मौसम ने पिछले कुछ सालों से हमें चौंकाने का जो सिलसिला शुरू किया है वह अभी भी कायम है। अतिवृष्टि और अनावृष्टि वैसे तो जब-तब हमारे लिए मुसीबत के रूप में आती-धमकती ही रही हैं, लेकिन बारिश का बदलता चक्र अब अलग तरह की परेशानियां ला रहा है। समूचे देश खासकर उत्तर और मध्य और पश्चिमी भारत में पिछले दिनों हुई बेमौसम भारी बरसात और ओलावृष्टि अपने साथ खेती-किसानी के लिए आफतों की सौगात लेकर आई। किसानों के समक्ष पैदा हुए इस कुदरती संकट को भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था और राजनीतिक नेतृत्व की काहिली ने और भी ज्यादा घना कर दिया।
किसान को जहां खरीफ फसल की बुवाई के दौरान सूखे ने परेशानी में डाला था वहीं इस बेमौसम बरसात ने किसानों को बुरी तरह तबाह कर दिया। कुछ इलाकों में तो अपनी फसल की बर्बादी से हताश होकर कुछ किसानों के आत्महत्या करने की खबरें भी आईं। इस कुदरती आपदा का सर्वाधिक असर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली में हुआ। इस आपदा से हुए वास्तविक नुकसान का आकलन करने में तो अभी वक्त लगेगा लेकिन अनुमान है कि लगभग 40 फीसदी फसलें बर्बाद हुईं, जिससे करीब 3500 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। कृषि विशेषज्ञों ने रबी फसलों की पैदावार और दलहन उत्पादनों में भारी गिरावट आने और फसलों की गुणवत्ता के प्रभावित होने की आशंका जताई है। जाहिर है कि इस स्थिति के चलते महंगाई भी बढ़ेगी ही।
केंद्र सरकार ने फसलों को हुए नुकसान के बारे में राज्यों से सूचनाएं मंगवाई हैं। संभावित नुकसान का आकलन किया जा रहा है। बेमौसम बरसात की मार से गेहूं, चना, मसूर, सरसों, धनिया, मटर, संतरा और आलू की फसलें बुरी तरह प्रभावित हुई हैं। इस साल वैसे भी देरी से बारिश होने के कारण रबी फसलों की बुवाई समय पर नहीं हो पाई थी। नतीजतन कृषि मंत्रालय ने अनुमान जताया था कि पैदावार पिछले साल के 10.6 करोड़ टन की तुलना में इस साल 10.03 करोड़ टन ही होगी। लेकिन अब तो इसमें भी और गिरावट आने के आसार दिखाई दे रहे हैं।
कृषि मंत्रालय के ताजा अनुमान के अनुसार इस साल देश का दलहन उत्पादन 184.3 लाख टन रह जाएगा। पिछले साल यह उत्पादन 197.8 लाख टन था। इस साल तुअर का उत्पादन 27 लाख टन और चने का उत्पादन 10 फीसद घटकर 82.8 लाख टन रहने के आसार हैं। उत्तर प्रदेश में बेमौसम बरसात की वजह से गेहूं, आलू और दलहनी फसलों को भारी नुकसान पहुंचा है। इसके अलावा टमाटर, मटर और धनिया जैसी फसलों की खेती भी बड़े पैमाने पर तबाह हुई है।
आचार्य नरेंद्र देव कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के मुताबिक गन्ने की फसल को छोड़ दें तो इस बेमौसम से गेहूं और दलहनी फसलों को 30-40 फीसदी नुकसान पहुंच सकता है। यूपी क्राप वेदर वॉच के चेयरमैन डॉ पद्माकर त्रिपाठी के मुताबिक चना, मसूर, मटर, सरसों आदि दलहनी फसलें इस समय फ्लावरिंग स्टेज पर होती हैं लेकिन इस समय इन फसलों पर पानी गिरने से इनके फूल झड़ जाएंगे और नमी बढ़ने से फसलों में रोग लगने की पूरी आशंका है। आम के पेड़ों में लगे बौर के लिए भी यह बेमौसम की बारिश नुकसानदेह साबित होगी। डॉ. त्रिपाठी के मुताबिक खराब मौसम की वजह से उत्तरप्रदेश के कुछ हिस्सों में गेहूं की खड़ी फसलें जमींदोज हो गई हैं। तेज हवा से उन किसानों को ज्यादा नुकसान हुआ है, जिन्होंने मौसम बिगड़ने से पहले गेहूं की सिंचाई कर दी थी। लेकिन जहां गेहूं में अभी बाली नहीं फूटी है, वहां नुकसान की संभावना कम है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा गेहूं की फसल होती है, जिससे किसानों की रोजी-रोटी चलती है। यहां के किसान की आमदनी का प्रमुख साधन रबी की फसल ही है। बेमौसम बरसात के पहले तक गेहूं समेत दलहन और आलू की फसलें बेहतर स्थिति में थी। किसानों को उम्मीद थी कि इस बार उसकी आर्थिक स्थिति सुधर जाएगी, लेकिन कुदरत की मार ने इन अन्नदाताओं की उम्मीदों पर पानी फेर दिया।