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Written By Author उमेश चतुर्वेदी

हिलेरी या ट्रंप में किसे मिलेगा ताज, भारत की लगी निगाह

हिलेरी या ट्रंप में किसे मिलेगा ताज, भारत की लगी निगाह - US election 2016
दुनिया के सबसे ताकतवर व्यक्ति के चुनाव की आखिरी घड़ी चल रही है। अमेरिका का राष्ट्रपति कौन होगा, इससे निश्चित तौर पर दुनिया की राजनीति और अर्थव्यवस्था तो प्रभावित होगी ही, दुनिया के सैनिक समीकरणों पर भी असर पड़ेगा। पूरी दुनिया इसीलिए सांस रोककर इन चुनावों पर ध्यान लगाए बैठी है। अमेरिकी चुनाव सर्वे में जिस तरह के आंकड़े आखिरी वक्त तक आए हैं, उससे किसी की जीत सुनिश्चित मान लेना जल्दबाजी ही होगी। डेमोक्रेट उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप पर मामूली बढ़त ही बनाए हुए हैं। ऐसे में चुनावी नतीजे कुछ भी हो सकते हैं।
 
आमतौर पर भारत में माना जाता है कि भारत के लिए डेमोक्रेट राष्ट्रपति रिपब्लिकन के मुकाबले कहीं ज्यादा मुफीद होता है। डेमोक्रेट को भारत समर्थक भी माना जाता है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चाहे डेमोक्रेट राष्ट्रपति हो या रिपब्लिकन, वह अपने सैनिक, आर्थिक और राजनीतिक फायदे के लिए किसी देश के प्रति ज्यादा नजदीकी या ज्यादा दूरी रखता है। याद कीजिए, कारगिल की लड़ाई के वक्त क्लिंटन अमेरिका के राष्ट्रपति थे। मौजूदा डेमोक्रेटिक उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन के पति ने करगिल में भारत को कड़ी कार्रवाई करने से रोका था। बेशक उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को खास तवज्जो नहीं दी थी। लेकिन भारत को सीमा पार कार्रवाई न करने देने के लिए दबाव बनाया था। इसलिए भारतीयों को इस मान्यता पर सोचने की जरूरत है कि डेमोक्रेट ही उनके लिए ज्यादा मुफीद होते हैं।
 
भारत बेशक धर्मनिरपेक्ष देश है। लेकिन भारत में इन दिनों प्रभावशाली तरीके से एक वर्ग ऐसा भी उभरा है, जिनकी सोच डोनाल्ड ट्रंप से मिलती-जुलती है। डोनाल्ड ट्रंप दुनिया की मौजूदा सबसे भयंकर समस्या आतंकवाद के लिए इस्लामी चरमपंथ को मानते हैं। इसलिए उन्होंने ना सिर्फ मस्जिदों, बल्कि मुस्लिमों पर निगरानी की वकालत कर रहे हैं। बल्कि अमेरिका में अवैध रूप से रह रहे 1.1 करोड़ अप्रवासियों को भगाने पर भी आमादा हैं। उनकी इस नीति से मुस्लिम देशों में खलबली है।
 
डोनाल्ड ट्रंप की यह सोच भारत के भी अतिवादी सोच वाले लोगों को मुफीद लगती है। इसलिए कुछ लोग दिल से चाहते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप जीतें, ताकि इस्लामी चरमपंथ पर लगाम लगे। जिससे भारत भी जूझ रहा है। डोनाल्ड ट्रंप ने अपने चुनाव अभियान में प्रधानमंत्री मोदी के चुनाव अभियान की तरह चाय पर चर्चा और अबकी बार ट्रंप की सरकार जैसे जुमले बोलकर भारतीय मूल के मतदाताओं को लुभाने का दांव भी चला था। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने अमेरिका में बेरोजगारी घटाने के लिए आउटसोर्सिंग पर लगाम लगाने और भारत, मैक्सिको के साथ ही जापान से नौकरियां वापस लाने का वादा किया है। अगर वे जीतेंगे तो भारत में अमेरिका के लिए चल रहे काल सेंटरों पर आफत आ सकती है और इसका खामियाजा भारत में जारी बेरोजगारी में और इजाफे के तौर पर भारत भुगत सकता है।
 
डोनाल्ड ट्रंप ने चीन के साथ अमेरिकी व्यापारिक संधि पर पुनर्विचार का वादा भी किया है। अमेरिका में माना जा रहा है कि अमेरिका की आर्थिक स्थिति में आई मंदी के पीछे कहीं न कहीं इस संधि का भी योगदान है। अगर ट्रंप जीतते हैं तो निश्चित तौर पर चीन के साथ अमेरिका के कारोबारी रिश्ते प्रभावित होंगे। इसका फायदा भारत को मिल सकता है। 
 
दूसरी तरफ अगर हिलेरी क्लिंटन जीतती हैं तो आउटसोर्सिंग पर वे अंकुश तो लगाएंगी, लेकिन भारत से नौकरियां वापस लाने की उनकी कोई योजना नहीं है। इसके साथ ही वे मध्य पूर्व में अमेरिकी सेना की तैनाती बढ़ाने के खिलाफ हैं। हालांकि विदेशमंत्री रहते हिलेरी क्लिंटन विश्व राजनय में खास प्रभाव नहीं छोड़ पाईं थीं। इसके बावजूद मध्य पूर्व में उनके प्रयासों को अमेरिकी समाज से समर्थन जरूर मिलेगा। हिलेरी अगर जीतती हैं तो भारत की मौजूदा अंतरराष्ट्रीय स्थिति में सकारात्मक बदलाव जारी रहेगा। न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में भारत को शामिल किए जाने को लेकर अमेरिकी अभियान जारी रहेगा। जिसकी राह में चीन बार-बार रोड़ा डाल रहा है। चीन सागर में भारत के बढ़ते असर को रोकने की कोशिश में जुटे चीन को न तो क्लिंटन प्रशासन से मदद मिलेगी और ना ही ट्रंप प्रशासन से।
 
भारत का करीब चालीस करोड़ का विशाल मध्यवर्ग आज दुनियाभर की आर्थिक ताकतों के आकर्षण का केंद्र बन चुका है। इसलिए भारत की बढ़ती आर्थिक सक्रियता की राह में न तो ट्रंप आएंगे और ना ही क्लिंटन। लेकिन यह तय है कि अगर ट्रंप जीते तो रूस के साथ अमेरिका के रिश्तों में तनातनी का नया दौर शुरू हो सकता है। इसका खामियाजा भारत को भी भुगतना पड़ सकता है। क्योंकि आजकल रूस चीन के साथ गलबहियां डाले कहीं ज्यादा घूमता नजर आ रहा है। इसलिए भारत को ट्रंप प्रशासन में नई रणनीति बनानी पड़ सकती है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)