शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. विचार-मंथन
  3. विचार-मंथन
  4. LK Advani
Written By Author श्रवण गर्ग

आडवाणी, आपातकाल और नरेन्द्र मोदी

आडवाणी, आपातकाल और नरेन्द्र मोदी - LK Advani
देश में फिर से आपातकाल की आशंकाओं वाले भाजपा के पितृपुरुष लालकृष्ण आडवाणी के इंटरव्यू पर विपक्ष के जिन भी उत्साही नेताओं ने राजनीतिक सट्टा लगाया होगा वे सभी अब अपनी हथेलियों को खीज के साथ मसल रहे होंगे। आडवाणी की टिप्पणी पर तालियां बजाने वालों में उस कांग्रेस पार्टी के शूरवीर नेता भी शामिल थे, जोकि चालीस साल पहले देश को आपातकाल की भट्टी में झौंकने के गुनाहगार रहे हैं।
आडवाणी के कहे को लेकर यह अनुमान लगाने में चलीस घंटों का भी इंतजार नहीं किया गया कि पार्टी के मार्गदर्शक मंडल के सदस्य ने छुपे तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ इशारा किया है या नहीं। जैसी कि हशिए पर पड़े भाजपा के वयोवृद्ध नेता से अपेक्षा थी, उन्होंने बिना देर किए सफाई पेश की कि आपातकाल संबंधी उनके कथन का कोई भी संबंध वर्तमान परिस्थितियों से नहीं था। आडवाणी के अनुसार उन्होंने तो कांग्रेस के आपातकाल के बारे में चर्चा की थी। आडवाणी की बाद में दी गई सफाई भी उतनी ही अविश्वसनीय मानी जाएगी, जितनी कि उनके द्वारा इंटरव्यू में कही गई बातें।
 
पर इतना जरूर माना जा सकता है कि आडवाणी अपने कथनों के जरिए पार्टी और सत्ता के शिखरों तक अपनी जो भी निराशा पहुंचाना चाहते थे, वह काम उन्होंने सफलतापूर्वक कर दिया है। समूचे एपीसोड का वक्त भी संयोग से अथवा प्रयासपूर्वक ऐसा चुना गया जब ललित मोदी के साथ संबंधों को लेकर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के इस्तीफों की मांग विपक्षी दलों द्वारा की जा रही थी।
 
दोनों ही भाजपा नेत्रियों की आडवाणी के कट्टर समर्थकों में गिनती होती रही है। दिल्ली के आसमान में आपातकालीन परिस्थियों के बादल अचानक इतने गहरा गए थे कि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल के साथ आडवाणी की मुलाकात भी तय हो गई थी, जो कि समय रहते पितृपुरुष द्वारा रद्द कर दी गई और पार्टी एक बड़ी शर्मिंदगी झेलने से बच गई।
 
समूचे घटनाक्रम से यही स्थापित हुआ कि पार्टी की संकट की घड़ी में वयोवृद्ध नेता कोई भी बलिदान देने व लेने की सीमा तक अपने दीर्घ राजनीतिक अनुभव का इस्तेमाल कर सकते हैं। आपातकाल जैसी परिस्थितियों को लेकर पहले इंटरव्यू और बाद में उस पर सफाई के बाद वैसे आडवाणीजी का काम तो समाप्त हो गया। अब देश की जनता चाहे तो दिल्ली की पृथ्वीराज रोड की तरफ अपना मुंह और आंखें फाड़कर ताकती रहे कि कोई अगला चौंकाने वाला बयान कब प्रकट होने वाला है। 
 
आपातकाल के पीड़ितों के प्रतिनिधि अवशेषों में जितना भी आधिकारिक रूप से भरोसा करने लायक चालीस वर्षों के बाद भी बचा है, उसमें आडवाणी जी जैसी हस्तियां काफी महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। अतः जब उनके द्वारा इस तरह के विचार हवा में उछाले जाते हैं कि लोकतंत्र को कुचलने वाली शक्तियां आज भी मजबूत हैं या कि आने वाले समय में नागरिक आजादी को निलंबित करने की स्थितियां हैं तो लोग उनके कहे को गंभीरता से लेंगे ऐसी अपेक्षा करना बेमानी नहीं है। पर आडवाणी जी जैसे नेता शायद ऐसा नहीं मानते, इस कीमत पर भी नहीं कि भेड़िया आया जैसी आवाजें लगाने से पार्टी से ज्यादा उनकी स्वयं की ही विश्वसनीयता प्रभावित होने वाली है।
 
सही बात तो यह है कि आडवाणी जी जिस तरह से करवटें बदलते रहते हैं उसके कारण ही उनके बंगले के सन्नाटे में लगातार इजाफा हो रहा है। आडवाणी जी द्वारा सुलगाए गए अनार का अंतिम परिणाम चाहे जब और जैसा निकले, पर एक बात तो स्पष्ट है कि सत्तारूढ़ भाजपा में सबकुछ ठीकठाक नहीं चल रहा है।  हकीकत तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए विपक्ष के मुकाबले पार्टी के भीतर से ज्यादा चुनौतियां प्रकट हो रही हैं।
 
बिहार चुनाव की पूर्व संध्या पर एक साथ इतनी सारी दिक्कतों का खड़ा हो जाना और उनमें से बगैर आहत हुए सुरक्षित बाहर निकल आना पार्टी और प्रधानमंत्री के लिए साहस का ही काम माना जाएगा।