोटर की अकड़ से बोलता के या खुदा वोट कोन को दिया हे ये छोड़ के कुछ भी पूछना। ऊपर से विरोधियों की अफवाहों ने जान सांसत में डाली हुई थी। कोई के रिया था के इस दफे जात पे वोट पड़ रिए हें तो कोई पांत पे के रिया था। कुछ ने अपनी पांच साल में बढ़ी पिरापर्टी को भी चर्चा में लाने की कोशिश करी तो कोई ने पिछले अधूरे वादों का मामला भी चलवाने की हिमाकत करी। पर न जाने एन बखत पे क्या हुआ ओर हवा कुछ एसी चली के ईवीएम में अपने नाम के बटन दबने लगे।

अब चुनाव तो जीत गए, असली किला तो तब सर होगा जब सर पे लाल बत्ती लुकलुकाएगी। फूलों के हार, चमचों के दरबार ओर अफसर-सलूट के बिना तो जिंदगी बेकार हे। मन में धुकधुकी हे तो गुदगुदी भी हे। दिन में ख्वाब दिख रिए हें। न जाने कब 'वहां' से फोन आ जाए। लिहाजा नया सूट सिलाया हुआ हे। ज्योतिषी के केने पे तांत्रिक अनुष्ठान कराया हुआ हे। मन्नात मानी हुई हे के मरने के बाद भले जहन्नुम ट्रांसफर कर देना पर एक बार मंतरी बना के जन्नात की सेर करा दो। इसीलिए दिल्ली तक दोड़ लगा दी हे। हर बड़े नेता के घर मत्था टेका हुआ हे। सद्भावना, सिफारिश, दबाव, जात-धरम, रीजनल फेक्टर, यानी के हर जुगाड़ लगाया हुआ हे। बस एक बार मंतरी पद की शपथ हो जाए तो ये जनम सफल हो जाए। पर कोई सुने तब न!