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World Television Day 2019: क्यों और कब मनाया जाता है विश्व टेलीविजन दिवस, जानिए भूमिका एवं प्रभाव भी

World Television Day 2019: क्यों और कब मनाया जाता है विश्व टेलीविजन दिवस, जानिए भूमिका एवं प्रभाव भी - World Television Day 2019
मेरा टीवी है अनमोल, खोल रहा दुनिया की पोल। इसमें चैनल एक हजार, इसके बिन जीवन बेकार। सूचना क्रांति के इस युग में टेलीविजन मानवीय जीवन में आमूल चूल परिवर्तन लाने में एक बड़ा माध्यम साबित हुआ है। आज पूरी दुनिया पर टेलीविजन का जादू छाया हुआ है। यह केवल मनोरंजन का सबसे सस्ता साधन ही नहीं है बल्कि इसने शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, व्यक्तिगत संबंधों, यात्रा आदि के संदर्भ में भी ज्ञान का भंडार खोल दिया है। यह संस्कृतियों व रीति-रिवाजों के आदान-प्रदान के रूप में उभरकर सामने आया है। 
 
आज टेलीविजन विभिन्न आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हुए पूरे विश्व के ज्ञान में वृद्धि करने में मदद कर रहा है। वर्तमान में यह मीडिया की सबसे प्रमुख ताकत के रूप में उभरा है। इससे विश्व संकीर्ण हुआ है और भूमंडलीकरण का असर दिखने लगा है। परिणामस्वरूप हम सुदूर आयोजित हो रहे कार्यक्रमों का आनंद अब लाइव टीवी के जरिए घर बैठे लेने लगे हैं। 
 
बेशक टेलीविजन तकनीक का एक पहलू है। तकनीक अपने साथ सकारात्मक और नकारात्मक दोनों परिणाम लेकर आती है। टेलीविजन के कारण जहां ज्ञान, विज्ञान, मनोरंजन व शिक्षा-चिकित्सा के क्षेत्र में हमारी जिज्ञासा शांत हुई है तो वहीं इसके माध्यम से हिंसा, अश्लीलता व भयभीत करने वाले कार्यक्रमों ने हमारी आस्था एवं नैतिक मूल्यों को चोट भी पहुंचाई है। सच्चाई यह है कि वर्तमान में टेलीविजन से जुड़ा हर नया अनुभव हमारे जीवन को उत्तेजित कर रहा है। 
 
गौरतलब है कि टेलीविजन की हमारे जीवन में बढ़ती भूमिका और इसके सकारात्मक व नकारात्मक पहलुओं पर चर्चा करने के उद्देश्य से 21 नवंबर को विश्व टेलीविजन दिवस के रूप में मनाया जाता है। दरअसल, टेलीविजन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 17 दिसंबर, 1996 को 21 नवंबर की तिथि को विश्व टेलीविजन दिवस के रूप घोषित किया था। संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 1996 में 21 और 22 नवंबर को विश्व के प्रथम विश्व टेलीविजन फोरम का आयोजन किया। 1927 में फिलो टेलर फार्न्सवर्थ नामक 21 साल के लड़के ने आधुनिक टेलीविजन पर सिग्नल प्रसारित किया। 1926 से लेकर 1931 तक कई असफलताओं के बाद टेलीविजन में बदलाव होते रहे। 1934 आते-आते टेलीविजन पूरी तरह इलेक्ट्रानिक स्वरूप धारण कर चुका था। 
हालांकि, इससे पहले 1908 में ही मैकेनिकल टेलीविजन का आविष्कार हो चुका था। मैकेनिकल टीवी के बारे में बात करें तो यह रील वाली फिल्मों पर आधारित था। इसके प्रसारण के लिए बंद कमरा चाहिए होता था और प्रोजेक्टर और रील की मदद से वीडियो दिखाई जाती थी। लेकिन फिलो का टीवी आज के मॉर्डन टीवी की शुरुआत थी। वो बात अलग है कि उस वक्त कलर नहीं ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें ही टीवी पर दिखती थीं। 1927 में फिलो टेलर फार्न्सवर्थ द्वारा टीवी का आविष्कार किए जाने के 1 साल बाद अमेरिका में पहला टेलीविजन स्टेशन शुरू हुआ। 
 
सितंबर 1928 में जॉन बेयर्ड ने पहली बार मॉर्डन टीवी आम लोगों के सामने प्रदर्शित किया। जॉन बेयर्ड वही शख्स थे जिन्होंने मैकेनिकल टीवी का आविष्कार किया था। अगले 10 सालों तक टीवी मार्केट में नहीं आया। 1938 में औपचारिक तौर पर जॉन टेलीविजन को मार्केट में लेकर आए। अगले 2 सालों में आधुनिक टीवी के हिसाब से टीवी स्टेशन खुले और लोग बड़ी संख्या में टीवी खरीदने लगे। 
 