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में बनारस से लेकर सोनभद्र, आजमगढ़, मिर्जापुर, बलिया, गाजीपुर, चंदौली आदि जिलों में बेमौसम बरसात के चलते देखते ही देखते खेतों में तैयार खड़ी गेहूं और सरसों की फसलें मिट्टी में मिल गईं। राज्य के कृषि विभाग के संयुक्त निदेशक डॉ. राजसिंह के मुताबिक प्रारंभिक अनुमान है कि राज्य में गेहूं की 15 से 20 फीसदी फसल चौपट हो गई है और फूल झड़ने से चना-मटर के उत्पादन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ना तय है। राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 50 फीसदी से अधिक फसल नष्ट होने पर लघु एवं सीमांत किसानों को असिंचित क्षेत्र में 4500 रुपए प्रति हेक्टेयर और सिंचित क्षेत्र में 9000 रुपए प्रति हेक्टेयर की धनराशि क्षतिपूर्ति के तौर पर किसानों को उपलब्ध कराने का ऐलान किया है।
आकस्मिक और असामान्य बरसात से मध्य प्रदेश के किसान भी बेहाल हैं। कटाई के लिए तैयार खड़ी गेहूं और चने की फसल खेतों में ही बिछ गई। इससे दाने में दाग लगने या दाने छोटे रह जाने की आशंका बढ़ गई है। चना और मसूर के साथ धनिया और सब्जियों के लिए भी यह बारिश जानलेवा साबित हुई है। प्रदेश मे इस साल 54 लाख हेक्टेयर में गेहूं की बुआई की गई थी। जिन किसानों ने सिंचाई सुविधा के चलते बोवनी पहले की थी, उनकी फसल पक जाने के कारण कटने की स्थिति में थी लेकिन अब वह अचानक बारिश की मार से खेतों में ही बिछ गई है। फसल का यह नुकसान ग्वालियर-चंबल संभाग से लेकर महाकौशल व विंध्य तथा मालवा-निमाड़ तक हुआ है।
बताया जा रहा है कि प्रदेश में मौसम की इस मार का सर्वाधिक असर गेहूं की फसल पर पड़ेगा। इससे दाना कमजोर तो पड़ेगा ही, उसमें दाग भी लग जाएंगे। गेहूं की खेती करने वाले किसानों पर इस मार का असर इसलिए भी ज्यादा पड़ने वाला है, क्योंकि फसल के दागी होने के कारण किसान को फसल का उचित मूल्य नही मिलेगा। राज्य सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद भी लगभग बंद कर दी है। इसके अलावा केंद्र सरकार ने भी प्रदेश के कई जिलो में मनरेगा योजना से हाथ खींच लिए हैं, जिसकी वजह से छोटे किसान और खेतीहर मजदूरों को राहत कार्यों से होने वाली थोड़ी-बहुत आमदनी भी बंद हो गई है। कुल मिलाकर राज्य का किसान चौतरफा आर्थिक संकट से घिरा अनुभव कर रहा है। मध्य प्रदेश में यह हालत उस किसान की है, जिसका मध्य प्रदेश की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) दर में योगदान 24 फीसदी है और पिछले चार साल से लगातार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कृषि कर्मण पुरस्कार लेकर अपने प्रदेश की खेती-किसानी का गौरव-गान करने में लगे हैं, लेकिन हकीकत यह है कि उनकी सरकार को खेती-किसानी से ज्यादा उद्योगपतियों की फिक्र सताती है।
