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Written By वृजेन्द्रसिंह झाला

हे माधव! अब कौन बचाएगा 'द्रौपदी' को

असम में मानवता हुई शर्मसार

महाभारत मानवता शर्मसार असम
Devendra SharmaWD
हस्तिनापुर की सभा में दुशासन द्रौपदी का चीर खींच रहा था। कातर दृष्टि से द्रौपदी कभी अपने महाबलशाली पतियों को देख रही थी तो कभी पितामह भीष्म और गुरु द्रोणाचार्य को। सक्षम होने के बावजूद कोई भी हाथ द्रौपदी का सम्मान बचाने के लिए आगे नहीं बढ़ा। अन्तत: उसने कृष्ण को पुकारा और उन्होंने नारी सम्मान की रक्षा की। हम सभी जानते हैं कि इस घटना की परिणति कालांतर में महाभारत युद्ध के रूप में हुई।

शनिवार के दिन इतिहास फिर दोहराया गया। मानवता को शर्मसार और कलंकित करने वाली यह घटना असम में घटी, जब कुछ लोगों ने एक आदिवासी महिला के वस्त्रों को सरेआम तार-तार कर दिया। कुछ महिलाओं को बुरी तरह सड़क पर घसीटा गया।

महिलाएँ चीखती-चिल्लाती रहीं लेकिन उनकी मदद के लिए कोई भी आगे नहीं आया। इन महिलाओं का कसूर सिर्फ इतना था कि वे आरक्षण की माँग कर रहे अपने आदिवासी भाइयों के साथ सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद कर रही थीं।

जिस समय कुछ लोग अपने पुरुषत्व (?) का निर्लज्ज प्रदर्शन कर एक निरीह महिला के दामन को तार-तार कर रहा थे, उस समय राज्य की पुलिस ने भी धृतराष्‍ट्र की तरह खुद को अंधा बना लिया और सभ्य समाज के लोग नजरें झुकाए यह तमाशा देखते रहे। नहीं थे तो वे हाथ जो उस अबला के आँचल को ढाँक सकें।

बेशर्मी की हद तो उस समय हो गई जब लोग नग्न महिला का शरीर ढाँकने के बजाय मोबाइल और कैमरों से उसके फोटो खींचते रहे। राष्ट्रीय समाचार चैनलों ने भी इस 'चीरहरण' का प्रसारण कर पूरे देश को शर्मसार कर दिया। राज्य सरकार ने इस निर्लज्जता का एक लाख मुआवजा देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी।

सरकार ने इससे यह साबित करने की कोशिश की कि एक महिला के सम्मान की कीमत एक लाख रुपए है। उचित होगा कि राज्य के मुख्‍यमंत्री इस दुष्कृत्य में शामिल लोगों को कड़े से कड़ा दंड देने की व्यवस्था करें ताकि इस तरह की घटनाओं की समाज में पुनरावृत्ति नहीं हो। कांग्रेस शासित असम की इस घटना के प्रति राष्ट्रीय महिला आयोग की भूमिका पर भी कम आश्चर्यजनक नहीं होता। इस मामले में कहीं भी महिला आयोग की सक्रियता देखने को नहीं मिली।

यह कहकर पीड़ा होती है कि क्या हम उसी संस्कृति सम्पन्न देश में रहते हैं, जहाँ कहा जाता रहा है कि 'जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता वास करते हैं'। इस घटना से तो यही लगता है कि हमने नारी सम्मान को ताक पर रख दिया है। यही कारण है कि समाज में शैतान वास करने लगे हैं।

कहाँ है शिवाजी की वह उदात्त सोच जब सैनिकों द्वारा बंदी बनाई गई एक सुंदर मुस्लिम महिला को यह कहते हुए उन्होंने रिहा करने का हुक्म दिया था कि काश! मेरी माँ भी इतनी सुंदर होती। नि:संदेह इस तरह की घटनाएँ हमारे सांस्कृतिक पतन की ओर ही इशारा करती हैं। ऐसा लगता है मानो आधुनिकता की अंधी दौड़ में सामाजिक मूल्य और सिद्धांत बहुत पीछे छूट गए हैं।

आज के समाज में धृतराष्ट्र, दुर्योधन और दुशासनों की भरमार है। सिर झुकाकर इस तरह के कृत्यों को तटस्थ भाव से देखने वाले भीष्म पितामहों और गुरु द्रोणाचार्य और कृपाचार्यों की भी समाज में कोई कमी नहीं हैं। वह समय दूर नहीं जब समाज इस तरह के लोगों को दुत्कारेगा। इस संदर्भ में दिनकर जी की पंक्तियाँ काफी प्रासंगिक हैं-

'समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध।'

आज के इस दौर में नहीं हैं तो वो वासुदेव, जो समाज की विकृतियों से लड़कर अबलाओं का 'चीरहरण' रोक सकें। ऐसे में बरबस ही मन कह उठता है- हे माधव! अब कौन बचाएगा द्रौपदियों को।