भारत में पहली बार लोगों को टीवी के दर्शन 1950 में हुए, जब चेन्नई के एक इंजीनियरिंग स्टूडेंट ने एक प्रदर्शनी में पहली बार टेलीविजन सबके सामने रखा। भारत में पहला टेलीविजन सेट कोलकाता के एक अमीर नियोगी परिवार ने खरीदा था। 1965 में ऑल इंडिया रेडियो ने रोजाना टीवी ट्रांसमिशन शुरू कर दिया। 1976 में सरकार ने टीवी को ऑल इंडिया रेडियो से अलग कर दिया। 1982 में पहली बार राष्ट्रीय टेलीविजन चैनल की शुरुआत हुई। यही वो साल था जब भारत में पहला कलर टीवी भी आया। 80-90 का दशक भारत में टेलीविजन के विस्तार का रास्ता खोलता गया। दूरदर्शन पर महाभारत और रामायण जैसी सीरियलों ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। 
 
कहा जाता है कि जब महाभारत या रामायण टीवी पर आता था तो सड़कों पर मानो कर्फ्यू-सा लग जाता था। 90 के दशक में टेलीविजन चैनल का सारा काम प्रसार भारती को सौंप दिया गया। प्रसार भारती ने इसी दशक में दूरदर्शन के साथ डीडी2 नाम से चैनल शुरू किया, जिसका बाद में नाम बदलकर डीडी मेट्रो कर दिया गया। 1991 में पीवी नरसिम्हा राव जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने टीवी के विस्तार की शुरुआत की। इसके बाद प्राइवेट चैनलों की एंट्री हुई। प्राइवेट चैनलों को एक के बाद एक लाइसेंस मिलते गए और पिछले कुछ सालों में भारत में प्रसारित होने वाले चैनलों की संख्या 1000 के आस-पास पहुंच चुकी है। 
 
यह अलग बात है कि आज टेलीविजन चैनल अपनी जिम्मेदारियों से उन्मुक्त होकर दर्शकों के सम्मुख कुछ भी परोसने से बाज नहीं आ रहे हैं। चैनलों पर अश्लील, अमर्यादित व डरावने दृश्यों को दिखाए जाने के कारण जनमानस में गलत संदेश प्रसारित हो रहा है। इसी के परिणामस्वरूप युवा पीढ़ी दिशाहीन होकर टीवी दृश्यों की नकल कर रही है। युवकों में आवारागर्दी और पिता की कमाई पर ऐश करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है जो उनके कर्तव्य सृजनशीलता को नष्ट कर रही है। वहीं बचपन से ही निरंतर हत्याओं व बलात्कारों के दृश्य देखने से बच्चों के मानसिक विकास पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। देश में बढ़ती हुई हिंसक घटनाएं इसके दुष्परिणाम हैं। 
 
इन चैनलों पर नारी देह को नग्न दिखाने के साथ ही विज्ञापन के नाम पर चारित्रिक सीमाओं से तटस्थ होकर गंदे व अमानवीय चित्रों को प्रदर्शित किया जा रहा है। बाबाओं व भाग्य बताने वाले तथाकथित साधुओं का अड्डा बने ये चैनल लोगों को मूर्ख बनाकर सांस्कृतिक घुसपैठ कर रहे हैं। ललित कलाओं व स्वस्थ मनोरंजन से कोसों दूर इन चैनलों पर रईसों की ठांट-बांट वाली जीवनशैली को बड़ी शानो-शौकत के साथ पेश किया जा रहा है। खबरिया चैनल खबरों की निष्पक्षता को भूलकर किसी दल विशेष का गुणगान करने में जरा भी नहीं हिचक रहे हैं। इन पर होने वाली बहसों में बहस के नाम पर महज बवाल ही देखने को मिल रहा है। यही हाल म्यूजिक चैनलों का भी है जो चौबीसों घंटे गंदे गीतों व अश्लील नृत्यों का मंचन कर रहे हैं। 
 
धारावाहिकों के नाम पर सास-बहू के झगड़ों को सार्वजनिक तौर पर दिखाकर यह चैनल अपना काम बना रहे हैं। चैनलों पर हास्य व कॉमेडी शो में गंदे-गंदे चुटकुलों का सहारा लेकर लोगों को हंसने पर मजबूर किया जा रहा है। इन पर प्रसारित होने कार्यक्रम न तो कोई स्वस्थ मनोरंजन प्रदान कर रहे हैं और न ही समाज को कोई शिक्षा या दिशा दे रहे हैं। धारावाहिकों के कथानक आम आदमी की जिंदगी तो क्या उसके सोच से भी परे देखे जा सकते हैं। 
 
