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Written By Author संदीपसिंह सिसोदिया
Last Updated : गुरुवार, 29 नवंबर 2018 (20:43 IST)

मप्र विधानसभा चुनाव विश्लेषण: फिर भाजपा का शिव'राज' या 15 बरस बाद टूटेगा कांग्रेस का 'वनवास'...

मप्र विधानसभा चुनाव विश्लेषण: फिर भाजपा का शिव'राज' या 15 बरस बाद टूटेगा कांग्रेस का 'वनवास'... - MP Election Analysis: who will form the Govt. BJP or Congress
मप्र में प्रजातंत्र के महायज्ञ में जनता अपनी आहुति डाल चुकी है। लगातार बढ़ता मतदान प्रतिशत न सिर्फ जागरुकता का परिचय दे रहा है बल्कि कहीं न कहीं यह भी दर्शा रहा है कि भारतीय चुनाव आयोग लोगों को मतदान करने के प्रति आकर्षित करने में सफल हो रहा है। वैसे तो चुनाव आयोग 80 प्रतिशत मतदान का लक्ष्य लेकर चल रहा था लेकिन 74.85 प्रतिशत मतदान भी एक अच्छा संकेत है।


इस बार मध्यप्रदेश में ऐतिहासिक मतदान हुआ है। राज्य में 74.85 प्रतिशत मतदान से एक नया इतिहास दर्ज हो गया है। परंतु अब सबसे बड़ा सवाल है कि क्या अधिक मतदान सत्तापक्ष के लिए नकारात्मक संकेत है? क्या बढ़ा हुआ मतदान प्रतिशत मध्यप्रदेश में वनवास खत्म करने और जीत की चाह रखने वाली कांग्रेस को संजीवनी प्रदान करेगा? या युवा मतदाताओं का उत्साह चौथी बार भाजपा को प्रदेश सौंप रहा है...

हालांकि पिछले रिकॉर्ड पर नजर डालें तो ज्यादा मतदान का फायदा भाजपा को ही मिला है, लेकिन इस बार 'मौन मतदाता' जिस तरह मतदान बूथ पर मुखर हुआ है, उससे यह अनुमान लगाना कठिन हो रहा है कि पलड़ा किस दल का भारी रहेगा। लेकिन, दोनों ही दल अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश में हमेशा से ही सिर्फ 2 ही प्रमुख दल रहे हैं। यहां मुकाबला केवल कांग्रेस और भाजपा में होता रहा है। वैसे इस बार के चुनाव में भाजपा के पास न तो राम-मंदिर बनाने का उत्साह था, न ही मोदी लहर का सहारा। इस बार चुनाव में स्थानीय मुद्दे ही छाए रहे हैं। 
 
सोशल मीडिया इफेक्ट: इस बार सोशल मीडिया पर भी भाजपा का वर्चस्व नहीं दिखाई दिया। कांग्रेस के पक्ष से अधिक भाजपा और खासकर मोदी विरोधी मैसेज जमकर चले। खासकर एससीएसटी एक्ट के बाद तो एक बड़ा तबका खुद को ठगा महसूस कर रहा है। इस मुद्दे पर भी सवर्ण और ओबीसी वर्ग सोशल मीडिया पर भाजपा के खिलाफ मुखर हुआ और जाति आधारित नए राजनैतिक समीकरणों जैसे सपाक्स, अजाक्स का उदय हुआ।

कहने को तो मप्र में भाजपा विकास और जनता के बीच शिवराजसिंह चौहान की 'मामा वाली छवि' के सहारे चुनावी वैतरणी में अपनी नैया पार करने की कोशिश में हैं लेकिन मोदी सरकार के नोटबंदी, जीएसटी और एससीएसटी एक्ट जैसे फैसलों की नाराजगी भी जनता में देखी जा रही है। साथ ही लंबे समय से सत्ता में रहने से एंटीइंकम्बेंसी स्वाभाविक है।

आड़े आता अहं: वहीं कांग्रेस इस बार आर-पार के मूड में दिखाई दे रही थी, हालांकि क्षत्रपों की लड़ाई में अधिक नुकसान कांग्रेस को ही होता दिख रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को जहां इंदौर और मंदसौर में अच्छा रिस्पांस मिला वहीं कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रदेश की राजनीति के लिए 'मिलकर लड़े'।

माना जाता है कि मप्र के शहरों में भाजपा मजबूत है तो कांग्रेस की जड़ें अभी भी गांवों में गहरी पैठी हुई हैं। इस बार किसानों में शिवराज सरकार के प्रति नाराजगी साफ जाहिर थी जिसका फायदा उठाने के लिए मतदान के ठीक पहले कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ ने किसानों की कर्जमाफी का एलान भी कर दिया जिसका फायदा निश्चित तौर पर कांग्रेस को मिलेगा।

हिंदुत्व का पैंतरा: लेकिन भाजपा ने भी मतदान की सुबह अपना हिन्दू कार्ड खेलते हुए जनता को 90 प्रतिशत मतदान करने की अपील करते हुए कमलनाथ के मुस्लिम मतदाताओं को एकतरफा वोट डालने वाला वीडियो याद दिलाने की कोशिश की, (हालांकि बताया जा रहा है कि इसका प्रभाव मुस्लिम मतदाताओं में दिखाई दिया)। इसके अलावा अंतिम 3 दिनों में संघ भी मैदान में बेहद सक्रिय रहा। संघ का माइक्रो मैनेजमैंट और जनता से सीधा जुड़ाव हमेशा से भी भाजपा के लिए फायदेमंद रहा है।

बगावत से बिगड़ती बात: देखा जाए तो इस बार बागियों ने भाजपा-कांग्रेस दोनों ही की नाक में दम किया हुआ है। कांग्रेस में कुल 17 सीटों पर बागियों ने परेशानी बढ़ाई तो भाजपा को 11 सीटों पर बागियों से खतरा है। बड़ी बात यह है कि जिन सीटों पर बागियों का प्रभाव है वहां रिकॉर्ड-तोड़ मतदान की खबरों से दोनों ही दलों के नेताओं की पेशानी पर पसीना दिख रहा है।

कमजोर होते किले: ग्वालियर-चंबल, मालवा-निमाड़ और विंध्य अंचल में एससीएसटी एक्ट, किसान आंदोलन और विकास के मुद्दों पर सत्तारूढ़ भाजपा से लोगों की नाराजी साफ देखी जा रही थी और यहां सामान्य से अधिक मतदान प्रतिशत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यहां उल्लेखनीय है कि इन क्षेत्रों में शहरी इलाकों से अधिक मतदान ग्रामीण क्षेत्रों में हुआ है जिससे अनुमान लगाया जा रहा है कि इन क्षेत्रों में भाजपा की सीटें कम हो सकती हैं।

बढ़े हुए मतदान प्रतिशत को भले ही कांग्रेस 'बदलाव के लिए' मान रही है लेकिन जनता का रुख देखकर लग रहा है कि यह चुनाव भाजपा-कांग्रेस नहीं बल्कि जनता और भाजपा के बीच हुआ है। क्योंकि इस समय कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं और भाजपा के लिए प्रतिष्ठा दांव पर लगी है।

वैसे सभी प्रत्याशियों की किस्मत का फैसला 11 दिसंबर को ही होगा। गुजरात और कर्नाटक चुनावों की तर्ज पर अब की बार मध्यप्रदेश में भी एक रोमांचक और कड़ा मुकाबला हुआ है जो किसी भी करवट पलट सकता है।  
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