बेमौसम बरसात से खेती-किसानी का जो नुकसान उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में हुआ है, वैसा ही नुकसान महाराष्ट्र में भी हुआ है, जहां कर्ज के बोझ से दबे किसानों की आत्महत्या का सिलसिला पिछले डेढ़ दशक से आज तक जारी है। पिछले साल सूखे से लड़ने वाला किसान अक्टूबर-नवंबर आते-आते ओलावृष्टि और बेमौसम बरसात से तबाह हो गया था। उस संकट से वह उबर भी नहीं पाया था कि इस बेमौसम बरसात ने फिर उसकी फसलें चौपट कर दीं। राज्य के कई जिलों में गेहूं, प्याज, अंगूर, संतरा, अनार, मिर्च जैसी नकदी फसलें काफी हद तक बर्बाद हो गई हैं। यही नहीं, भारी बरसात और ओलावृष्टि की वजह से कई पालतू पशुओं की मौत भी हुई है। आंध्र प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड की स्थिति भी अलहदा नहीं है। इन राज्यों में भी विभिन्न फसलों को भारी नुकसान पहुंचा है और किसान त्राहि-त्राहि कर रहे हैं।
विडंबना यह है कि ज्यादातर राज्य सरकारें अपनी आर्थिक बदहाली का हवाला देते हुए किसानों की हालत पर घड़ियाली आंसू बहा रही हैं और मदद के लिए केंद्र सरकार का मुंह देख रही हैं, जबकि केंद्र सरकार मदद संबंधी नियमों का हवाला देते हुए अपना पल्ला झाड़ रही है। संसद के दोनों सदनों में विभिन्न दलों के सांसदों ने भी इस स्थिति पर चिंता जताई है। जनता दल (यू) के राज्यसभा सदस्य केसी त्यागी का कहना है कि खेती-किसानी को संकट से उबारना केंद्र और राज्य सरकारों की प्राथमिकता होनी चाहिए और इसमें किसी तरह के नियम-कायदे आड़े नहीं आने चाहिए। उनका कहना है कि इसके लिए केंद्रीय मदद के तय पैमाने में भी बदलाव कर केंद्र सरकार को प्रभावित राज्यों की मदद करना चाहिए। त्यागी ने राज्यसभा में भी भारी बारिश से नष्ट फसलों का मामला उठाते हुए किसानों को लागत के आधार पर मुआवजे की मांग केद्र सरकार से की है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि किसानों को संकट से उबारने के लिए सरकारों को हर मुमकिन कदम उठाने चाहिए, लेकिन साथ ही मौसम की लगातार बदलती चाल जो संदेश दे रही है, उसे भी हमें गंभीरता से समझना चाहिए। मार्च के महीने में देश के इतने बड़े हिस्से में इतनी तेज और इतनी लंबी बारिश कोई सामान्य बात नहीं है। जिस पश्चिमी विक्षोभ का हवाला मौसम विभाग ने दिया है, उसकी व्यापकता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उसने बंगाल की खाड़ी और अरब सागर यानी देश के पूर्वी और पश्चिमी दोनों छोरों से नमी उठाई थी। मौसम की बदलती चाल के लिए जिम्मेदार ऐसे कारक जो संदेश हमें दे रहे हैं, वह काफी गंभीर हैं। इन्हें समझने में जिस तरह की सतर्कता और तत्परता हमें दिखानी चाहिए, वह हम नहीं दिखा पा रहे हैं। वैसे हमारे मौसम विभाग के अफसर अभी तक निष्ठापूर्वक इन संकेतों को पकड़ते रहे हैं और हमें इनके बारे में जानकारी देते रहे हैं। लेकिन यह मामला सामान्य ढंग से आसमान साफ होने, बूंदाबांदी या भारी बारिश होने या तापमान इतने से उतने डिग्री के बीच रहने के पूर्वानुमान तक सीमित नहीं है।
समूचे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में ऐसी ही उग्र मौसमी घटनाएं दर्ज की गई हैं। अगर ये घटनाएं मौसम के बदलते मिजाज को जाहिर कर रही हैं तो यह तथ्य ध्यान रखा जाना चाहिए कि यहां के सारे देशों की खेती-बाड़ी, उद्योग-धंधे और रहन-सहन काफी हद तक मौसम पर ही निर्भर करते हैं। इसलिए मौसम के मिजाज में ऐसे बड़े बदलावों को दर्ज कर उनका विश्लेषण करने की जिम्मेदारी अफसरों की नहीं बल्कि वैज्ञानिकों की होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो व्यवस्था के मारे किसान कुदरत की मार के शिकार होने के लिए भी अभिशप्त बने रहेंगे।