व्यक्ति की नैतिक कमजोरियों को बड़ी शान से महिमामंडित किया जा रहा है। नाजायज संबंध, आवारागर्दी और करोड़ों-अरबों का कारोबार इनका मुख्य विषय वस्तु है। चैनलों की आगे बढ़ने की अंधी प्रतिस्पर्धा व टीआरपी की तृष्णा के चलते इन पर सर्वाधिक नैतिक व सांस्कृतिक मूल्यों की अवहेलना वाले दृश्य दृष्टिपात हो रहे हैं। फैशन टीवी जैसे चैनलों को देखकर तो लगता है कि फैशन की परिभाषा ही बदल गई है। आज यदि हमारा देश भी पाश्चात्य राष्ट्रों का अंधानुकरण कर रहा है तो इसमें सबसे अधिक भूमिका इन चैनलों की ही हैं। ये चैनल हमारे पारिवारिक जीवन मूल्यों को विश्रृंखलित करने का कार्य कर रहे हैं।
 
इन चैनलों का उद्देश्य पाश्चात्य उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रचार करना है, जो कि हमारे देश की सांस्कृतिक भावनाओँ के प्रतिकूल है। जो भारत संस्कृति व संस्कारों के नाम पर सारे विश्व में अपनी अमिट छाप छोड़ता था, आज वही भारत इंडिया बनकर अपनी सांस्कृतिक मर्यादा व जीवन मूल्यों से परहेज करता जा रहा है। इन दिशाहीन टीवी कार्यक्रमों पर यदि समय रहते रोक नहीं लगाई गई तो ये हमारी सभ्यता और संस्कृति को काफी हानि पहुंचा सकते हैं। इन धारावाहिकों के निर्माता-निर्देशकों को यह ध्यान दिलाना जरूरी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आशय मनमानी कदापि नहीं है। टीवी पर हरदम तेज मिर्च-मसाले वाले अजीर्णकारी कार्यक्रमों का भोजन परोसने के स्थान पर अच्छे और संस्कारप्रद कार्यक्रमों का सुपाच्य नाश्ता भी तो परोसा जा सकता है।
 
नि:संदेह टेलीविजन के आविष्कार ने सूचना के क्षेत्र में एक क्रांति का आगाज किया है। चूंकि मीडिया ने वर्तमान में हमारे जीवन में इतना अधिक हस्तक्षेप कर दिया है कि हमें इसके महत्व के बारे में काफी जानकारी नहीं मिल पाती। वर्तमान में हम इसके महत्व को नकार नहीं सकते हैं। हमें इसके महत्व को समझते हुए इसका व्यापक इस्तेमाल करना चाहिए ताकि मीडिया के सूचना से संबंधित दुरूपयोग को रोका जा सके। साथ ही इसके प्रभाव को कम किया जा सके। विश्व के ऊपर टेलीविजन के प्रभाव को देखते हुए ही इस दिन की महत्ता का प्रभाव बढ़ा है। टेलीविजन को जनता को प्रभावित करने में एक प्रमुख साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। 
 
 
दुनिया की राजनीति के ऊपर इसके प्रभाव और इसकी उपस्थिति को किसी भी रूप में अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन साथ में यह भी माना जा रहा है कि इसके नकारात्मक प्रभाव भी दृष्टिगत हो रहे हैं। इसके नकारात्मक प्रभाव को रोकने और गलत संस्कृति पर रोक लगाने के लिए इसके ऊपर कुछ कानूनी प्रतिबंध भी आरोपित किए जाने चाहिए। हमेशा मन में इन शब्दों को बैठाकर रखना चाहिए कि प्रौद्योगिकी एक अजीब चीज है। यह एक हाथ एक बेहतरीन उपहार तो दूसरे की पीठ में छुरा का सामान है। टेलीविजन हमारे लिए फायदेमंद है या नुकसानदायक यह हमारे ऊपर ही निर्भर है। जैसे एक चाकू यदि सर्जन के हाथों में है तो वह किसी की जान बचा सकता है परंतु वही चाकू यदि एक डाकू के हाथों में है तो किसी की मृत्यु का कारण बन सकता है। अत: हमारे लिए हुए निर्णयों से ही हमारे जीवन की गति एवं दिशा तय होती है। 
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